श्रीकांत
श्रीकांत देश के उन गिने-चुने पत्रकारों में से हैं, जिन्होंने रोजाना की खबरों की दुनिया में रहते हुए भी कई शोधपरक पुस्तकें लिखीं। दैनिक हिन्दुस्तान के पटना संस्करण से कोआर्डिनेटर स्पेशल प्रोजेक्ट के पद से पिछले वर्ष सेवानिवृत्त हुए श्रीकांत का अनुभव संसार व्यापक है। श्रीकांत द्वारा लिखी गई शोधपरक पुस्तकें बिहार में दलित आंदोलन : 1992-2000 और बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, 1857 : बिहार-झारखंड में महायुदध, बिहार-झारखंड पर किए जाने वाले किसी भी राजनीतिक-सामाजिक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ मानी जाती हैं। ये पुस्तकें उन्होंने प्रसन्न कुमार चौधरी के साथ बतौर सह लेखक लिखी हैं। बिहार में चुनाव : जाति, बूथ लूट और हिंसा, बिहार का चुनावी भुगोल समेत उनकी और भी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। वह कहते हैं कि मैंने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया, लेकिन अखबारों में काम करते हुए और आज भी देखता हूं कि जैसा समाज रहेगा, उसका जीवन के हर क्षेत्र में वैसा ही प्रभाव पड़ेगा। शिक्षण संस्थानों, सरकारी दफ्तरों, न्यायालयों, विधानमंडलों और अखबार के दफ्तरों का कमोबेश एक जैसा हाल है। चूंकि समाज में ही ऊंच-नीच, जांत-पांत, छोटा-बड़ा का भेदभाव हर पल एहसास कराता रहता है तो संस्थान इससे कैसे मुक्त रह सकते हैं। आज भी सनातनी सिस्टम ही चल रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार अरुण सिन्हा ने किसान आंदोलन के संबंध में लिखी गई उक्ति में कहा था कि दृश्य अखबारों में बड़े भूस्वामी, कुलीन वर्ग के लोग काम करते हैं, जिसके कारण वे 70 के दशक के किसान आंदोलन के खिलाफ हैं। 1883 में रेंट क्वे्शचन नामक किताब में ए मैकेंजी, ब्रिटिश सरकार में मुख्य सचिव ने लिखा है-"अखबार भूस्वामी और धनी वर्ग के मुखपत्र हैं और यहां व उनके देश में उनके प्रभावशाली मित्र हैं। बिहार में बंटाईदारी का आंदोलन जब 1967-68 में चल रहा था तो जेपी ने अखबारों के बारे में क्या कहा था वह देखना भी दिलचस्प होगा। अशांति का जो वातावरण है उसमें कुछ अखबारवालों और राजनीतिक दलों का हाथ है। अभी जो अखबार की हालत है, अमीर-गरीब पर हिंसा करता है तो कोई न्यूज नहीं होती है और अगर गरीब अमीर पर हिंसा कर देता है हल्ला हो जाता है। योगेन्द्र यादव, अनिल चमडिय़ा और प्रमोद रंजन का बुकलेट देख लें, जिसमें उन्होंने मीडिया के सामाजिक चरित्र का सर्वेक्षण किया है और बताया है कि मीडिया संस्थानों में फैसला लेने वाले पदों पर आदिवासी, दलित और ओबीसी की संख्या शून्य है। ये सर्वे क्रमश: वर्ष 2006 और वर्ष 2009 में हुए थे। आप आज भी पटना के हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, टाइम्स आफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ-साथ टीवी चैनलों का सर्वे कराकर देख लीजिए तो पता चल जाएगा कि इन अखबारों में समाज का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी हाशिए पर है। 21वीं सदी में आधुनिक प्रबंधन का यह नया ब्राह्मणवादी अवतार है। रातोंरात कुछ भी नहीं बदलता। जो कुछ भी बदला है वह पिछले सौ सालों की लड़ाई का परिणाम है। जनेऊ आंदोलन, कम्युनिस्ट आंदोलन, नक्सली आंदोलन, गांधी-आम्बेडकर के अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन, जाति उन्मूलन आंदोलन और लोहिया के आंदोलन के असर के कारण ही पिछली सदी के 70-80 वर्षों में सामाजिक बदलाव हुए। कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक की परीक्षा में पास होने की अनिवार्यता से अंग्रेजी को अलग किया। उसे भी इन्हीं आंदोलनों के साथ जोड़कर देखिए। इसके बाद आरक्षण को लागू करने और 90 के बाद लालू के उदय और नीतीश कुमार के अतिपिछड़ों और महिलाओं को पंचायतों में आरक्षण देने का सकारात्मक असर पड़ा। लगातार संघर्ष का परिणाम है कि आज बिहार की राजनीति बदल गई है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि सारी विषमताएं, सारा भेदभाव दूर हो गया। इसके लिए साल दर साल पीढिय़ों को संघर्ष करना पड़ता है और विभिन्न रंगों और रूपों में ये संघर्ष चल रहा है।
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