जयप्रकाश त्रिपाठी
पांच हाथ के झिनड्ढे छप्पर की छांव में टूटी-फूटी जुलजुल कुर्सी पर फटे टायर की गद्दी, कुर्सी के तीन तरफ लटकती चीथड़ों की चादर, कुर्सी के सामने दीवार पर टंगा अंधे शीशे में अपना चेहरा ढूंढते हुए अटकता-भटकता मैं।
ये मेरे मोहल्ले के नाई महोदय का सड़किया सैलून है। यही बगल में नगर निगम का डलावघर है। आसपास के मोहल्लों का कूड़-करकट भी यहीं बरसा कर निगम की मशीन अंधेरे में फूट लेती है। करते रहें मोहल्ले वाले चांव-चांव अपनी बला से।
अचेत कर देने वाली तरह-तरह की बदबू से जूझता हुआ मैं चुपचाप इकोनॉमिक्स से एमए पास नाई महोदय की फिलास्फी सुनता जा रहा हूं, सुनता जा रहा हूं। मुद्दत बाद उन्हें कोई पूरी तसल्ली से सुनने वाला मिला है। कतरनी से तेज गति उनके जुबान की।
पहले वह अपने आसपास की दुकानों की हिस्ट्री बताते हैं। फिर अपना और उन दुकानदारों का अर्थशास्त्र.... कि कैसे फलां ने रातोरात वो सामने वाली दुकान पर कब्जा जमा लिया, बाएं सब्जीवाले झोपड़े के जन्म की तो कहानी और मजेदार है, सुनेंगे तो हंसते-हंसते लोट जाएंगे, और वो जो इस्त्री वाली दुकान की सीढ़ी पर बैठा लंबोदर सिर खुजा रहा है (जरा सिर घुमाकर देख लीजिए, कैंची पल भर थमी)...बड़ा औघड़ है। पूछ लीजिए इससे पूरे शहर, प्रदेश, देश-विदेश की पॉलिटिक्स। पक्कास कलक्टरगंज हैं, सबकी हिस्ट्री बांच देगा एक सांस में। बुलाऊं?
नहीं भाई, रहने दो, जल्दी से निपटाऊ, अभी सब्जीमंडी जाना है, उधर से चक्की पर आंटा भी उठाकर ले जाना है घर।
अच्छा!! तो आप आटा भी पिसाने जाते हैं?
क्यों? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए?
नहीं-नहीं, मेरे कहने का मतलब वो नहीं। मैं थोड़ा बहुत सोशल साइटों पर भी टहलता रहता हूं। अखबार-सखबार पढ़ लेता हूं। कई राइटर्स की किताबें भी पढ़ी हैं। बुद्धिजीवी गए आटा पिसाने तो लिखेगा कौन?
मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं। और उन लकड़बग्घों जैसा तो कत्तई नहीं जो मुफ्त की रोटियां तोड़ कर रामचरित मानस, सुमित्रानंदन पंत, फ्रायड, मार्क्स और बनारस के घाट-घाट की कहानियां लिखते-पढ़ते हैं। भारतीय मनीषा पर चोटी की तुकबंदियां करते रहते हैं।
तो?
तो क्या, तुम सोचो कि मैं तुम्हारे ही सैलून में क्यों आता हूं। तो अपने गांव कब जा रहे हो?
अभी दीपावली पर तो गया ही था। बड़ा झमेला है वहां। छोटा भाई परधान हो गया है। चाचा और उनके बच्चों को जेल में बंद करवा दिया है। अब पिताजी को कहता है कि ग्राम सभा की सहन में अपनी झोपड़ी डाल लो, मेरे बच्चों को दिक्कत हो रही है। मां पर कई बार थप्पड़ छोड़ चुका है। दीपावली पर मनरेगा के पैसे से ठेल भर पटाखे खरीद लाया था। मैंने समझाया तो झपट पड़ा। भाई होकर भी 'नाई की गाली' देने लगा। अब आज ही सुबह सूचना मिली है कि पुलिस ने उसे कल शाम गिरफ्तार कर लिया। अब क्या करूं, भाई है, जी नहीं मानता। कोई सोर्स-पैरवी हो तो बताओ, कैसे छूटेगा।
इतना पढ़ लिख कर एक तो सड़किया सैलून में जिंदगी खपा रहे हो, दूसरे दिमाग घर पर रख आए हो। मैं तो चला। इस तरह की बातें करोगे तो आइंदा नहीं आऊंगा।
मत आना। इहां कौन सी ग्राहकों की कमी है। पढ़ाई-लिखाई और देश-दुनिया की बातें तो अपने औघड़िया दोस्त से कर लूंगा।
नमस्ते भाई। चला। मेरा भी तुम्हारे यहां आए बिना जी कहां भरता है।
पांच हाथ के झिनड्ढे छप्पर की छांव में टूटी-फूटी जुलजुल कुर्सी पर फटे टायर की गद्दी, कुर्सी के तीन तरफ लटकती चीथड़ों की चादर, कुर्सी के सामने दीवार पर टंगा अंधे शीशे में अपना चेहरा ढूंढते हुए अटकता-भटकता मैं।
ये मेरे मोहल्ले के नाई महोदय का सड़किया सैलून है। यही बगल में नगर निगम का डलावघर है। आसपास के मोहल्लों का कूड़-करकट भी यहीं बरसा कर निगम की मशीन अंधेरे में फूट लेती है। करते रहें मोहल्ले वाले चांव-चांव अपनी बला से।
अचेत कर देने वाली तरह-तरह की बदबू से जूझता हुआ मैं चुपचाप इकोनॉमिक्स से एमए पास नाई महोदय की फिलास्फी सुनता जा रहा हूं, सुनता जा रहा हूं। मुद्दत बाद उन्हें कोई पूरी तसल्ली से सुनने वाला मिला है। कतरनी से तेज गति उनके जुबान की।
पहले वह अपने आसपास की दुकानों की हिस्ट्री बताते हैं। फिर अपना और उन दुकानदारों का अर्थशास्त्र.... कि कैसे फलां ने रातोरात वो सामने वाली दुकान पर कब्जा जमा लिया, बाएं सब्जीवाले झोपड़े के जन्म की तो कहानी और मजेदार है, सुनेंगे तो हंसते-हंसते लोट जाएंगे, और वो जो इस्त्री वाली दुकान की सीढ़ी पर बैठा लंबोदर सिर खुजा रहा है (जरा सिर घुमाकर देख लीजिए, कैंची पल भर थमी)...बड़ा औघड़ है। पूछ लीजिए इससे पूरे शहर, प्रदेश, देश-विदेश की पॉलिटिक्स। पक्कास कलक्टरगंज हैं, सबकी हिस्ट्री बांच देगा एक सांस में। बुलाऊं?
नहीं भाई, रहने दो, जल्दी से निपटाऊ, अभी सब्जीमंडी जाना है, उधर से चक्की पर आंटा भी उठाकर ले जाना है घर।
अच्छा!! तो आप आटा भी पिसाने जाते हैं?
क्यों? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए?
नहीं-नहीं, मेरे कहने का मतलब वो नहीं। मैं थोड़ा बहुत सोशल साइटों पर भी टहलता रहता हूं। अखबार-सखबार पढ़ लेता हूं। कई राइटर्स की किताबें भी पढ़ी हैं। बुद्धिजीवी गए आटा पिसाने तो लिखेगा कौन?
मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं। और उन लकड़बग्घों जैसा तो कत्तई नहीं जो मुफ्त की रोटियां तोड़ कर रामचरित मानस, सुमित्रानंदन पंत, फ्रायड, मार्क्स और बनारस के घाट-घाट की कहानियां लिखते-पढ़ते हैं। भारतीय मनीषा पर चोटी की तुकबंदियां करते रहते हैं।
तो?
तो क्या, तुम सोचो कि मैं तुम्हारे ही सैलून में क्यों आता हूं। तो अपने गांव कब जा रहे हो?
अभी दीपावली पर तो गया ही था। बड़ा झमेला है वहां। छोटा भाई परधान हो गया है। चाचा और उनके बच्चों को जेल में बंद करवा दिया है। अब पिताजी को कहता है कि ग्राम सभा की सहन में अपनी झोपड़ी डाल लो, मेरे बच्चों को दिक्कत हो रही है। मां पर कई बार थप्पड़ छोड़ चुका है। दीपावली पर मनरेगा के पैसे से ठेल भर पटाखे खरीद लाया था। मैंने समझाया तो झपट पड़ा। भाई होकर भी 'नाई की गाली' देने लगा। अब आज ही सुबह सूचना मिली है कि पुलिस ने उसे कल शाम गिरफ्तार कर लिया। अब क्या करूं, भाई है, जी नहीं मानता। कोई सोर्स-पैरवी हो तो बताओ, कैसे छूटेगा।
इतना पढ़ लिख कर एक तो सड़किया सैलून में जिंदगी खपा रहे हो, दूसरे दिमाग घर पर रख आए हो। मैं तो चला। इस तरह की बातें करोगे तो आइंदा नहीं आऊंगा।
मत आना। इहां कौन सी ग्राहकों की कमी है। पढ़ाई-लिखाई और देश-दुनिया की बातें तो अपने औघड़िया दोस्त से कर लूंगा।
नमस्ते भाई। चला। मेरा भी तुम्हारे यहां आए बिना जी कहां भरता है।
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