Monday, 29 July 2013

वे मीठी हवाओं के झोके और आंसुओं के सैलाब


जयप्रकाश त्रिपाठी

पहले की पीढ़ियां भी कई तरह से जीवन जीती रही हैं। जीवन जीने के तरीके बदलती रही हैं। तरह-तरह का जीवन जीने के नये-नये रास्ते और उपाय ढूंढती  रही हैं। हम भी आज वही सब किये जा रहे हैं।
अंतर है तो इतना भर कि हमारे तरीके, रास्ते और उपाय उनकी तुलना में ज्यादा क्षणभंगुर और सतही किस्म के लगते हैं।
कई पीढ़ियों का अनुभव न मेरे पास है, न किसी के पास कभी रहा है। अपने जीवन के दो सचेत चरणों पर नजर डालता हूं, स्वयं के और आसपास के यानी अंदर बाहर के कल के और आज के अनुभव खोलता-खंगालता हूं तो लगता है कि कल के कहां से आज के कहां तक आ पहुंचा हूं।
अपने नामचीन बुजुर्गों को मैंने बहुत करीब से पल-छिन देखते हुए पाया था कि उनमें आत्मप्रशंसा और आत्मप्रचार की आज जैसी बेचैनी नहीं होती थी। वे बिना कुछ किये-धरे 'बड़ा' होने के सपने नहीं देखते थे।
वे अपने बुजुर्गों से संस्कार में नैतिकता की इतनी नमी सोखे हुए होते थे कि उनका व्यक्तित्व हमे चौबीसो घड़ी संगत में रहने के लिए ललचाता रहता था। वे बात-बात पर झूठ का सहारा नहीं लेते थे। अपने आत्मीय जनो को वह मन से आत्मीय लगते थे। आत्मीय होने का न तो प्रवचन देते थे, न अभिनय करते थे।
उनमें विचारों की आज जैसी उच्छृंखलता भी नहीं होती थी। वे सतही और क्षणभंगुर सपनों से बहुत ज्यादा परहेज करते थे।
उनमें से एक थे मेरे पड़ोस के गांव के बुजुर्ग। मऊनाथ भंजन से चिरैयाकोट जाते समय बस अदभुत संयोग से उसी बस में सवार मिले, जिससे मैं अपने घर लौट रहा था। संयोग इसलिए कि वह अपने बेटी-दामाद के साथ अमेरिका में बस चुके थे और मन का उचाटपन खाली करने के लिए कुछ दिन रहने अपने गांव आये थे। उनके बारे में पिताजी ने इतनी तरह की प्रेरणादायक बातें बतायी थीं कि उन्हें देख लेने को मन ललचाता रहता था।.....और वे आज मेरी बगल की सीट पर बैठे मिले।
टिकट लेने, बैठने-खिसने से बातें शुरू हुईं और पिता की बतायी बातों तक पहुंच गयीं। मेरा परिचय जानकर उन्हें भी सुख मिला। मुझसे नहीं, मेरे पिता की यादों से। वह और मेरे पिता बचपन में साथ-साथ खेला-कूदा करते थे। और मेरे दो चाचा भी।
वह बताने लगे कि किस तरह वे लोग गांव से चौदह किलो मीटर दूर के मिडिल स्कूल में पैदल पढ़ने जाते थे। आते समय दोपहर को धूप से थक कर रास्ते में एक बूढ़े बरगद के बड़े से कोटरे में ठहर जाते थे। बरगद के नीचे कुआं था। झोले से सत्तू निकाल कर बरगद के पत्ते पर 'तुरंता' भोजन तैयार करने के बाद गमछे में पत्ते का दोना बनाकर कुएं से पानी निकालते थे। सत्तू-पानी के बाद आधा घंटा विश्राम करते थे और आंखें खुलने के बाद किताबें खोल लेते थे और जम कर तीन घंटे पढ़ाई करते थे। वह, पिता, दोनो चाचा एक-दूसरे का पूरा ध्यान रखते थे। वह आगरा में नौकरी का लंबा समय काटने के बाद अमेरिका चले गये। उनमें सबसे प्रतिभाशाली एक चाचा जो अच्छे गायक थे, विक्षिप्तावस्था में बाढ़ के समय नदी में डूब कर मर गये। दूसरे चाचा रामनारायण त्रिपाठी राजनीति में चले गये। उत्तर प्रदेश सरकार में लंबे समय तक डिप्ट स्पीकर रहे और फैजाबाद से लखनऊ जाकर वहीं बस गये।
पिताजी बताते थे कि डिप्टी स्पीकर हो जाने के बाद एक बार रामनारायण त्रिपाठी गांव आये। गांव के बाहर पोखरा पर वह पूरे सरकारी अमले के साथ पहुंचे। बड़ी संख्या में उन्हें देखने के लिए गांव वाले भी उमड़ आये थे। रामनारायण त्रिपाठी अचानक फूट-फूट कर रोने लगे। बाद में उन्होंने पिताजी को बताया कि उतना जोरजोर से क्यों रोने लगे थे। और उनके साथ वह उपस्थित सभी अधिकारियों, नेताओं, ग्रामीणों की आंखें भर आयी थीं।
रामनारायण त्रिपाठी की पढ़ाई बड़ी गरीबी में हुई थी। वह मेरे गांव के सबसे गरीब परिवार के छात्र रहे थे। उनकी मां बड़ी स्वाभिमानी थीं। हमारे सगे बाबा के चचेरे भाई ने उनके पिता की सारी जमीन-जायदाद हड़प ली थी। उनकी मां उसी पोखरा पर झोपड़ी डाल कर अपने दोनो पुत्रों रामनारायण और श्याम नारायण के साथ पड़ी रहती थीं। गांव में वह केवल मेरे घर से वास्ता रखती थीं। बारहो महीने कंधे पर लोटा-डोर लटका कर गांव-गांव भीख मांगती थीं रामनारायण की पढ़ाई की फीस जुटाने के लिए। रामनारायण पढ़ने में काफी प्रतिभाशाली थे। मिडिल क्लास में वह पूरे जिले में प्रथम आये थे।
उस दिन जब वह पोखरा पर पहुंचे तो यह कह कर फफक पड़े थे कि जब मैं कुछ लायक नहीं था तो मां ने मेरे लिये कितने कष्ट उठाये थे। आज जब मैं मां के लिये कुछ करने लायक हुआ हूं तो वह मेरे साथ नहीं हैं। मुझे लेकर उन्होंने यहां मेरे लिये जाने कैसे-कैसे दिन काटे थे.......
जीवन के लिए ऐसे अनेक प्रेरक प्रसंग सुनने के मिलते थे। बस से उतरते समय वह अपने गांव चले गये। मैंने पिताजी को मऊनाथ भंजन यात्रा की बात बतायी तो तुरंत उठ कर वह बगल के गांव उनसे मिलने चले गये। तब मोबाइल फोन नहीं था कि सारी फर्जी खैरियत हवाहवाई में सपन्न कर लेते।
ऐसे प्रसंगों की आज भी भूख लगी रहती है। साझा किससे किया जाये। सबके रास्ते समय ने छीन लिये हैं। वे चौराहे कहीं नजर नहीं आते। फेस बुक पर भी अक्सर लगता है, हम खामख्वाह छींकते-तापते रहते हैं। संचार संसाधनों पर कब्जा जमाते हुए बाजार के बहेलियों ने सचमुच कितने तरीके से हमे अपने चंगुल में फांस लिया है। अब यही माध्यम रह गया है तो यही सही, यहीं कुछ सुख-दुख बांट लेते हैं..... बांटते रहेंगे।

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