Monday, 29 July 2013

विदेशिया फिल्म और मूत्रालय में खर्राटे


जयप्रकाश त्रिपाठी

मुद्दत बात आज मैंने पहली बार इस तरह आईना देखा। आईने में खुद को इतना अजनबी देखा। इतना अजनबी कि मन खुद को पहचानने से इनकार करने लगा। चेहरे पर टंगे सवालों के कैलेंडर तारीख-दर-तारीख उघड़ने लगे। एक-एक तारीख जाने-पहचाने चेहरों की भीड़ में कई-कई इतिहासों की डुबकियां लगाती हुई।
रिश्ते-नाते, सगे-संबंधी, मित्र-अमित्र, बड़े-छोटे और अनेकश समवयस्क.....। और उनमें अनहद एक अदद मित्रता निभाती हुई कदम-कदम चल कर जो यहां तक साथ आती जा रही हैं, मेरी प्रिय पुस्तकें। जो तब भी साथ थीं, जब कोई साथ नहीं था, जब ढेर सारे साथ आ गये थे और आज जबकि गिने-चुने साथ हैं। कई मंगन टाइप कुशल पाठक इनमें से मेरी किताबें खिसका ले गये, जो आज मेरे साथ नहीं हैं। जाने कहां होंगी, किस हाल में।
कैलेंडर की एक तारीख पर अचानक कोई चेहरा फड़फड़ाया, जैसे अंधेरे से भटक आये चमगादड़। मित्र था। छोटे से कद का। हमेशा दोहरी मुस्कान से सामने वाले को थकाते हुए। ऐसो को अनजाने लोग नटवरलाल भी कहते हैं। वह घर में बिना बताये घुस आता था। एक थाली दाल-भात और आलू का भुर्ता भकोसने के लिए। पेट भर जाने के बाद लंबी डकार लेता था और इत्मीनान से बातें बनाता हुआ खिसक जाता था। उस जमाने में एक माफिया से उसकी खूब पटती थी। माफिया का भाई कई कत्ल कर चुका था। मेरा मित्र उसकी खूनी करतूतों पर धूल डालता फिरता था। वह मेरा मित्र आज भी शराफत की रुमाल चेहरे पर टांगे हुए मीडिया के कोने-अंतरे में दिन काट रहा है। पल भर में किसी का भी सगा बन जाने में माहिर और मिट्ठू......
एक और तारीख फड़की कैलेंडर के दूसरे कोने पर। जैसे रतौंधी के पार से झांकता हुआ। उसे नेता बनने का शौक था। बचपन से ही लंबा कुर्ता, झोलदार पायजामा और सिल्क का गमछा गले में लटकाये अपनो के बीच लंबी-लंबी तानने लगा था। एक बार उसने मुझे भी ढंग से तान लिया। उन दिनो मऊनाथ भंजन में मैं अन्य साथियों के साथ बुनकरों के लिए एक आंदोलन के मोरचे पर था। कुर्ता-गमछा वाले दोस्त ने उसमें भी अपनी जगह तान ली। चटपट जाने कैसे उसने संगठन का रजिस्ट्रेशन करा लिया। और स्वयंभू अध्यक्ष हो लेने के बाद अपनी मौसी के लड़के को भी अपनी राह लपेट लिया। मौसी का लड़का उसके पीछे-पीछे आलतू-फालतू कागजों की फाइल लेकर चलता रहता था, जैसे एसडीएम का अर्दली। आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया। दलाली पर आमादा एक बड़ा नेता बीच में कूद पड़ा। मेरे मित्र को जाने क्या सूझी, मुझे साथ लेकर दस कोस दूर स्थित अपने गांव ले गया। उसका खेत में ट्यूबवैल था। बोला- चल रात में वही दलाल के बारे में कोई जुगाड़ बनाते हैं। रात के आठ बजते ही वह कहीं से झोले में सुतली, शीशे का चूरा और बारूद उठा ले आया।
ये क्या है?
बम बनाएंगे।
क्यों
दलाल को निपटाने के लिए।
अब मुझे किसी तरह निकल भागने की पड़ी। मैंने कहा- अभी रख दे। सुबह देखेंगे। वह जब सो गया, मैं वहां से पैदल सात किलो मीटर दूर रात में भागते-पराते मुहम्मदाबाद पहुंचा। उस कस्बे मऊनाथ भंजन जाने के लिए बसें रात भर मिलती थीँ। एक बस पर सवार हुआ और मऊ पहुंच गया। उस दलाल को निपटाने के खयालों के पीछे उस मित्र की बचपने भरी राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा थी। वह चाहता था कि उसे रास्ते से हटाने के बाद वह इलाके का बहुत बड़ा नेता बन जाएगा। आज मुझे कैलेंडर पर उस रतौंधी के पीछे से झांकते अब कथित हो चुके मित्र का चेहरा देख कर खूब हंसी आ रही है......
कैलेंडर पर उससे पीछे की एक अन्य तारीख चमक उठती है। तब मैं हाईस्कूल में पढ़ता था। गांव के दो ऐसे विकट होनहार और सयाने किशोर भी उसी स्कूल में पढ़ते थे, जो मेरे सहपाठी नहीं थे। बारहवीं में पढ़ते थे। दोनो की मित्रता की एक बड़ी दयनीय और अजीब-सी वजह थी। दोनों को अपने घर में भरपेट खाने को नहीं मिलता था। कई बहनें और भाई थे दोनो के। दोनो के परिवार बहुत गरीब थे। दोनो ने पेट भरने की तरकीब निकाली। धारदार छोटा-सा एक चाकू कहीं से जुगाह लिया। उन दोनो में से किसी न किसी की जेब में वह चाकू हरदम पड़ा रहता था। स्कूल से वे बहुत पहले भाग आते थे और गांव के बाहर मेवा दुबे के गन्ने के खेत में घुस जाते थे। सांझ का घना अंधेरा घिर आने के बाद बाहर निकलते थे रसदार डकार लेते हुए। उसके बाद की बस एक घटना याद आ रही है। गन्ने की पेराई शुरू होने वाली थी। मेवा दुबे शाम को अचानक अपने खेत पर यह देखने पहुंच गये कि सुबह गन्ने की कटाई किधर से शुरू करानी होगी। खेत पर पहुंचते ही उन्हें लगा कि गन्ने की फसल के बीच कहीं कोई हलचल सी हो रही है। उन्होंने मिट्टी का ढेला फेंका तो उस तरफ से सियार बोलने लगे। वे सियार नहीं, वही दोनो थे। सियार की बोली बोलना भी उन्होंने सीख लिया था। सुबह जब गन्ना काटा जाने लगा तो फसल के मध्य हिस्से में लगभग तीन बिसवा गन्ना सफाचट मिला। वहां गन्ने के छिलके के बड़े-बड़े ढेर पड़े थे। सोच कर हंसी आ रही है। स्कूल छोड़ने के बाद दोनो मिलिट्री में भरती हो गये थे भर पेट भोजन के लिए.....
अभी और कई चेहरे उभर रहे हैं....चीखुर वाले बाबा, मौनी चाचा, अडंगा के महंत की कुटी और सगड़ा के सरपत, जिनमें वनमुर्गियां नाचती रहती थीं। और दुक्खन मियां की करताल, अवधू का हनुमान चालीसा, मथुरा यादव की चिकारी, बंसी दुबे का दही-बड़ा कांड......चंतारा की भैंस, लंघू का चिलम.... विदेशिया फिल्म देखने की रात मूत्रालय में खर्राटे भर रहे मरकहवा मास्टर की लुकाछिपी......


  

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