Monday, 22 July 2013

समय ही असली स्रष्टा है / शिवमूर्ति


कहानी प्रत्रिका कथादेश  ने अपने परिवेश और रचना प्रक्रिया पर मैं और मेरा समय शीर्षक से विभिन्न लेखकों की लेखमाला शुरू की थी. शिवमूर्ति का यह आलेख 'समय ही असली श्रष्टा है' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

 लेखक के 'मैं' में कम से कम दो व्यक्तित्व समाये होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय से सीधे दो-दो हाथ कर रहा होता है। सब कुछ भोगता, झेलता, सहता और प्रतिक्रिया कर रहा होता है, दूसरा वह जो हर झेले, भोगे, सहे हुए को तीसरे की तरह देखता, सुनता, धुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा 'परायों' के झेले, भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल, भोग रहा हो। कालांतर में इस अपने और पराये की दूरी धीरे-धीरे खत्म होती जाती है।
जब यह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले, भोगे गये अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक पात्र के काल्पनिक दुख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आंसू वास्तविक होते हैं।
कैसे पड़ता है लेखन का बीज किसी के मन में? किस उम्र में पड़ता है? क्या यह जन्मजात होता है? हो सकता है भविष्य के वैज्ञानिक इसका सही और सटीक हल खोजें। पर इतना तो तय है कि प्रत्येक रचनाकार को प्रकृति एक विशिष्ट उपहार देती है। अति सम्वेदनशीलता का, परदुखकातरता का। अतीन्द्रियता का भी, जिससे वह प्रत्येक घटना को अपने अलग नजरिए से देखने, प्रभावित होने और विश्लेषित करने में सक्षम होता है। यह विशिष्टता अभ्यास के साथ अपनी क्षमता बढ़ाती जाती है। मां की तरह या धरती की तरह लेखक की भी अपनी खास 'कोख' होती है, जिसमें वह उपयोगी, उद्वेलित करने वाली घटना या विम्ब को टांक लेता है, सुरक्षित कर लेता है, अनुकूल समय पर रचना के रूप में अंकुरित करने के लिए। जिन परिस्थितियों में शिशु विकसित होता है, वही उसकी जिंदगी की भी नियामक बनती हैं और उसके लेखन की भी। फसल की तरह लेखक भी अपनी 'जमीन' की उपज होता है। जब मेरी रचनाओं में गांव, गरीब, खेत, खलिहान, बाग, गाय, बैल, वर्ण संघर्ष, फौजदारी और मुकदमेबाजी आती हैं तो यह केवल मेरी मरजी या मेरे चुनाव से नहीं होता। मेरे समय ने जिन अनुभवों को प्राथमिकता देकर मेरे अंतःकरण में संजोया है, स्मृति के द्वार खुलते ही उन्हीं की भीड़ निकलकर पन्नों पर फैल जाती है।
मुझे कलम पकड़ने के लिए बाध्य करने वाले मेरे पात्र होते हैं। उन्हीं का दबाव होता है जो अन्य कामों को रोकर कागज-कलम की खोज शुरू होती है। जिंदगी के सफर में अलग-अलग समय पर इन पात्रों से मुलाकात हुई, परिचय हुआ। इनकी जीवंतता, जीवट, दुख या इन पर हुए जुल्म ने इनसे निकटता पैदा की। ऐसे पात्रों की पूरी भीड़ है। ये बाहर आने को उतावली में हैं। कितने दिनों तक इन्हें 'हाइवरनेशन' में रखा जा सकता है। लिखने की मेरी मंदगति इन्हें हिंसक बना रही है। कितने-कितने लोग हैं। कछ जीवित, कुछ मृत। कुछ कई चरित्रों के समुच्चय। सब एक-दूसरे को पीछे ढकेल कर आगे आ जाना चाहते हैं। हमारे उस्ताद जियावन दरजी, जिनसे 8-9 साल की उम्र में मैंने सिलाई सीखी थी। डाकू नरेश गड़ेरिया- बहिन के अपमान का बदला लेने के लिए डाली गयी डकैती में मैं जिसका साथ नहीं दे सका। जंगू, जो गरीबों, विधवाओं, बेसहारों के साथ जोर-जुल्म करने वालों को दिन-दहाड़े पकड़कर उनकी टांग पेड़ की जड़ में अटकाकर तोड़ देता है। हर अन्यायी के खिलाफ अनायास किसी भी पीड़ित के पक्ष में खड़े हो जाने वाले धन्नू बाबा। बीसों साल तक बिना निराश हुए और डरे इलाके के जुल्मी सामंत के विरुद्ध लड़ने वाले संतोषी काका। पूरी भीड़। मुझसे और मेरे समय से परिचित होने के लिए आपको भी उन पात्रों, चरित्रों, दृश्यों व बिम्बों से परिचित होना पड़ेगा। विस्तार से न सही, संक्षेप ही में सही। शायद यह मेरे व्यक्तित्व व लेखन को समझने में भी सहायक हों।
मेरा घर-गांव से काफी हटकर, टोले के तीन-चार घरों से भी अलग एकदम पूरबी सिरे पर है। बचपन में चारों तरफ बांस रुसहनी, कंटीली झाड़ियों का जंगल और घनी महुवारी थी। आम के बाग तो कमोबेश अभी भी बचे रह गये हैं। जंगल झाड़ के बराबर ही जगह घेरते थे। गांव के चारों तरफ फैले 10-12 तालाब-बालम तारा, तेवारी तारा, दुलहिन तारा, सिंघोरा तारा, पनवरिया तारा, गोलाही तारा आदि। इसी जंगल झाड़, महुआवारी-अमराई के बीच से आना-जाना। इन्हीं के बीच खेलना। यह परिवेश बचपन का संघाती बन गया। परिचित और आत्मस्थ। आज भी मुझे अंधेरी रात के वीराने से डर नहीं लगता। डर लगता है महानगर की नियान लाइट की चकाचौंध वाली लंबी सुनसान सड़क पर चलने में। अंधेरे में आपके पास कहीं भी छिप सकने का विकल्प होता है। उजाले में यह नहीं रहता। जाहिर है मेरे मन में खतरे के रूप में हमेशा आदमी होता है। सांप-बिच्छू नहीं। सांप-बिच्छू या भूत-प्रेत के लिए मन में डर का विकास ही नहीं हुआ। यही भाव पानी के साथ है। यद्यपि लभग डूब जाने या पानी के बहाव में बह जाने की घटनाएं जीवन में कई बार घटीं पर नहर, तालाब, और नदी के रूप में जल स्त्रोतों से बचपन से इतना परिचय रहा कि पानी से डर नहीं लगता। अथाह अगम जल स्त्रोत देखर उसमें उतर पड़ने के लिए मन ललक उठता है।
कुछ बड़े होने पर शेर के शिकार की कथाएं पढ़ता तो लगता कि यह शेर मेरे पिछवाड़े सिघोरा तारा के भीटे की उस बकाइन वाली झाड़ी के नीचे ही छिपा रहा होगा। महामाई के जंगल में बना काईदार सीढ़ियों वाला पक्का सागर तब भी इतना ही पुरातन और पुरातात्विक लगता था। इसका काला-हरा पानी सम्मोहित करता। लगता कि यक्ष ने इसी सागर का पानी पीने के पहले पांडवों से अपने प्रश्न का उत्तर देने की शर्त रखी होगी। जेठ में, जब सारे कच्चे तालाबों का पानी सूख जाता, बचे-खुचे हिरनों का छोटा झुंड जानवरों के लिए बनाये गये घाट से पानी पीने के लिए उसमें उतरता था। प्यास उन्हें निडर बना देती। तेवारी तारा के भीटे पर अपने बच्चों को बीच में लेकर बैठे झुंड के पास आ जाने पर हिरनी उठकर अपने बच्चे व आगंतुक के बीच खड़ी हो जाती। ज्यादा पास पहुंचने पर सिर झुकाकर सींग दिखाती। खबरदार...पिताजी बताते हैं कि जहां अब खेत बन गए हैं, वहां जमींदारी उन्मूलन के पहले तक कई मील में फैले निर्जन भू-भाग पर हजारों की संख्या में हिरन थे। कई बार भेड़ों के झुंड के बीच मिलकर चरते थे। जमींदारी समाप्त होते-होते शिकारियों ने अंधाधुंध शिकार करके इनका समूल नाश कर दिया। तेवारी तारा के भीटे पर रहने वाला झुंड गांव वालों द्वारा शिकारियों का विरोध करने के कारण काफी दिनों तक बचा रह गया था।
घर के सामने और दायें-बायें फैली विशाल जहाजी पेड़ों वाली महुआवारी के पेड़ों पर शाम का बसेरा लेने वाले तोते इतना शोर मचाते कि और कुछ सुनना मुश्किल हो जाता। सावन-भादों के महीने में चारों तरफ पानी भर जाता। तब चार-पांच हाथ लंबे हरे मटमैले सांप महुए की डालों पर बसेरा लेते और चिपके, छिपे इंतजार करते कि कोई तोता पास में आकर बैठे तो वे झपट्टा लगायें। कभी-कभी पकड़ में आये तोते की फड़फड़ाहट से असंतुलित सांप छपाक से नीचे पानी में गिरता। टांय-टांय का अंतर्नाद पूरे जंगल में छा जाता। चैत के महीने में इन्हीं पेड़ के कोटर में घुस-घुसकर इनके अंडे-बच्चे खाते। तोते शोर मचा-मचाकर आसमान गुंजा देते पर न कोई थाना न पुलिस। मर न मुकदमा। कोटर का मुंह संकरा हुआ तो कभी-कभी सांप अंदर तो चले जाते पर बच्चों को खाने के बाद पेट फूल जाने के कारण बाहर न निकल पाते। हाथ-डेढ़ हाथ शरीर कोटर से बाहर निकाल कर दायें-बायें हिलाकर जोर लगाते और असफल होकर फिर अंदर सरक जाते।
महामाई के जंगल में घने पेड़ों के बीच बने पक्के सागर में नहाने के लिए गांव की औरतें, बच्चे आते तो पीछे-पीछे कुत्ते भी चले आते। सामने तेवारी तारा के भीटे पर दुपहरिया काटते निश्चिंत बैठे हिरनों का झुंड देखकर कुत्तों का अहम फन काढ़ता। दिन दहाड़े आंखों के सामने यह निश्चिंतता। वे भूकते हुए दौड़ते। तेवारी तारा के पूरब सियरहवा टोले से सटकर ऊसर की एक लंबी पट्टी दूर तक चली गयी थी, जिसमें सफेद रेह फूली रहती। जाड़े में इस पर नंगे पैर चलने पर बताशे की तरह फूटती और ठंडक पहुंचाती। गर्मी में पैर झुलसाती। कुत्तों को आता देख हिरनों का झुंड इसी पट्टी पर भागता। गजब के खिलाड़ी थे वे हिरन। उतना ही भागते, जिससे उनके और कुत्तों के बीच एक न्यूनतम सुरक्षित दूरी बनी रहे। कुत्ते भला उन्हें क्या पाते। उनके थककर रुकने के साथ ही हिरन भी रुक जाते। बिना सिर घुमाये ही वे कुत्तों का रुकना देख लेते। कुत्ते फिर दौड़ते। बार-बार यही तमाशा। कुत्ते भूक-भूक कर, दौड़-दौड़कर बेदम हो जाते। जीभ लटकाये लौट पड़ते। हिरन भी तुरंत लौटते लेकिन तब कुत्ते जानकर भी अनजान बन जाते। पीछे मुड़कर देखना बंद कर देते।
......दिमाग के कम्प्यूटर में कोई सेलेक्टर लगा रहता होगा। तभी तो एक ही दृश्य या अनुभव एक के लिए रोजमर्रा की सामान्य घटना होती है और दूसरा जिसे स्मृति में सुरक्षित कर लेता है। स्मृति का भाग बन चुके अनुभव या दृश्य में वक्त गुजरने के साथ मन अपनी इच्छा या कामना के अनुसार परिवर्तन करता रहता है। कालांतर में इस परिवर्तित दृश्य को ही वह खुद भी असली दृश्य मानने लगता है। आपको एक बार स्कूल में दो-तीन लड़कों ने घेर लिया था। आपके मुंह से एक शब्द नहीं निकला था। घिग्घी बंध गयी थी। आप डर कर कांपने लगे थे, लेकिन बाद में आपको लगा कि आपने भी उन्हें ललकारा था। बहुत बाद में कई बार सोचने पर आपको लगने लगा कि आपके तेवर देखकर ही तो वे लड़के डर कर पीछे हटे थे। बहुत सारे संवाद भी याद आते हैं, जो उस वक्त किसी ने नहीं सुने लेकिन अब आप गर्व से उन्हीं लड़कों को सुनाते हैं तो वे असमंजस में हुंकारी भरते हैं क्योंकि वे उस घटना को भूल चुके हैं।
बाद का देखा-सुना बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन कोई खास दृश्य, कोई रंग, स्वाद, गंध, वाक्य, बिंब, मुस्कान, कनखी, चितवन, भंगिमा, चाल सुरक्षित रह जाती है। यह बस लेखकीय 'स्व' की पूंजी बनते चलते हैं। यह प्रक्रिया कभी-कभी दुर्घटना के रूप में भी सामने आती है। तब, जब किसी अन्य लेखक की पढ़ी हुई किसी रचना का प्रिय दृश्य या सोच कालांतर में अपना सोचा हुआ लगने लगता है। अवचेतन का अंश बन जाता है और बाद में अपनी किसी रचना में उतर आता है।
बचपन और किशोरावस्था में मन की स्लेट एकदम साफ और नयी-निकोरी रहती है। उस समय का देखा-सुना पूरी तरह जीवंत और चमकीले रूप में सुरक्षित रहता है। शायद यही उम्र होती है मन में लेखकीय बीज के पड़ने और अंकुरित होने की।
प्रेम, ममत्व, स्नेह और प्यार प्राप्ति के क्षण लंबी अवधि तक साथ देते हैं। एक मुराइन अइया (दादी) थीं। उनके द्वारा फूल के कटोरे में दी हुई मटर की गाढ़ी दाल (तब रोज-रोज दाल खाने को नहीं मिलती थी।) का रंग, स्वाद और गंध तीनों स्मृति में एकदम टटकी हैं। याद करते ही उनकी महक नासापुटों में महसूस होने लगती है। 'भूख लगी है? सिर्फ दाल ही तो है, ले।' कटोरा पकड़ाते हुए उनकी आंखों में उतरा ममत्व और तनिक हंसी के बीच दिखने वाले उनके सोने-मंढ़े दोनों दांत। एक तिवराइन (तिवारी का स्त्रीलिंग) अइया थीं। स्कूल से लौटने पर घर में खाने के लिए कुछ न होता या मां ताला लगाकर कहीं गयी होती तो मैं चारपाई के पाये में बस्ता लटकाकर तिवराइन अइया के घर की ओर सिधारता। बिना कुछ कहे-पूछे वे मेरी भूख देख लेतीं। रज्जू बुआ को आवाज लगातीं- एक मूठी दाना दै द्या बेटौना का। भुखान होये। फिर पूछतीं- बड़की (मेरी मां) नहीं है क्या घर में? अमीर नहीं थीं अइया। गरीबी के चलते ही तेवारी दादा का विवाह नहीं कर सकीं। पर दिल दरिया था। बड़े-से आंगन के कोने में स्थित फूस के ओसारे के नीचे पड़ी चारपाई पर बैठी उनकी बूढ़ी काया। बाहुमूल और कमर की लटकती झुर्रीदार चमड़ी। लंबे लटकते स्तन, जिन्हें ढंकने की उतनी तत्परता अब नहीं थी। जब इनमें दूध भरा रहता रहा होगा, तब ये कितने भारी रहे होंगे। इतना दूध पीने के चलते ही तेवारी दादा इतने भारी भरकम हैं। मेरी मां की छातियां इतनी बड़ी नहीं थीं। शायद तब मुझे इसका अफसोस भी रहा हो। मैंने एक बार उससे पूछा था- एक-एक सेर दूध होता रहा होगा तिवराइन अइया को, क्यों मां? मुझे तो अपनी वह जिज्ञासा भूल ही चुकी थी। अभी पिछले महीने मां आयी थी। मैं एकांत में फुरसत से उसके पास लेटा उसकी स्मृति से कुछ निकालने का प्रयत्न कर रहा था। तभी बातों-बातों में मां ने बताया। इतना तो मुझे याद है कि बचपन में जब भी किसी स्त्री को देखता, मन ही मन उसके स्तनों की तुलना मां के स्तनों से करता था। एकाध वरिष्ठ महिला लेखिकाओं के प्रति मेरे मन में इसलिए और भी ज्यादा आदरभाव है क्योंकि उन्हें देखकर इस संदर्भ में तिवराइन अइया की याद ताजा हो जाती है।
एक गाय थी। रात की रोटी उसे मैं ही देता था रोज। हम लोग एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। एक दिन स्कूल से लौटा तो पता चला कि वह तो बिक गयी। गांव में ही बिकी थी। मैं बहुत रोया। शाम को रोटी लेकर उससे मिलने गया। उसने अंधेरे में भी दूर से पहचान लिया। हुं-हुं करने लगी। मैं उसके आगे बैठकर उसकी लिलरी (गले की नरम लटकती चमड़ी) सहलाने लगा। वह मेरे बाल चाटने लगी। सारे बाल गीले हो गये। बहुत दिन बीते। बयालीस साल बीत गये, लेकिन उस गोलेपन की ठंडक आज भी महसूस होती है।
अपमान, खतरा या आसन्न मृत्यु की स्मृतियां तो जीवन भर साथ देती हैं....एक बार हत्या करने के लिए पकड़ कर कोठरी में बंद कर दिया गया था। दोनों हाथ पीछे बंधे थे। पैर बंधे थे। मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था। अंधेरी कोठरी में एक कोने में डाल दिया गया था कि रात गहरा जाये तो मारा जाय। इस अनुभव से गुजरे होने के कारण ही शायद कथाकार देवेंद्र के उसी उम्र के बेटे की हत्या से संबंधित कहानी 'क्षमा करो हे वत्स' पढ़ कर मैं उस दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकला। रोता ही रह गया था दिन भर।
उत्तर प्रदेश में अभी कुछ वर्ष पहले तक खसरा नामक भू-अभिलेख में यह प्रविष्टि करने का प्रावधान था कि किसके खेत पर किसका कब्जा है। लोक मानस में इसे 'वर्ग नौ' दर्ज करना कहते थे। जमींदारी उन्मूलन के पहले और बाद में भी खेत के मालिक बड़े किसान और छोटे जमींदार अपना खेत सालाना पोत या लगान लेकर भूमिहीन किसानों को जोतने के लिए दे दिया करते थे। ये भूमिहीन किसान प्रायः पिछड़ी अथवा अनुसूचित जाति के होते थे। यदि किसी खेत पर किसी जोतदार का कब्जा बारह वर्षों तक प्रमाणित हो जाय तो उस खेत पर कब्जेदार को स्वामित्तव प्राप्त हो जाता था। पर पटवारी को मिलाकर बड़े किसान कब्जेदारों का कब्जा खसरे पर दर्ज करने से प्रायः बचा लेते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद पोत-लगान देकर खेत जोतेने वालों का वास्तविक आंकड़ा निकालने तथा उन्हें स्वामित्व प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ग-9 दर्ज करने के लिए विशेष अभियान चलाया गया। इसकी भनक लगने पर बड़े किसानों ने जोतदारों को खेतों से बेदखल करना शुरू कर दिया। बड़े किसान व जमींदार ज्यादातर ठाकुर थे। गांव में उनका दबदबा और आतंक था। उनकी तुलना में जोतदार हर प्रकार से कमजोर थे। इसलिए बेदखली का विरोध करने का किसी को साहस नहीं होता था। मेरे पिताजी भी गांव के एक ठाकुर के कुछ खेत पोतऊ (पोत पर) लेकर जोतते आ रहे थे। उस समय गेहूं की फसल बोयी गयी थी और खेत में महीने भर की डाभी हरियाई थी, जब ठाकुर ने इसमें हल चलवाकर खेत उलट दिया और अपना बीज बो दिया। साथ ही बड़े-बड़े थान बनाकर उनमें सिर से भी ऊंचे आम के पड़े लगवा दिये। इतने बड़े पेड़ इसलिए ताकि मुकदमेबाजी की नौबत आने पर इन पेड़ों की उम्र के आधार पर 10-12 साल पुराना कब्जा साबित किया जा सके।
पिता जी पुराने जमाने के सन 28-29 के चहारम पास थे। पहलवान, हैकड़, निडर और जवान थे। खसरे में उनका कब्जा दर्ज था। इसलिए लगातार घुड़की-धमकी मिलने के बावजूद वे इस अन्याय के खिलाफ खड़े हो गये। मुकदमा दायर कर दिया। गांव के ठाकुर के खिलाफ गांव का ही शूद्र, खुद अपना ही रियाया, 'मनई', जिसको- जमींदारी काल में अपनी जगह जमीन देकर बसाया गया था, मुकदमा लड़ेगा? अब तक, जमींदारी खत्म होने तक हम इलाके के राजा थे। सरकार ने धोखा किया तो इन कीड़े-मकोड़ों, भुनगों को भी सींग निकल आई है। पूरी ठाकुर बिरादरी की नाक काटने पर उतारू है यह आदमी। इतनी हिम्मत! धमकाया कि गांव छोड़कर भाग जाओ नहीं तो मारकर महामाई के सागर में डाल दिया जायेगा। एक-दो बार मारा-पीटा भी। पिताजी डटे रह गये। मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य-सा लगने लगा। एक शाम मैं गांव की दुकान से कोई सौदा लेने जा रहा था। गांव से पक्की सड़क को जोड़ने वाली पगडंडी के दोनों ओर ऊंची खाई थी और उस पर सरपत और उसकी ऊंची झाड़ियां। गोहटे वाली (जिस पर गोहटा या गोह रहती थी, पता नहीं अब रहती है या नहीं! ) ऐतिहासिक जामुन के पेड़ के नीचे फैले गाढ़े अंधेरे में पहुंचकर मन में डर की शुरुआत होने ही वाली थी कि किसी ने पीछे से कसकर दबोच लिया। वे दो थे। मुंह दबाकर दाहिने हाथ बाग की झाड़ी में ले गये और मुंह में कपड़ा ठूंसकर अंगोछे से बांध दिया। धमकाया- आवाज किए तो तुरंत रेत डालूंगा। पकड़ने और बांधने वाला कोई बाहर का बलिष्ठ आदमी था। धमकाने वाले वही थे, जिनसे मुकदमेबाजी चल रही थी। दोनों ने मिलकर एक चादर में मुझे गठरी की तरह बांधा और खांची में रखकर घर ले गये। एक कोठरी में पटका। चादर खोलकर रस्सी से हाथ पीछे करके बांधे। पैर बांधे औक कोठरी की सांकल लगाकर चले गये। निःशब्द आंसू बहाता मैं हाथ-पैर चलाकर बंधनमुक्त होने में जुट गया। आभास हो गया कि रात गहराने पर वे मारेंगे और गांव के पश्चिम से गुजरने वाली इलाहाबाद-फैजाबाद रेलवे लाइन पर डाल देंगे। शायद चैत का महीना था। भय से शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। धड़कन तेज थी। सबसे पहले मुंह बंधनमुक्त हुआ। फिर मुंह का कपड़ा निकाला। शायद किसी खूंटी या जांत के हथौड़े की नोक में फंसाकर। फिर पैर छूटे। हाथ पीछे बंधे थे और बंधन इतना कसा था कि उंगलियां सुन्न पड़ रही थीं। कोई जोर नहीं चल रहा था। तभी किवाड़ों की सेंधि से प्रकाश की पतली रेखा अंदर आयी। सांकल खड़की। मैं किवाड़ के बगल की दीवार से चिपक गया। किवाड़ खुले। ठाकुर की पत्नी एक हाथ में ढिबरी और दूसरे में थाली लेकर अंदर आयीं। वह पकाने के लिए राशन निकालने आयी थीं। शायद उन्हें मेरे बारे में सावधान नहीं किया गया होगा। उनके आगे बढ़ते ही मैं दबे पांव आंगन में निकला। इस बखरी के भूगोल से मैं पूर्व परिचित था। कई बार खलिहान से धान ढोकर यहां ला चुका था। औरतों के दिशा-मैदान हेतु बाहर जाने के लिए आंगन के कोने में बनी खिड़की से मैं बाहर भागा। घर कैसे पहुंचा? मां ने हाथ का बंधन खोलते हुए क्या-क्या पूछा? मैंने क्या बताया? यह सब आज कुछ भी याद नहीं। पर वह पकड़, वह बंधन और काल कोठरी में बीते डेढ़-दो घंटे आज भी स्मृति पटल पर एकदम टटके हैं।
मृत्यु के मुख से होने वाली प्रत्येक वापसी आपकी जीवन-दृष्टि को गहराई तक प्रभावित करती है। आप वहीं नहीं रह जाते, जो पहले होते हैं। पिछले दिनों गांव गया। वही ठाकुर अपने नाती की मार्कसीट लेकर आये और उसे कहीं नौकरी दिलाने की चिरौरी करने लगे। मैं उनकी आंखों में आंखें डालकर यह जानने का प्रयास करने लगा कि क्या मुझे सामने पाकर वे अपनी उस दिन की असफलता पर अब भी दुखी होते होंगे। सोचता हूं कि एक दिन पूछ लूं? यह भी कि वह दूसरा कौन था? अब तो यह सब कहा-सुना जा सकता है।
एक और दृश्य भी मानस पटल पर उसी तरह सुरक्षित है। शायद अपहरण वाली घटना के पांच-छह महीने बाद की बात होगी। एक शाम खेतों की ओर से मुद्दई का हलवाहा प्रकट हुआ। पिताजी को एक तरफ ले जाकर कुछ फुसफुसाया और अंधेरे में गुम हो गया। हलवाहा दलित था और पिताजी से सहानुभूति रखता था। उसे खबर मिली तो आगाह करने के लिए आ गया। उसने बताया कि मुद्दई ने बाहर से बदमाश बुलाये हैं। आज रात मेरे घर डकैती पड़ेगी। डकैती तो दिखावे के लिए होगी। असली मकसद है पिताजी की हत्या। उसके जाने के बाद मां और पिताजी चिंतित हो गये। पिताजी सारे बर्तन-भांड़े एक खांची में रखकर कुछ दूर स्थित गन्ने के खेत में छिपा आये। मां ने अपने दो-चार गहनों और मुकदमे के कागजों की पोटली बनायी, साथ ले चलने के लिए। कथरी-गुदरी पिछवाड़े की झाड़ियों में छिपा दी। दो बैल थे। एक गाय और एक बकरी। किसी को न पाकर वे लोग गाय-बैल ही हांक कर बेंच सकते हैं। इसलिए गाय-बैलों का पगहा खोलकर महुआरी में हांक देना था। केवल बूढ़ी अंधी दादी बच रही थीं। वे मंड़हे में बिछी चारपाई पर पड़ी रहती थीं। बकरी उन्हीं की चारपाई के पीछे लकड़ियों की आड़ में बांध दी गयी। साथ ले चलने पर उसकी चिल्लाहट हम लोगों के लिए खतरा बन सकती थी। गाय-बैलों की तरह हांकने पर भेड़िए का शिकार हो जाने का खतरा था। यहां बंधी हुई चुप रह गयी तो बच जायेगी। चिल्लाई तभी मारे जाने का डर था। घर में ताला लगाकर दोनों बैलों और गाय को हांकते हुए करीब दो घंटा रात बीतते-बीतते हम लोग निकले। पिता जी के सिर पर एक बक्सा, हाथ में लाठी। मां के सिर पर एक बक्सा और गोद में सो चुकी छोटी बहन। मेरे सिर पर मां की पोटली और कंधे पर बस्ता। बे-आवाज निकलना था। फिर भी बकरी को आभास हो गया। नई जगह बांधते ही वह चिल्लाने लगी। झबुआ शाम को नहीं था। निकलते-निकलते वह भी आ गया।
मुझे लगा कि अपना घर-दुआर, पेड़-पालव, खासकर जीवित अंधी बूढ़ी दादी और असहाय बकरी को छोड़कर हम लोग हमेशा-हमेशा के लिए चले जा रहे हैं। मैं रोने लगा....अंधेरी रात की वह यात्रा...यह तो खुटना के बाग में पहुंचकर पता लगा कि मां हम भाई-बहनों को लेकर यहीं पेड़ के नीचे सोयेगी और पिताजी लौटकर घर के पास की झाड़ियों में छिपकर बैठेंगे ताकि जान सकें कि क्या कुछ हुआ। किसी के घर इसलिए नहीं गये ताकि डरकर घर छोड़ने की बात किकी को पता न चले। आततायी आये। हम लोगों को न पाकर किवाड़ तोड़ा। लाठी से घर की गगरी कुचुरी फोड़ा, बैलों की नांद हौदी फोड़ा। ओसारे का छप्पर पीटा और दादी को एक लाठी मारकर बकरी कंधेर पर लादकर चले गये। उनके जाने के बाद पिताजी बाग में आये। मां के साथ मैं भी जगा था। वापसी की यात्रा शुरू हुई। भोर होते-होते दोनों बैल और गाय भी पिताजी खोजकर हांक लाये। असुरक्षा और आतंक के ऐसे प्रसंगों ने, जो कई हैं और उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर घटित हुए हैं, मुझे अपना पक्ष चुनने में निर्णायक भूमिका निभायी होगी।
प्रसंगतः, तत्कालीन लेखपाल के षड्यंत्र के कारण उस मुकदमे में पिताजी को आंशिक सफलता ही मिली। हमारा कब्जा आधे रकबे पर ही माना गया। पिछले दिनों गांव गया तो उस मुकदमे की पेचीदगी जानने के लिए मैंने तत्कालीन लेखपाल राम अंजोर को बुलवाया। उन्होंने बताया कि ठाकुरों के भारी दबाव और धमकी के चलते उन्होंने कब्जे वाले अभिलेख में एक के नीचे 'बटा दो' लगा दिया था। यानी पूरे रकबे पर नहीं बल्कि आधे पर कब्जा है। राम अंजोरजी ने कहा कि पूरी नौकरी में यही एक काम मैंने ऐसा किया, जिसके लिए आज तक पछताता हूं। भगत (मेरे पिताजी) की लड़ाई उन दिनों चर्चा में थी, जिसमें मेरी वजह से इन्हें आधी सफलता पर संतोष करना पड़ा। इसका मुझे दंड भी मिला। पूरे सेवाकाल का एकमात्र दंड। टेप किये गये राम अंजोरजी के शब्दों में ''मुझे 'बैड इंट्री' मिली और एक इंक्रीमेंट रोक दिया गया, हमेशा के लिए। क्योंकि बाद की जांच में नक्शे में की गयी यह ओवर राइटिंग पकड़ में आ गयी थी।''
उस दिन पिताजी को बताया कि राम अंजोर गुप्ता लेखपाल को बुलाया है तो छूटते ही बोले- 'उस बेईमान को? क्या जरूरत है? वही तो मेरे महाभारत का सकुनी है।' पर राम अंजोरजी के दंड-प्रणाम करते ही उनका मन निर्मल हो गया।
सांप-बिच्छू के काटने और पेड़ से गिरने के प्रसंग तो कई हैं। जहां मेरा घर सत्तर-पचहत्तर साल पहले बना, वहां जमीन थोड़ी ऊंची और कंकरीली थी। लगता है, वहां सांपों की बांबियां थीं। आज भी हर साल सावन-भादों के महीने में किवाड़ के बीच कोई-न-कोई सांप दबकर मरता है। पिताजी की गोनरी के नीचे बैठा हुआ या आंगन में टहलता हुआ दिखायी पड़ता है। किवाड़ में दबकर मरने वाले सांप की लंबाई व रंग हर साल आश्चर्यजनक रूप से एक-सा रहता है। पिछले दिनों अजगर का एक बच्चा निकल आया जाड़े में। संयोग से मैं भी पहुंच गया था। मारने से मना कर दिया। घर के बगल में पसरा धूप का आनंद लेता रहा कई दिनों तक। मेरे लौटने के बाद दूसरे गांव से काम पर आये मजदूरों ने डरकर मार दिया। घर में रहने वाले इन सांपों ने कभी किसी को नहीं काटा। दोनों बार मुझे काटने वाले सांप बाहरी थे। एक स्कूल में और दूसरी बार खेत में। अषढ़ियां थे। जहर नहीं चढ़ा। कई बार पेड़ से गिरना इसलिए स्वाभाविक था कि गर्मी का हमारा खेल पेड़ों पर चढ़ने और कूदने वाला था। एक खेल होता है हमारे यहां- चिल्हर पाती। टांगों के नीचे से लकड़ी का छोटा डंडा फेंका जाता है और जब तक 'चोर' लड़का उस डंडे को लाकर निर्धारित जगह पर रखे, तब तक सारे लड़कों को पेड़ पर चढ़ जाना होता है। चोर लड़का पेड़ पर चढ़कर लड़कों को छूने का प्रयास करता है। और लड़के इस प्रयास में रहते हैं कि छू जाने के पहले जमीन पर रखे उस डंडे को कूदकर अपने कब्जे में ले लें। यानी बंदर की तेजी से दौड़कर पेड़ पर चढ़ना और उतनी ही तेजी से डाल से कूदकर (तने की तरफ से उतरकर नहीं) डंडे तक पहुंचना। तो इसमें बहुत बार डाल टूट जाती है और आप डाल सहित नीचे। या हाथ से छूट जाती है और आपकी गति डाल से चूके बंदर वाली हो जाती है।
पानी में डूबने का अनुभव बहुत आतंकित और निराश करता है, क्योंकि आपको लगता है कि आपकी दुनिया छूट रही है और आप निरुपाय होते हैं। चैतन्यहीनता धीरे-धीरे हावी होती है, डूबने से भी कई बार बचा हूं पर ऐसे दो अनुभव दिमाग में एकदम चटक हैं। एक अपने उस्ताद द्वारा डुबाये जाने का, दूसरा मां के साथ डूबकर बहने का।
गांव में मेरे एक उस्ताद थे- जियावन दर्जी। पिताजी ने यह सोचकर आठ साल की उम्र में ही मुझे जियावन का शागिर्द बना दिया कि हाथ में एक हुनर हो जायेगा तो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहेगा मेरा बेटा। जियावन मास्टर कानपुर से टेलरिंग सीखकर आये थे। बाईस-तेईस की उम्र। रंगीला स्वभाव। मशीन चलाते हुए फिल्मी गाने गाया करते। 'काज-बटन' के साथ मुझे भी बहुत से गीत याद हो गये। उस्ताद लेडीज कपड़ों के एक्सपर्ट माने जाने लगे। मुझे भी समझाना शुरू किया। पांच तक पढ़ लिये, बहुत है। अब पूरा समय सीखने में लगाओ। काम के अम्बार और हसीन चेहरों से जिंदगी भर घिरे रहोगे। वे कपड़ों की नाप बहुत सही और बहुत देर तक लेते थे। उस जमाने में भी ट्रायल के लिए बुलाते थे। इसी के चलते बाद में प्रेम में असफल होकर पागल हो गये। गले में लाल रूमाल बांधकर 'रेशमी सलवार' गाते हुए घूमते। एक बार में मुझे नहर में नहाते देख लिया। वे गुजर रहे थे तभी मैं नहर से निकल कर पुल से कूदने के लिए सड़क पर आया। अरे! उनका शागिर्द नंगे दौड़ रहा है। मेरे कूदने के साथ ही वे भी पानी में कूदे। डांटकर जांघिया पहनने को विवश किया। फिर खुद नहलाने लगे। इतनी मैल! अचानक डुबकियां लगवाना शुरू किया तो बंद न करें। दम घुटने लगा। चिल्लाने तक का मौका नहीं। किसी तरह छिटकर अलग हुआ तो भागने के लिए रास्ता गहरे पानी की ओर से मिला। आगे पुल की मोहड़ी (मुहाना)। मोहड़ी के निचले तल और पानी की सतह के बीच मात्र चार-पांच अंगुल की जगह। नाक बाहर निकालने तक की गुंजाइश नहीँ। बीस फीट की मोहड़ी पार करने भर का दम शेष नहीं। बेहाल हो गया। पानी पी लिया। ढीला पड़ गया। बहने लगा। बाप रे! गये आज! किसने पकड़ कर निकाला, याद नहीँ। औंधा करके पेट का पानी निकालना याद है। खटोले पर रखर लाया गया। खटोले का हिलना-डुलना याद है।
लेकिन दूसरी बार का बचना तो सचमुच चमत्कार था। जमीन वाला मुकदमा खत्म होने के साथ ही पिताजी का मन घर-गृहस्थी से उचट गया। मुकदमे के दौरान वे क्रमशः धार्मिक होते गए। हर मंगलवार को एक स्थानीय देवी 'चंद्रिकन' के दर्शन करने पांच कोस जाते। हर पूर्णिमा को पैदल पच्चीस कोस चलकर गंगा स्नान करने जाते। फिर एक बाबाजी की कुटी पर जाने लगे- सात कोस चलकर। गांजा पीने लगे। जब मैं दर्जा सात में था, उस साल कुटी पर गये तो लौटे ही नहीं। वहीं रम गये। दो महीने हो गये। खेती-बारी का नुकसान होने लगा। मामा उन्हें खोजते हुए पहुंचे तो उन्होंने दो टूक फैसला सुना दिया- अब हम घर-गृहस्थी के जंजाल में नहीं पड़ेंगे। भव सागर भी तो पार करना होगा। उसका उपाय कब करूंगा? बहुत समझाने-बुझाने पर लौटे लेकिन धान लगाने के बाद फिर चले गये। जाने के पहले वाली शाम को मुझे बुलाकर दूर खेतों में ले गये। अंधेरे में एक मेड़ पर बैठे। मुझे बगल में बैठाया, फिर धीमी आवाज में समझाया- देखो भाई, अभिमन्यु ने चौदह साल की उम्र में चक्रव्यूह का भेदन किया था। तुम भी चौदह के हो रहे हो। अब अपनी घर-गृहस्थी संभालो। मुझे मुक्त करो। भवसागर...
मैं चुप ही रहा। हम लोग मेड़ पर आगे-पीछे चलते हुए लौट आये। सबेरे उनकी चारपाई सूनी थी।
बरसात बीती, जाड़ा बीता, गर्मी बीती। फिर बरसात आयी। धान बोने का समय निकला जा रहा था। वे नहीं लौटे। लोगों ने मां को समझाया- तुम खुद बेटे के साथ जाओ। बाबा के सामने रोओ कि हमारी गृहस्थी बिगड़ी जा रही है। बेटे को उनके चरणों में डाल दो। वे भी देख लें कि अभी यह किस काम लायक है। बाबा वापस भेजेंगे तो उन्हें आना ही पड़ेगा।
बाबा की कुटी सात कोस दूर थी। हम मां-बेटे बड़े सवेरे निकले। सावन बीत रहा था। रास्ता नहर, ऊसर, बाहा और बागों से होकर जाता था। कुटी पर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गयी। दिन लटक गया। थककर पस्त। आंखें भर आयीं। बाबा ने मां का रोना-गाना सुना। फिर अपना निर्णय सुनाया- न मैंने बुलाया है, न जाने के लिए कहूंगा। भगवान ने बुलाया है, भगवान ही जानें।
भगवान कुछ बोले नहीं। पिताजी माने नहीं। शायद रात में औरतों को कुटी पर रहने का निषेध था, या क्या कारण था, हम लोगों को लौटना पड़ा। कुटी से चले तो एक-डेढ़ घंटे दिन ही शेष था। रास्ते में पानी भी बरसने लगा। भूख लग आयी थी। बाबाजी की कुटी पर एक-एक टिक्कर और थोड़ी-सी खिचड़ी मिली थी दोपहर में। जो चावल हम लेकर गये थे, वे कुटी के भगवान को चढ़ा दिये थे। शिवगढ़ के बाहे तक पहुंचते-पहुंचते घुप्प अंधियरिया घिर आयी। आसमान बादलों से ढंका था। शिवगढ़ के बाहे पर पक्का पुल बनने की शुरुआत हो चुकी थी। पिलर्स की नींव पड़ गयी थी और मोटी लंबी लोहे की सरिया आसमान की ओर मुंह किये पुंज में पानी के बीच खड़ी थी- बरसात बीतने की प्रतीक्षा में। बहाव के चढ़ाव की तरफ, बगल में ग्रामीणों ने बांस का कामचलाऊ पुल बनाया था- चार बांस यानी डेढ़ फीट की चौड़ाई वाला- जिस पर बारी-बारी से एक-एक आदमी पार होता था। तनी हुई रस्सी पर चलने वाले नट से थोड़ी ही कम सावधानी के साथ। हम लोग बाहे पर पहुंचे तो थोड़ी देर पहले बरसे पानी के चलते बाहा उमड़ आया था। बांस का पुल डूब चुका था। अंधेरे में अंदाज से उसे खोजते हुए हम पानी में डूबी मेड़ पर संभल-संभल कर आगे बढ़ रहे थे। पानी कमर तक आ गया। बहाव तेज था। लगता था पुल दायें-बायें कहीं छूट रहा है। तभी मैं फिसला और गड़प की आवाज के साथ गायब हो गया। निर्माणाधीन पुल के दोनों सिरों पर मिट्टी डालने के लिए मेड़ के बगल में खंती खोदी गयी थी। पानी भरा होने और अंधेरे के कारण उसका पता नहीं चल रहा था। ठीक पीछे चलती हुई मां डरकर चीखी होगी। वह भी डगमगायी और खंती के पेट में समा गयी। पुल वाली जगह से गुजरने के बाद बाहा थोड़ा-सा बायीं और मुड़ता था। बहते-तैरते हुए मैं उसी घुमाव के दाहिने किनारे पर लगा तो मां को आवाज देने लगा। मां की आवाज आयी- बच गयी हूं। लोहे की सरियों के सहारे टिकी हूं। मां भी तैरना जानती थी, लेकिन घुप्प अंधेरा था। धार का, थाह का, विस्तार का अंदाज नहीं था। इसलिए मैंने उसे चिल्लाकर आगाह किया- सरिया छोड़ना नहीं।
बाहे के चारों तरफ डेढ़-दो मील तक कोई गांव-गिरांव नहीं था। चिल्लाना, गोहार लगाना बेकार था। शिवगढ़ की ओर दीये की मद्धिम टिमटिमाहट दिख रही थी। मैं उधर ही गया। पांच-छह लोग आये। तब तक बाढ़ भी कुछ घट गयी। उन लोगों ने मां को निकाला। शिवगढ़ और बेलसौना के बीच के महाऊसर का विस्तार पार करते-करते कपड़े सूख गये। हम लोग घर पहुंचे तो सूरज निकल रहा था।
उन दिनों के किसी प्राणी की सबसे ज्यादा याद आती है तो वह है मकरा बैल। जब पिताजी ने घर छोड़ा तो मैं कद में इतना छोटा था कि हल की मूठ मेरे कंधे तक आती थी। (सामान्यतः इसे कमर तक रहना चाहिए) हराई की समाप्ति के दौरान या फार में घास-दूब 'अरझ' जाने पर दस किलो का कुढ़ा उठाकर दूब गिराना मेरे बस में नहीं था। एक हाथ से कौन कहे, दोनों हाथों से कठिन था। अभ्यास न होने कारण पहली साल तो हराई फनाते समय हर का मुंह सीधा रखना ही कठिन था। ऐसे में मेरे 'मकरे' ने हलवाहे की भूमिका भी खुद ही निभायी। वह दाहिने चलता था। वह खुद ही निर्णय लेता था कि कहां मुड़ना है और कहां सीधे चलना है। बायें चलने वाला 'ललिया' सीधा और सचमुच थोड़ा 'बैल' था, लेकिन पूरी तरह मकरे का नियंत्रण मानता था। चारा देने, पानी पिलाने या रात में खवाई-पिवाई के बाद उनको मिलने वाली रोटी देने में देर होने पर तो वह हुंकार मारकर याद दिलाता ही था, एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि हल नाधने का समय हो गया, वह समय पर स्वयं उठकर खड़ा हो गया। पेशाब-गोबर किया। तब तक भी मैं जुवाठ लेकर उसके पास नहीं पहुंचा तो वह हुंकार भरकर सचेत करने लगा। मानो कह रहा हो, इतना आलस ठीक नहीं। आदमी को समय का ध्यान न रहा तो बरक्कत क्या खाक होगी। जुवाठ देखर तुरंत खड़ा होना और लपक कर गर्दन आगे करना तो उसकी पहले की आदत थी। उन दिनों मकरे ने मेरी जितनी मदद की, उतनी तो किसी आदमी ने नहीं की।
मकरा इतना चालाक और ज्ञानी था कि खूंटे से अपना पगहा दांतों से पकड़कर निकालता और पीठ पर फेंक देता। खासकर गर्मी के महीने में जब हरे चारे का अभाव हो जाता और सूखा भूसा खाते-खाते ऊब जाता। तब दिन में चरने के दौरान पह सांवा, गन्ना या उरद-मूंग के खेतों की पड़ताल किये रहता और रात को जाकर उन पर जीभ साफ करता। रास्ते में पड़ने वाले अपने खेत को छोड़ देता और दूर के दूसरे के खेत को चरता। पहचान में आ सके कि किसके जानवर ने यह सत्यानाश किया है, वह गीले खेत में न घुसकर उसकी मेड़ पकड़कर चलता। चर-खाकर वापस अपने खूंटे पर ही आकर बैठता। यदि आपके पास कभी इतना समझदार बैल नहीं रहा होगा तो आप हंस रहे होंगे कि अपने बैल की बड़ाई में मैं अविश्वनीय ब्योरे दे रहा हूं।
जिस समय मकरा खरीदकर लाया गया, वह उदंत था। या शायद दो दांत का रहा हो। खेत वाला मुकदमा जीतने के अगले साल की बात होगी। देखने-सुनने में चरफर और फुन्नैत। खूंटा बदलने की उदासी दो दिन से ज्यादा नहीं रही। घरबार पहचानने लगा। पास से गुजरने वाले अजनबी तक को हूं-हूं करके विश करता। पीठ सहलवाना पसंद नहीं करता था। हुंकार कर, पिछला पैर पटककर, पूंछ सटका कर मना कर देता। सहलाना ही है तो लिलरी सहलाइये। वह मुंह ऊपर उठा देता। चरने के लिए छूटता तो चरने से ज्यादा इस झुंड से उस झुंड में चर रहे जानवरों के बीच दौड़-दौड़कर पहुंचता। सूंघता, जान-पहचान करता या रण रोपता। गरम गाय के पीछे दौड़ने वाले झुंड में शामिल होता। झुंड में भारी भरकरम सांड और नुकीले सींग वाले मरकहे बैलों का दबदबा होता। मकरे जैसे मामूली कद-काठी वाले किस गिनती में। फिर भी अपने कौशल से वह एकाध हबार चढ़ने की जुगत भिड़ा लेता। सारे चरवाहे अपने-अपने बैलों-बछड़ों की सफलता पर ताली बजाते। मुझे विश्वास रहता कि मेरा मकरा मुझे भी ताली बजाने का मौका जरूर देगा, लेकिन मकरे के जीवन का यह 'स्वर्ण युग' एक ही साल रहा। किसान की मान्यता है कि अंडू बैल की ऊर्जा यौन-चिंतन और संसर्ग में खर्च होने के कारण उसके पास हल जोतने के लिए पर्याप्त शक्ति संचित नहीं रह पाती। वह जल्दी 'चुक' जाता है। उसका खाया-पीया देह में लगे, मांसपेशियां मजबूत हों, कम से कम दस माटी हल जोतने की शक्ति संचित हो सके, इसलिए उसका 'खुनाया' जाना आवश्यक है। खुनाना अर्थात उसके अंडकोश और लिंग को जोड़ने वाली नसों को हल्दी-तेल लगाकर पत्थर के लोढ़े से कूंचकर निर्जीव करना। ताकि वह गरम गाय के पीछे भागने लायक न रह जाये। यह दुर्घटना 'मघा' नक्षत्र में हुई। चार-पांच लोगों ने मकरे के चारों पैरों को मजबूत रस्से से बांधा। धड़ में रस्सा लपेटा। एक मजबूत आदमी ने सींग पकड़े। फिर सबने मिलकर उसे पटका। लोढ़े के प्रत्येक प्रहार पर मकरा अपनी लंबी जीभ निकाकर बां-बां करने लगा। उसकी आंखें आतंक से फैल गयीं। उसका आर्तनाद सुनकर पास बंधा दूसरा बैल और गाय होंकड़ने-डकरने लगे। मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उधर देखा नहीं जा रहा था। बंधन खुलने के बाद भी वह शाम तक वहीं बैठा रह गया। उसकी आंखों में आतंक की जगह 'दीनता' उतर आयी। शाम को हल्दी-माठा पिलाने के बाद उसे लात मारकर उठाया गया। वह अपनी जगह से हिल तक नहीं पा हा था। सिकुड़ा खड़ा रह गया। इतना दर्द। इतनी बेचारगी। जैसे पूछता हो- क्यों की मेरे साथ इतनी घटियारी। किस जनम का बदला लिया?
पिताजी एक किस्सा सुनाते थे, सदन कसाई का। सदन कसाई के घर एक बार मेहमान आये तो पकाने के लिए घर में सालन नहीं था। पैसा भी नहीं था। परेशान हो गये तो पत्नी ने उपाय बताया- घर पर जो भैंसा बंधा है, उसे तो दो-चार दिन में कट ही जाना है। उसका अंडकोश अब उसके किस काम का। काट लाइए। एक किलो से कम क्या होगा? आज का काम चल जायेगा। सदन कसाई बांका लेकर गये। भैंसे को अपने आने का प्रयोजन बताया। भैंसा बोला- भइया सदन, हमारे आपके बीच मूंड़कटौवल तो पीढ़ियों से है पर अब यह नयी परंपरा? जीते जी पेल्हर-कटौवल। अरे वही तो भगवान ने बिना भेदभाव के एक सुख का साज दिया है हर जोनि के मर्द को। उसको भी मेहरिया के कहने से....अरे काटना ही है तो पहले मूंड़ काट लीजीए। फिर जो मरजी काटते रहिएगा।
और सदन कसाई सिर झुकाकर लौट आये। न सिर्फ लौट आये बल्कि बांका फेंक कर भगत हो गये। शबरी, अजामिल, गीध की तरह उन्हें श्रीराम ने 'तार' दिया। पिताजी तन्मय होकर गाते- शबरी का तारया, कसाई का तारया, राम, हमहूं का ना, ल्या सरनिया मा हलाई/राम, हमहूं का ना। यानी खुद पिताजी भी शबरी और सदन का हवाला देकर तरने की कामना करते थे। सोचता हूं, कई-कई बार इस किस्से को सुनाने वाले पिताजी मकरे की आंखों की याचना क्यों नहीं पढ़ सके? मकरे को इस हादसे से उबरने में हफ्तों लगे। वह धीरे-धीरे चरने-खाने लगा। हम लोगों को माफ कर दिया होगा, लेकिन उनका इस झुंड से उस झुंड में होंकड़ते-डकरते हुए दौड़ना छूट गया।
पिताजी गये तो मैं दर्जा सात में था और बहन दर्जा दो में। उनके गृहत्याग को हमने नियति का क्रूर मजाक मानकर स्वीकार कर लिया। नानी ने सहायता स्वरूप एक बकरी दी। उसका नाम भूल रहा हूं। उसके एक ही साथ तीन बच्चे हुए। तीनों मादा। नाम थे- खैली, निमरी और पुटकाही। फिर इन तीनों की संततियां आयीं। बहन पढ़ाई छोड़कर उन्हें चराने लगी। मैं स्कूल से लौटता तो इनके लिए पीपल, पाकड़ या महुए की पत्तियों का इंतजाम करता। रविवार के दिन इनके लिए विशेष रूप से बेर, बबूल, या नीम की डाल छिनगाता। इनका झुंड बड़ा होता गया। दस-बारह हो गयीं। जिस दिन कोई पाला-पोसा बकरा चिकवे के हाथ बेचा जाता और वह उसे साइकिल के फ्रेम के नीचे विशेष रूप से बनाये गये बोरे में बांधकर ले चलता, बकरे की चिल्लाहट से सारा माहौल गमगीन हो जाता। सारा घर रोने लगता। उस शाम बिना खाये हम तीनों प्राणी चुपचाप अपनी-अपनी चारपाइयों पर पड़ जाते। बकरियां उसकी याद में रातभर खोभार में अललाती रहतीं।

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