Tuesday 2 July 2013

शहीद भगतसिंह की गलत छवि पेश करने की साजिश


सुधीर सुमन

मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा प्रायः शासकवर्ग की संस्कृति और विचारधारा का   ही प्रचार-प्रसार करता है, अपनी व्यावसायिक बाध्यताओं के कारण वह किसी   क्रांतिकारी विषय या चरित्र को उठाता भी है   तो इतनी सावधानी के साथ कि   शासक वर्ग के लिए वह कोई गंभीर संकट न खड़ा कर दे। गौर से देखें   तो आमतौर पर भारतीय राजनीति और समाज पर जिनका वर्चस्व है- जो शासक वर्ग है,   उसके लिए भगतसिंह की विचारधारा आज भी खतरनाक है। इसके बावजूद इक्कीसवीं सदी की शुरुआत होते ही, पांच-पांच फिल्में बनाने की घोषणाएं हुईं, सन् 2002 में तीन फिल्में प्रदर्शित भी हुईं, जिनमें से धर्मेंद्र और राजकुमार संतोषी द्वारा बनाई गई फिल्में अक्सर देशभक्ति के लिए तय दिवसों को किसी न किसी टीवी चैनल पर दिखाई जाती रही हैं। इनके बाद एक और फिल्म आई- रंग दे बसंती।
भगतसिंह निर्विवाद रूप से आजादी की लड़ाई के सर्वाधिक लोकप्रिय नायक रहे हैं। पोपुलर सिनेमा में गांधी, सावरकर या किसी अन्य चरित्र को लेकर शायद ही कभी ऐसी प्रतिस्पर्धा हुई होगी, जैसी भगतसिंह और उनके साथियों को लेकर   हाल के वर्षों में रही है। बेशक आज देश जिस तरह के संकट से गुजर रहा है, उसमें लोगों की स्वाभाविक आकांक्षा है कि भगतसिंह जैसा राष्ट्रनायक फिर से   पैदा हों। हिंदी सिनेमा इस जनाकांक्षा को भुनाने के चक्कर में ही अचानक   भगतसिंह की जीवन-गाथा की ओर दौड़ पड़ा। लेकिन जिस तरह सर्वव्यापी   भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और अपराधियों और काले धन वालों के वर्चस्व के तले पीस रही जनता के विक्षोभ को संगठित न होने देने और उसे गलत दिशा में भटका देने के लिए शासक वर्ग सांप्रदायिक, जातिवादी-अंधराष्ट्रवादी उन्माद का सहारा लेता है या ऐसे भूतपूर्व नौकरशाहों, कारपोरेट संतों और राजनेता पुत्रों को नायक के बतौर उभारता है, जो वास्तव में पूंजी की सत्ता का विनाश करने वाले नहीं बल्कि उसके चारण होते हैं, उसी तर्ज पर हिंदी सिनेमा ‘सुपरमैन’ से लगने वाले लड़ाकों को पेश करता है, जो किसी भी समस्या   की मूल वजह नहीं तलाशते, उनके सामने कोई एक दुश्मन रहता है, जिसे खत्म कर देना ही हर समस्या का समाधान होता है। उसके लिए भगतसिंह एक ऐसे ‘ही मैन’ हैं, जो देश के दुश्मन अंग्रेजों से दिलेरी के साथ लड़ते हुए फांसी पर चढ़ गए। भगतसिंह साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति के नायक हैं और वे और   उनके साथी एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के लिए राजनैतिक-वैचारिक संघर्ष चला रहे थे, यह तथ्य भगतसिंह पर बनी फिल्मों में   प्रायः नहीं है।
‘राष्ट्रवाद’ की अन्य धाराओं से भगतसिंह और उनके साथियों की जो बहसें थी, जो वैचारिक टकराव थे, वे सामने नहीं आते। भगतसिंह पर बनी फिल्मों में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक प्रसंग धर्मेंद्र की फिल्म ‘शहीद: 23 मार्च 1931’ में दिखाई देता है। इसमें भगतसिंह को एक उग्र हिंदू अंधराष्ट्रवादी के रूप में   दिखाया गया है। फिल्म के शुरुआती हिस्से में भगतसिंह जब एक देशभक्ति गीत   गाते हैं तब वहां मंच की पृष्ठभूमि में भारतमाता की जो तस्वीर है, वह आरएसएस द्वारा प्रचारित छवि से मेल खाती है। अकारण नहीं है कि भगतसिंह जो साम्राज्यवाद प्रेरित युद्धों के कट्टर विरोधी थे, उन पर बनी फिल्म को देखते वक्त पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगे थे। बॉबी देओल ने बाकायदा एक साक्षात्कार में कहा था- ‘‘भगतसिंह का किरदार निभाने से पता चला कि वे किस मिट्टी के बने थे, वे कितने बुद्धिमान व विचारवान थे और उनके क्या अहसास   थे। अंग्रेज शासकों की तरह पाकिस्तान के खिलाफ भी हम सब भारतीयों को एकजुट   होना चाहिए।’’
‘23 मार्च 1931 शहीद’ में भगतसिंह को हिंदूसभाई लाला लाजपत राय के   अंधअनुयायी की तरह दिखाया गया है। एक लिजलिजी श्रद्धा है, जो भगतसिंह के   व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती। इतिहास गवाह है कि भगतसिंह और उनके साथी   लाला लाजपत राय के सांप्रदायिक विचारों के सख्त विरोधी थे। राय की हत्या का प्रतिशोध भावनात्मक कम, राजनीतिक रणनीति अधिक थी। मगर एक दूसरी फिल्म ‘शहीद-ए-आजम’ में भी इसे महज भावनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में ही दिखाया गया है। राजकुमार संतोषी की फिल्म ‘लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ इस मायने में सर्वथा भिन्न है। उसमें भगतसिंह का वैचारिक-राजनैतिक स्टैंड स्पष्ट रूप से सामने आता है। अधिकांश समीक्षकों ने संतोषी की फिल्म को भगतसिंह पर बनी फिल्मों में अधिक तथ्यपरक माना। इसकी वजह यह भी है कि यह पीयूष मिश्रा के नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ पर आधारित है। इसके गीतों में निहित भावों को एआर   रहमान का संगीत अत्यंत संवेदनात्मक कुशलता से अभिव्यक्त करता है। यह पहली   फिल्म है जो भगतसिंह और उनके साथियों पर पड़े रूसी क्रांति के प्रभावों की ओर संकेत करती है।
अपने शिक्षक विद्यालंकार जी से उनका जब पहले-पहल समाजवादी अवधारणाओं   से परिचय होता है, उस वक्त पृष्ठभूमि में दर्शकों को मार्क्स और लेनिन की तस्वीरें नजर आती हैं। भगतसिंह और उनके साथी समाजवादी हैं, यह तथ्य ‘शहीद-ए-आजम’ में भी है, पर समाजवाद का मकसद क्या है, इसके बारे में यह फिल्म चुप रहती है। संतोषी की फिल्म ‘द लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ जरूर उस मकसद के बारे में बताती है हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी की प्रसिद्ध फिरोजशाह कोटला मीटिंग के दृश्य में भगतसिंह कहते हैं- ‘‘सिर्फ आजादी हमारा मकसद नहीं है। अगर कांग्रेस की राह से आजादी आ भी गई तो उससे गरीबों, मजदूरों और किसानों की हालत में कोई बदलाव नहीं आएगा। गोरे साहब की जगह भूरे साहब आ जाएंगे और आगे चलकर धर्म और जात-पांत के नाम पर पूरे देश में जो आग   भड़केगी, आने वाली पीढि़यां उसे बुझाते-बुझाते थक जाएंगी। हमारा मकसद इस शोषण करने वाली व्यवस्था को खत्म कर समाजवाद लाना है।’’ इसी मीटिंग में एच.आर.ए. के साथ ‘सोशलिस्ट’ शब्द जुड़ा। इस फिल्म में एच.एस.आर.ए. की बैठकों में क्रांतिकारी एक दूसरे को कामरेड कहकर संबोधित करते हैं। जहां   दूसरी फिल्मों में चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर सारे पात्र भगतसिंह के पिछलग्गू जान पड़ते हैं, वहीं ‘द लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ में कामरेडों का एक पूरा ग्रुप उभरता है। शिव वर्मा और अजय घोष भी नजर आते हैं।
आमतौर पर असेंबली में बम फेंकने की साहसपूर्ण कार्रवाई की चर्चा के क्रम में लोग यह भूल जाते हैं कि भगतसिंह ने मजदूर हड़तालों को कुचलने के लिए बनाए जा रहे ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में बम फेंका था। ‘द लिजेंड ऑफ़   भगतसिंह’ इस मामले में सचेत रही है। फिल्म में अन्यत्र भी भगतसिंह अपनी बातों को किसान-मजदूरों तक पहुंचाने की जरूरत पर जोर देते हैं। मगर   वे कौन सी बातें हैं, वे कैसे विचार हैं, जिनको भगतसिंह किसान-मजदूरों, नौजवानों और बुद्धिजीवियों तक पहुंचाना चाहते थे, उनकी आज क्या प्रासंगिकता है, इस बारे में यह फिल्म भी बहुत कुछ नहीं बताती।
इसके लिए राजकुमार संतोषी को जरूर बधाई देना चाहिए कि भगतसिंह के मंगेतर   वाले प्रसंग को छोड़कर उन्होंने आमतौर पर ऐतिहासिक तथ्यों से कोई खिलवाड़ नहीं किया है। एक ओर जहां सन्नी देओल अपनी फिल्म में पार्टी का नाम तक   नहीं लेते, वहीं संतोषी अपनी फिल्म में उस पार्टी का नाम और सोशलिज्म के   प्रति उसकी आस्था को बेझिझक सामने लाते हैं। अपनी फिल्म के अंत में   स्क्रीन पर दर्शकों के लिए वे एक सवाल छोड़ते हैं- ‘‘भगतसिंह और उनके   साथियों ने अपना जीवन एक आजाद, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए   बलिदान किया। आज भी हम भारत में सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार और शोषण का सामना कर रहे हैं। क्या हमने उनके बलिदान के साथ विश्वासघात नहीं किया?’’ आखिर अंग्रेजी में लिखे इस सवाल का दर्शकों पर कितना असर पड़ता है ? विश्वासघात आखिर किसने किया, रहनुमाओं ने या आमलोगों ने ?
भगतसिंह पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, वर्णभेद, सांप्रदायिकता और अंधविश्वास के विरोधी थे। गांधी से उनका टकराव सिर्फ हिंसा-अहिंसा को लेकर नहीं था, जबकि भगतसिंह पर बनी फिल्में कमोबेश उन्हें हिंसा-अहिंसा के प्रतीकों में   तब्दील कर देती हैं। गांधी जी के वर्ग समन्वय और अध्यात्मवाद से भी क्रांतिकारियों का विरोध था। गांधी और लाला लाजपत राय, दोनों बोल्शेविक किस्म की क्रांति के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि साम्यवादी विचारों के प्रचार से पूंजीपति सरकार के साथ मिल जाएंगे। क्रांतिकारियों ने पूंजीपतियों के सहयोग से चलने वाले संघर्ष पर काफी व्यंग्य भी किया था। उन्होंने तो लाला लाजपत राय पर सरकार के लिए क्रांतिकारियों की मुखबिरी   करने का आरोप भी लगाया था। सरकार कांग्रेस और गांधी जी पर इसलिए मेहरबान   थी कि वे किसी जनक्रांति, खासकर कम्युनिस्ट क्रांति के पक्षधर नहीं थे। अपने ‘महात्मापन’ के प्रति सदैव सचेत रहने वाले गांधी जी ने ‘ऐतिहासिक कलंक’ की आशंका के बावजूद अगर भगतसिंह को बचाने के लिए कुछ नहीं किया   तो इसकी एकमात्र वजह यही थी। भगतसिंह पर बनाई गई सारी फिल्मों में यह दिखाया गया है कि ब्रिटिश सरकार भगतसिंह को येन-केन-प्रकारेण खत्म कर देना चाहती थी। आखिर क्यों ? सिर्फ इसलिए नहीं कि भगतसिंह साम्राज्यवाद के खिलाफ आजीवन   समझौताविहीन संघर्ष चलाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे, बल्कि इसलिए कि वे क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन विकसित करना चाहते थे। गुप्तचर ब्यूरो के तत्कालीन निदेशक डेविड पेट्रिक की रिपोर्ट में भी कम्युनिज्म के प्रति सरकार के खौफ को महसूस किया जा सकता है।
साम्राज्यवादियों को आज भी कम्युनिज्म बर्दाश्त नहीं होता। उनकी पिट्ठू सरकारें आज भी कम्युनिज्म के भय से कांपती हैं। अपने देश की सरकारों की साम्राज्यवादपरस्ती तो जगजाहिर है। 2002 में जब ये फिल्में प्रदर्शित हुईं, तब फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष ने भगतसिंह द्वारा लेनिन की जीवनी   पढ़ने पर इसलिए एतराज किया था कि कहीं लोग यह न मान लें कि वे वामपंथी विचारधारा के थे। उनका बयान था कि ‘‘हम नहीं चाहते कि दूसरे राष्ट्रीय   नेताओं की कीमत पर भगतसिंह की तारीफ की जाए। जहां तक लेनिन का सवाल है, हम रूस का महिमामंडन क्यों करें?’’ मृत्यु के इतने सालों के बाद भी भगतसिंह के विचारों के प्रति शासकवर्ग के खौफ की यह बानगी है। उनके विचारों और जीवन पर केंद्रित किताबें बेचने को भी इस आजाद देश की सरकारों ने गुनाह   ठहराया और लोगों को जेल में डाला। कुछ ऐसे ही हाल देखकर कभी गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था- भगतसिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की/देशभक्ति   के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की। खैर, देखने लायक है कि वे कौन से विचार हैं, जिनके लिए आज भी भगतसिंह को मारने के लिए शासकवर्ग हरसंभव कोशिश करता है। असेंबली बमकांड वाले केस में सेशन कोर्ट में बयान देते हुए उन्होंने कहा था- ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निमाण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है।’’
यह संयोग मात्र नहीं है कि भगतसिंह पर केंद्रित फिल्मों में साम्राज्यवाद के नए हमलों के प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई पड़ती। बल्कि बाद में प्रदर्शित ‘रंग दे बसंती’, जिसमें आज के कुछ नौजवान भगतसिंह और उनके साथियों की जिंदगी को जीने की कोशिश करते हैं और एकाध भ्रष्ट नेताओं की हत्या के जरिए बदलाव का सपना देखते हैं, उसमें भी साम्राज्यवाद के साथ भारतीय शासकवर्ग का रिश्ता कहीं नहीं दिखता, बल्कि भ्रष्टाचार और राष्ट्रवाद का भी जो संदर्भ है, वह सेना से ही जुड़ा हुआ है। अब इसका क्या करें कि देशभक्ति का पर्याय बना दी गई सेना के भ्रष्टाचार के किस्से भी अब सरेआम हो चुके हैं। सवाल यह है कि फौज और पुलिस किनके हितों की रक्षा करती है, किनके हितों के लिए सिपाही कुर्बान होते हैं ? पूरे देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का चारागाह बना देने वाली सरकारें क्या देशभक्त   हैं? भगतसिंह ने कहा था कि ‘‘अगर कोई सरकार जनता को उसके मूलभूत अधिकारों   से वंचित रखती है तो जनता का केवल यह अधिकार ही नहीं, बल्कि आवश्यक   कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी सरकारों को समाप्त कर दे।’’ क्या मौजूदा रंग-बिरंगी पार्टियों की सरकारों ने जनता को उनके मूलभूत अधिकारों से   वंचित नहीं कर रखा है ? और क्या जो लोग अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़   रहे हैं उनको बर्बरता के साथ कुचलने के मामले में   इन सारी सरकारों के बीच एकता नहीं है?
पाकिस्तान विरोधी अंधराष्ट्रवाद का मामला हो या धर्म और सांप्रदायिकता के राजनीतिक इस्तेमाल का, भारत की अधिकांश पार्टियां और सरकारें इससे व्यवहार   में सहमत दिखती हैं, जबकि भगत सिंह इसके प्रबल विरोधी थे। अपने स्वाधीनता आंदोलन की बुनियादी गड़बड़ी का जिक्र करते हुए उन्होंने ‘सांप्रदायिक दंगों और उसका इलाज’ लेख में लिखा है कि ‘‘ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन   में जा मिले हैं, वैसे तो जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं, जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं, और सांप्रदायिकता की ऐसी   बाढ़ आई हुई है कि वे भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।’’ भगतसिंह ने इसीलिए धर्म से राजनीति   को अलग रखने पर जोर दिया और सच्चे इंकलाब और समाजवाद के लिए नास्तिकता के   पक्ष में जोरदार तर्क दिया। बाकुनिन, मार्क्स और लेनिन की नास्तिकता और   सफल क्रांतियों के बीच उन्हें एक सम्बद्धता महसूस होती थी। मगर सिर्फ ‘लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ फिल्म के भगतसिंह कहते हैं कि रब में उनका यकीन नहीं है। वैसे संतोषी भी नास्तिकता के पक्ष में उनके प्रबल तर्कों को सामने   लाने से कतरा जाते हैं। मजेदार तथ्य यह है कि इसी फिल्म के कैसेट और सीडी   जारी करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कहा था कि फिल्म देखकर ऐसा लगता है, जैसे भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का एक बार फिर जन्म हो गया है। बात इतनी ही होती तो कोई बात न थी। लेकिन वे यह भी बताना नहीं भूले कि ‘हमारे देश में पुनर्जन्म पर विश्वास किया जाता है।’ राव यह भी कह सकते थे   कि अभिनेताओं ने जीवंत अभिनय किया है। यह महज लहजे का फर्क नहीं है, यह है पुनर्जन्म में विश्वास और आस्तिकता का आग्रह जिसके कारण एक ओर उग्र   हिंदूवादी भगतसिंह (बाबी देओल/शहीद: 23 मार्च 1931) अपनी मां से पुनर्जन्म की बात करता है तथा बताता है कि भगवान का वास हम सबके भीतर है   और थोड़े उदार किस्म का भगतसिंह (सोनू सूद/शहीद-ए-आजम) आस्तिकता-नास्तिकता के संबंध में कही गई विवेकानंद की उक्ति को दुहराता है, जबकि ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों को बनाने वाले भगतसिंह के बहुचर्चित लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ से अनभिज्ञ रहे होंगे।
फिल्मों की तो नहीं,   पर अखबारों की भूमिका की आलोचना करते हुए भगतसिंह ने लिखा था- ‘‘अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना, भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है   कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
विडंबना यह है कि ये फिल्में भगतसिंह के सपनों के विरुद्ध जो भारत बना है, उसकी ओर संकेत कर मौन हो जाती हैं या उस ‘अवांछित भारत’ के लिए जिम्मेवार सामंती-पूंजीवादी, सांप्रदायिक और साम्राज्यवादपरस्त शक्तियों के राष्ट्रवाद के दायरे में ही प्रायः चक्कर लगाती रह जाती हैं। कोई भी फिल्म ‘भारत का बनेगा क्या ?’ यानी भारत के भविष्य, उसके नवनिर्माण के सपनों से   प्रेरित होकर नहीं बनाई गई है। इसलिए इनमें निर्माण की वह ताकत यानी   किसान-मजदूर गायब हैं, जिन्हें संगठित करने का आह्वान भगतसिंह ने नौजवानों से किया था। ‘रंग दे बसंती’ के नौजवानों के सामने से वह वैचारिक-सांगठनिक   पर्सपेक्टिव गायब है। हकीकत में जिन लोगों ने भगतसिंह सरीखी जिंदगी और मौत का चुनाव किया या जो भगतसिंह और उनके साथियों के रास्तों पर चल रहे हैं, उनकी राजनीति की गहराइयों में जाने से व्यावसायिक सिनेमा हमेशा गुरेज करता है। जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष और भाकपा-माले के नेता चंद्रशेखर के जीवन पर संभावित फिल्म के बहाने समकालीन जनमत के मार्च 2011 के अंक में कविता कृष्णन ने इस सवाल को उठाया है कि क्या व्यावसायिक सिनेमा क्रांतिकारी के   साथ न्याय कर सकता है ? दरअसल आज के सूचना माध्यमों, खासकर तथाकथित लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी अखबारों और टीवी चैनलों में जिनकी पूंजी लगी है, उनके हित में जिस तरह से जनांदोलनों और जनराजनीतिक कार्रवाइयों की उपेक्षा की जाती है या उनकी नकारात्मक छवि बनाई जाती है, लगभग उसी तरह का काम हिंदी सिनेमा भी करता है। कहीं क्रांति का कोई नायक, कोई विचार या कोई संगठित आंदोलन जनता को नायक में तब्दील न कर दे, कोई कहानी इंकलाबी उभार की उत्प्रेरक न बन जाए, इसका फिल्मकार प्रायः ध्यान रखते हैं।

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