मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी
यकीन मानें मेरा कि खूब खुश हो रहा
हूँ, अपने भीतर का सब कुछ आपके आगे
उड़ेलकर। अपनी बातें आपकी भाषा में लिखकर। इस तरह बातें करना वाकई बड़ा सहज और मजेदार
है।
अक्षरों के टेढ़े-मेढ़ेपन पर मत जाइए। ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। बस 'क' और 'फ' तथा 'म' और 'भ' और
कभी कभी 'घ'
और 'ध' को पढ़ते समय सावधान रहने की जरूरत है। दरअसल मेरी उँगलियाँ
लकीरनुमा छत खींच कर उसके नीचे शब्दों को लटकाने की आदी नहीं है इसलिए दिखने और लिखने
में लगभग एक समान लग रहे अक्षरों के साथ गड़बड़ी की संभावना का बन जाना मुश्किल नहीं
है। जमीन पर पतली लकड़ी से पाठ सिखाते समय नानूसान कहते,
'शब्द जिंदा होते हैं। नीचे मिट्टी में लिख रहे हो तब तक ठीक
है। कागज पर बिना रेखा खींचे शब्दों को हवा में लटकने दोगे, कागज हिलाते ही वे गिर पड़ेंगे।'
मैं विस्मित होकर उन्हें ताकता,
वे मुस्कराते और ठुड्डी पर टिकी उनकी लंबी सफेद दाढ़ी थोड़ी
और लंबी हो जाती।
सीखने के शुरुआती दौर थे, जब
मैं 'क'
और 'फ' में लगातार घालमेल कर रहा था। नानूसान मुझसे बार-बार 'काफ्का' लिखवा
रहे थे। जमीन पर लिखते-मिटाते एक बार मैंने उनसे पूछ दिया
'काफ्का माने?'
'बहुत पहले पैदा हुआ एक बाहर देश का लेखक। उसकी किताबें तुम्हें
पढ़ाऊँगा, जब हम यहाँ से बाहर होंगे।'
आगे के कई दिनों तक अनायास मेरे हाथ तिनके से
'काफ्का' लिखते
रहे थे।
कइयों के लिए मेरा इस तरह से फर्राटेदार लिखना,
समझना एकदम से दाँतों के नीचे उँगली रख लेने वाली बात हो
सकती है। दुनिया-जहान में आजकल होने वाले कई अजूबों पर सर हिलाकर आश्चर्यमिश्रित सहमति
कायम की जा सकती है, जैसे
कि कल को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति
का पद पट्टे पर मिलने लग जाए (लोकतंत्र की स्थिति समझाते हुए नानूसान कहा करते हैं), या फिर कानून के मोटे पोथे में एक पन्ना और जुड़ जाए जो सोचने
को अपराध मानने और उस पर दंड देने पर रँगा हो (कानून-व्यवस्था की बात निकलने पर उन्होंने
यह बात कही थी), या यह कि शहर के तमाम चिड़ियाघर
बंदरों, सियारों के साथ-साथ पेड़ भी
दिखाने लग जाएँ या कि पीने के पानी के लिए समंदर से ही मोटी-मोटी पाइप लाइनें जोड़ी
जाने लगे (पर्यावरण के लगातार छीजते जाने पर चिंतित होकर फीकी हँसी के साथ नानूसान
ये बातें कहते हैं)।
ऐसी और न जाने कितनी अजीबोगरीब बातें,
जो कल को हकीकत हो जा सकने वाली हों, बड़ी तेजी से फैलती समझदारी के कारण इन पर यकीन कर हामी भरने
वालों और बातें करने पर भरसक चिंतित होने की कोशिश करने वालों की सख्या खूब-खूब है।
पर मेरा या मुझ जैसे एक निपट जंगली आदिवासी का जेल में या जंगल में रह कर फर्राटेदार
लिखना पढ़ना, वह भी उस भाषा में जो धरती
की सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा हो। कइयों के लिए यह वाकई अविश्वास से भरकर सिर
धुनने वाली बात है। पर होती रहे। यहाँ तो प्रमाण है,
इस लिसलिसहे स्याही से बनते शब्दों से पटता जाता है यह कागज।
आगे बातें शुरू करने से पहले मैं अपने उन दोस्तों का नाम लेना चाहूँगा, जिन्होंने अपने असीम यातनाओं से भरे दिन-रात से कुछ बेहद
धैर्य वाले घंटे निकाले, जिनकी
बदौलत ढेलकुशी चलाने वाली मेरी उँगलियाँ अक्षर गढ़ने लगीं।
नानूसान, मेट, और बुच्चू।
लेकिन सबसे पहले नानूसान क्योंकि लिखने के लिए जरूरी चीजें कागज-कलम और ज्ञान
सब उन्हीं का उपलब्ध कराया हुआ है।
मुझ जैसे जवान लड़कों को पहली ही नजर में बाप-दादा की उमर सरीखा लगने वाला, सफेद-धूसर लंबी दाढ़ी और उसके बीच हमेशा कायम रहने वाली एक
गंभीर मुस्कान का धनी बूढ़ा नानूसान। जंगल और जंगल की पहचान, उसकी पीड़ाएँ उसकी नसों में भरी हैं, तभी तो दूसरे ही दिन सुबह नाश्ते के वक्त संकेतों से ही मुझे
अपने करीब बुलाया, उसी
स्थिर मुस्कान के बीच उनके होंठ हिले और एकदम से हमारे जंगल की भाषा झरी, 'जंगल से हो?' मैंने अचकचाकर हाँ तो कह दिया, लेकिन नाश्ते का कटोरा हाथ में लिए खड़ा कई पलों तक उन्हें ताकता रह गया। सुखद
आश्वस्ति में डाल देने वाली यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात के तीसरे रोज
ही हमारी दूसरी मुलाकात में उन्होंने सीधे पूछा,
'कुछ गड़बड़ किया जो पकड़े गए?'
तब अपने अपराध के प्रति अनजान-सा उनकी आँखों में एकटक झाँकता
मैं चुपचाप उकड़ूँ बैठा रहा था। मुझे यूँ खामोश देख,
उन्होंने इस बार तनिक करीब आकर मेरे बेडौल, खुरदुरे हाथों को अपने हाथों में लेकर मेरी नाड़ी देखी थी
और जरा चिंतित लहजे में हौले से मेरी ही जुबान में कहा था,
'तुम पर जंगल में सिपाहियों की अंदरूनी खबरें फैलाने का आरोप
है। बतौर मुखबिर।'
सुनकर मैं सकते में नहीं आया था और न ही मैंने कोई सवाल उनकी नजरों पर टाँगा
था क्योंकि पकड़कर तुरंत वहीं ढेर कर दिए जाने के मुकाबले यह सब तो कुछ भी नहीं था।
पर बाद की मुलाकातों में ऐसे कई खामोश सवालों के जवाब मुझे मिलते गए थे।
नानूसान डॉक्टर हैं, जैसे
बड़े अस्पतालों में हुआ करते हैं। लेकिन वे लोगों को अपने पास बुलाने के बजाय खुद उनके
पास पहुँचने पर यकीन करते हैं।
उनके पास एक मोटरगाड़ी है, जिस
पर कुछ मित्रों को लेकर वे दूर-दराज के इलाकों में इलाज के लिए निकल पड़ते थे। उनकी
मोटर में हमेशा खूब दवाइयाँ होती थीं, जिन्हें वे अपनी देखरेख में बाँटा करते थे। इन इलाकों में इनके बैठने के दिन-समय
तय होते थे। मोटर से मोड़ी-खोली जा सकने वाली मेज-कुर्सियाँ उतरतीं और किसी पेड़ की
छाया के नीचे दवाखाना जम जाता। सुई लगाने से लेकर पानी चढ़ाने तक का काम खुले आसमान
के नीचे होता। मलेरिया, फायलेरिया, कालाजार, डायरिया, टीबी, जैसे
घातक रोगों के खूब रोगी होते थे। सब के सब हारे-थके,
परेशान। भूत-प्रेतों और डाक्टरों पर एक साथ भरोसा करने वाले।
इन सब पर नानूसान का इलाज चलता और साथ में समझाइश भी। इन जानलेवा रोगों के अलावे और
कई रोग पसरे पड़े थे, पर
जो सबसे बड़ा रोग था और जिससे प्रायः जूझ रहे थे और जिसका उपचार नानूसान के पास भी
नहीं था, ऐसी भुखमरी ने कइयों को अकाल
मौत के हवाले डाल दिया था। इसके पीड़ितों से इसके बारे में बात करना उनकी दुखती रग
पर हाथ रखना होता था, लेकिन
बातें होती थीं और बार-बार होती थीं। इस रोग की पहचान और इसके लक्षण तो साफ थे, बस इसके मूल और निदान पर लोगों के साथ नानूसान की चर्चाएँ
जमती थीं। यह एक दुख था जो कहने से जरा कम टीस देता था।
हमारे जंगल का पश्चिम छोर, जहाँ
से बाहर निकलने के लिए पेड़ों से बचबचाकर निकलती हुई कई पतली पगडंडियों से मिलकर बनी
एक चौड़ी पगडंडी, जो
आगे जाते-जाते कच्ची सड़क की शक्ल ले लेती है। जंगल से लगातार इसी राह के साथ दूर होते
जाने पर कुछ छोटे गाँव और बाद में एक हाट पड़ता है,
जहाँ से हम नमक और देह ढकने के लिए कपड़े लाते हैं। नानसून
कहते हैं, वे इसी हाट में कई दफा आ चुके
हैं, जहाँ से जंगल के रोगों-दुखों
को टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, समझने
का बढ़िया मौका मिला है। हालाँकि अफसोस कि नानूसान से मेरी मुलाकात कभी नहीं हो पाई, जबकि मैं पियार,
केंद, बैर, लकड़ियाँ लेकर कई बार हाट जा चुका हूँ।
इसी तरह दुखों-बीमारियों का पीछा करते जंगल को समझते-बूझते वे जंगल के हो गए।
जहाँ उन जैसों के लिए अपार काम था। वे रम गए। भाषा सीखी,
संस्कृति को समझा,
दर्द को महसूसा,
दावेदारों को पहचाना,
सब कुछ खोद कर लूट ले जाने को आतुर बाहर-भीतर के लुटेरों, गुंडों, ठेकेदारों
को पहचाना। जंगल को जंगल न रहने देने की साजिशों में शामिल तत्वों को देश-दुनिया के
सामने नंगा किया। उन्होंने पूरे जंगल का इलाज किया,
सोचने-समझने, लड़ने लायक स्वस्थ बनाया। युद्धभूमि में मानवीयता के लिए बेखौफ समर्पित एक ऐसे
वैद्य और प्याऊ की भूमिका उन्होंने निभाई,
जिसके लिए हर घायल उसके कर्तव्य के दायरे में आता है। उन्होंने
सबको दवाइयाँ दीं, सबकी
मरहम-पट्टी की, सबको माने उनको भी जिनके करीब
तक जाना मना किया गया था, जंगल
आते समय।
प्रदेश के खलीफा, हुक्मरान
जंगल के जिन रखवालों के शिकार के लिए जी-जान से जुटे थे और नाकाम होने पर मंदिरों में
घंटियाँ तक टनटना रहे थे, नानूसान
द्वारा चिकित्सक होने के नाते उनका भी दर्दे-ए-हाल लेते रहेने को भीषण जुर्म माना गया।
बस, बिना जोखिम उठाए तुरंत के तुरंत
नानूसान को भी शिकार घोषित कर पकड़ लिया गया।
जिससे जितना ज्यादा डर, उस
पर उतने ज्यादा और भारी आरोप। राजद्रोह लगाया गया और वे तब से यहाँ हैं।
नानूसान के बारे में ये बातें खुद नानूसान ने नहीं,
मेट ने और थोड़ी-बहुत बुच्चू ने बताई, जब मैं थोड़ा पुराना और हिंदी सुनने-समझने लायक हो गया।
सबसे पहले दोस्ती मेट से ही हुई थी। तब नानूसान से और बाद में बुच्चू से।
मेट अच्छा आदमी है और चालाक है। यहाँ इसलिए है कि उसकी ट्रक से नशे में धुत
एक रईसजादा अपनी विदेशी कार सहित कुचला गया था। मरने वाले के बाप ने ऐसी जुगाड़ लगाई
थी कि मेट उम्रकैद के फासले से चंद ही कदमों से बच पाया था। मालिक ने ट्रक तो छुड़ा
लिया पर मेट को सड़ने के लिए छोड़ दिया और संयोग कि उस खूनी ट्रक को अब मेट का बेटा
चला रहा है।
और बेचारा बुच्चू प्रेम में मारा गया। एक लड़की थी मीना, जिसके साथ बुच्चू ने भागकर शादी की। लड़की के परिवार वालों
की ओर से अपहरण का मुकदमा दर्ज कर दिया गया। आनन-फानन में दोनों के दोनों पकड़ भी लिए
गए। संयोग कि लड़की को अठारह पूरा करने में आठ दिन की कसर रह गई थी। काले कोट वालों
ने पैसे को आगे और प्रेम को पिछवाड़े डालते हुए अपनी जिरह से साबित कर दिया कि बुच्चू
ने नाबालिग लड़की को बहलाया, फुसलाया
और उसे गुमराह करके अगवा कर लिया। बलात्कार की पुष्टि के लिए किए गए डाक्टरी जाँच में
कुछ नहीं निकला, फिर भी बुच्चू तीन सालों के
लिए रेल दिया गया और अभी तो पचास-पचपन दिन ही हुए हैं उसे।
मेरी उम्र के ही अगल-बगल फटकने वाले इस चमकदार लड़के की चमक बंद अहाते में रहते
हुए बदरंग हो गई है। उसके भीतर फैले हुए सारे रंग उड़ने लगे हैं। वह खाली होता जा रहा
है, आँखों में अतल सूनापन लिए।
इतना कि कोई कभी भी आए कभी भी जाए फर्क नहीं पड़ता।
अपनी दमक और तेज खो देने वाला एक अकेला बुच्चू नहीं है यहाँ। कई हैं। जेल हुक्मरानों
को इसी में चहारदीवारी की सफलता भी दीखती है। इस जगह को बनाया ही इस तरीके से गया है
कि यहाँ लाए जाने वाले का पहले व्यक्तित्व मार खा जाए,
फिर देह जंग खाकर निस्तेज हो जाए और अंत में सोच उसका साथ
छोड़ दे। जब वह यह जगह छोड़े तो निरा पंगु होकर,
मृत्युपर्यंत अपनी निरर्थकता के साथ।
मुझे खुद से ज्यादा रोज बूढ़ा होते हुए नानूसान की परवाह है, जिनकी परवाहों में गाँव है,
जंगल है और हर वह आदमी है जो पीड़ित, बीमार और घायल है। डर भी लगता है कि प्रकृति, समाज और मानवता से दूर इस नितांत बंद जगह की जड़ता से हमारे
माथे की गति प्रभावित न हो जाए। नानूसान कहते हैं,
'हृदयगति से कम खतरनाक मस्तिष्क की गति का रुक जाना नहीं है, जो व्यक्ति की पहचान,
उसके अस्तित्व पर संकट ला देता है।
इस घेरे में गति का घोर अभाव है। यहाँ सब कुछ स्थिर और नियत है, जिससे हमारे भीतर एक ऊसर किस्म का सूनापन भरता जाता है।
वही-वही चेहरे, वही-वही
आवाजें, घड़ियों के पीछे-पीछे बजने
वाली घंटियों की टन-टन, धीरे-घीरे
बनती-मिटती परछाइयाँ, पानी
के विशालकाय जड़ हौदे, बुरी
तरह से ढकी हुई कुएँ की मुँडेर, कोठरी
के भीतर की चुप्पी, अँधेरा
और सीलन, सूरज के उगने से लेकर तारों
के ओझल होने तक की तयशुदा हलचलें, कोठरी
से दीखती लाल-लाल दीवारें और उन पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे उपदेशात्मक वाक्य कि 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है', ऐसे और भी कई आधे-लिखे-मिटे चकतेनुमा शब्द-वाक्य, जिनसे अक्षर ज्ञान के बाद मैं चिढ़ता रहता हूँ। चौतरफा रचे-बसे
ये सारे के सारे दृश्य आँखों से स्थायी रूप से चिपक-से गए हैं। ऊबकर इनसे टकराने से
बचता हूँ, लेकिन बेकार।
पेशी के दिनों को छोड़ कर बाकी के दिन और तारीखें कैलेंडरों और रजिस्टरों में
ही गतिमान हैं। इनका बदलना हमारे लिए कोई बदलाव लेकर नहीं आता है। लगता है, आज के दिन जैसे जिया,
कल इससे अलग नहीं था या परसों भी या फिर पिछले दो सालों के
लगभग सभी दिन, जब से यहाँ रखा गया हूँ। दिन-रात
इस सुस्ती से सरकते हैं, मानों
इस चाहरदीवारी के भीतर घंटों, मिनटों, और सेकेंडों की स्वाभाविक गति को थोड़ा घटा कर रखा गया है।
शायद बाहर के तीन सेकेंड पर यहाँ एक सेकेंड होता हो या इसी तरह भीतर के एक मिनट में
बाहर तीन मिनट गुजर जाते हों। समय के बड़े-बड़े बोझों से सबकी पेशानियों पर हताशा की
एक स्थूल परत जम गई है। गाहे-बगाहे लाख खुलकर हँसने पर भी यह परत छिपती नहीं है।
यहाँ बंद हम कइयों से मिलने कोई नहीं आता,
एक मरगिल्ले कुत्ते को छोड़ कर,
जिसे चाहने वालों की संख्या पचास के पार है और वह जल्द ही
पुचकारों और दुलारों से ऊबकर-थककर पूँछ हिलाना बंद कर देता है और बाहर चला जाता है।
हम कुछ नए सहमे से रहने वाले लोग उसे छूने भर की तमन्ना लिए, अपनी बारी का इंतजार करते,
किनारे बैठकर मन मसोसते रह जाते हैं। कभी-कभी उसे देखे पखवाड़े
गुजर जाते हैं।
एक नीमरोज, जब
अधिकतर लोग अपनी बैरकों में ऊँघ रहे थे और मैं पाखानाघर के सामने की घासें नोच रहा
था, वह मुझे दिखा। वह मेरी ओर नहीं
आ रहा था, जानकर मैं अचानक उसके सामने
कूद पड़ा। बचकर वह भागने को हुआ लेकिन मैंने दोनों हाथों और पैरों का फैला हुआ घेरा
दिखाकर उसे छेंक लिया। गोल और मीठा मुँह बनाकर धीमी आवाज में पुकारता-पुचकाराता मैं
उसे पकड़ने में सफल रहा।
मैंने उसे अँकवार रखा था और महीनों से इकट्ठा हो रहा प्यार उड़ेलना चाहता था।
मैं उसकी रोओं में फँसी बाहर की हवा और महक पाना चाहता था। पाखानाघर के सामने
कुत्ते को इस तरह अकेले में भींचे देखकर भीतर की पहरेदारी वाला सिपाही मेरी ओर ऐसे
लपका, जैसे डंडे से मारकर मेरा सिर
खोल देना चाहता हो। उसके चीते की तरह लपकने में मेरे द्वारा कुत्ते का आलिगंन, जैसे किसी अनर्थ,
अपराध या अनुशासन भंग का हिस्सा हो और मेरे ऐसा करने से उसका
देश महान बनने से रत्ती भर से रह गया हो या शायद जेल की अवधारणा में प्रेम का प्रस्फुटन
या संबंधों का गाढ़पन जेल की स्वाभाविक यातनाओं को ठेंगा दिखाता हो या फिर वह मुझे
कुत्ते के फेफड़े में भरी आजादी की उस हवा को चखने से रोक देना चाहता हो जिसको लेकर
पूरे इतिहास भर में कई बगावतें हुईं, जैसा कि नानूसान बताते हैं।
खैर, कुत्ते को वहीं हड़बड़ाया-घबराया
छोड़ मैं भागकर अपने पिंजड़े में दुबक गया। साँसों को तरतीब कर ही रहा था कि बीसियों
गालियों के साथ दो-तीन रूल चूतड़ों पर चिपक गए,
साथ में कई दिनों तक यह जलालत भरी अफवाह भी कि जंगलों के
लोग कुत्ते-बकरियों तक को नहीं बख्शते। यह उसी सिपाही ने फैलाया था, जो मुलाकातियों से जमकर रुपए ऐंठा करता था। कई दफा उनकी दी
हुई मिठाइयाँ और खाने वह पूरी की पूरी डकार जाता था। उसे मुझ जैसे कैदियों से घोर नफरत
थी जिससे मिलने कोई नहीं आता।
कुत्ते वाली अप्रत्याशित घटना में मजा ढूँढ़ने वाले वे लोग थे, जो खाकी कपड़ों से ढकी टाँगें दबाते और उनकी थूकों में नमक
लगा कर मजे से चटकारे लेते। इनमें से कइयों ने औरतों और बच्चों को रौंदा था, तो कइयों ने कइयों के गले और अँतड़ियों में खुखरियाँ घुमाई
थीं। ये हत्यारे, बलात्कारी
कहने को जेल की छड़ों के दूसरी ओर थे। जेल प्रशासन के नुमाइंदे के रूप में अघोषित राज
इन्हीं का चलता था। इनकी क्रूर, वहशी
और घाघ आँखों के चौकन्नेपन और खुफियागीरी से सिर्फ हम ही नहीं जेल के चूहे तक परिचित
थे। इनमें भाड़े के खूनी, बौने
कदों वाले नेता, सेठ-ठेकेदारों के गुर्गे, घरों और सड़कों के लुटेरे आदि सब शामिल थे, जो भ्रष्ट जेलर के साथ मिलकर साजिशों और खुसुर-पुसुर का माहौल
गर्म रखते।
जंगल से बहुत-बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी,
जहाँ दुनिया की किसी भी खूबसूरती को गलती से भी नहीं छोड़ा
गया था। उल्टे, मानवता को लजा देने के लिए
जिन-जिन नमूनों की जरूरत पड़ सकती है, ऐसे सारे तत्वों को यहाँ चुन-चुन कर रखा गया था। लेकिन प्रकृति की स्वच्छंदता
के आगे किसी का जोर नहीं चलता। हमारे भीतर के सुख महसूसने वाले सारे तंत्रों को निष्क्रिय
बना देने के पुरजोर प्रयासों में लगे जेलर को प्रकृति की कलाओं, रंगों और छटाओं से खासी मशक्कत करनी पड़ती।
प्रकृति का उत्सव हमारे लिए वाकई एक अलग खुशनुमा पहलू है, जो सारे दवाबों- तनावों को धो-पोंछ देता है।
मैंने देखा है, यहाँ
भी लोगों को पुलकते हुए। उस दिन, जिस
दिन बारिश की पहली बौछार पड़ती है। हमें लगता है,
ये बूँदें बाहर से बेखटक हमसे मिलने आई हैं, जेल की दीवारों पर लिखे
'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' जैसे सारे उपदेशों और कायदे- कानूनों को धोते हुए। हाथ बढ़ाकर
हम बूँदों को हथेलियों और माथे पर मलते हैं,
जीभ से उसका स्वाद लेते हैं। वाकई हम पुलकते होते हैं।
बारिश अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर भीतर हमारे लिए बदलाव चाहती है। जेल की ऊसर
जमीन पर भी जेलर की नाक तले वह हमारे लिए प्यारी-प्यारी हरी दूबें जन्माता है। उनकी
हरियाली और मुलायमियत हमारे दिलों में उतरती जाती है। निर्मोही जेलर को यह सब बदलाव
नहीं सुहाता, वह इन प्यारी दूबों पर हमी
से फावड़े चलवाता है। इन दूबों के साथ-साथ धरती पर आए लाल-सुनहले कीट-पतंगे भी खत्म
हो जाते हैं।
बारिश के बाद आए मेढ़कों और झींगुरों की लोरी से हम मजेदार नींद की सैर करते
हैं। प्रकृति दुष्ट जेलर के समूचे नियंत्रण को ध्वस्त कर हमें दुलारती-बहलाती है और
असहाय जेलर हमें खुश होने और मजे लेने से नहीं रोक पाता है। वह चहारदीवारी के भीतर
जन्म से ही कैद बारह सालों के जुड़वाँ अशोक के पेड़ों का बारिश में लहलहाना भी नहीं
रोक पाता है या बसंत में अशोक की फुनगियों पर जंगल,
पहाड़, नदी, गाँव और शहर की सैर कर आई कोयल का कूकना भी।
छोटे-मोटे गड्ढों में ठहरे बारिश के गँदले लेकिन आजाद पानी से खेलते हुए हम
उसकी ठंडई अपनी रोओं में महसूसते हैं। हौदों और कुओं में कैद रंगहीन सर्द पानी के बजाय
जी करता है हम उसी थोड़े पानी में नहाएँ या फिर नहाने के लिए जेल की गहरे तक गड़े दीवारों
से नदी निकल पड़े और जिसमें ऊपर से भी बारिश होती रहे। जेल के बीचो-बीच होकर गुजरती
यह नदी अपने भीतर असंख्य मछलियाँ समेटी हो,
जिससे जेल के स्वादहीन खाने से हमें निजात मिल सके।
बरसात की तरह बसंत भी बाहरी दुनिया और हमारे बीच फर्क किए बगैर जेल की ऊँची-ऊँची
दीवारों को फलाँगते हुए बेधड़क आता है और तब उसकी मादकता और मोहकता के जेल में करीने
से सज जाने पर तमाम यातनाएँ हमें हँसी-खेल लगने लगती हैं। तब लगता है कि सजा की कुल
दिनों की बात करते समय उसमें बसंत के दिनों को न जोड़ूँ।
अपने समूचे क्रूर प्रयासों के बाद भी हमें दुखी न देख जेलर कुढ़ता-झिंकता रहता
है। बहुत ही ज्यादा बढ़ आए पोथे के कारण बेहद भद्दे अंदाज में टाँगें फैला कर फुदकता
हुआ जेलर, गर्मियों के दिनों में अपेक्षाकृत
ज्यादा शैतान लगता है।
पिछली गर्मी की लंबी दुपहरियों में जब सूरज कई-कई घंटों अपनी पूरी ताकत से जलता
हुआ आकाश में टँगा रहता, हम
पेट में कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे
अनाज लिए, पैर मोड़ते फैलाते झपकियाँ
लेने की असफल कोशिशों में जुटे रहते। गर्मियों के लू-दाह वाले दिनों में भी जेलर इत्मिनान
से घूम-घूम कर हमारा जायजा लेता रहता और लगभग उजड़ चुके अपने चुनिंदा बालों में ऊँगलियों
से ऐंठ डालते हुए बर्फीला रंगीन पानी गटकता रहता। बलात्कारियों, खूनियों और ठगों की अविराम चापलूसियों से घिरा वह अश्लील
लतीफे धड़ल्ले से सुनता-सुनाता और दूर-दूर तक सुनाई देने वाले लंबे-लंबे ठहाके लगाता।
सीखचों के इस पार से दिखने वाले सीमित दृश्यों को ताकते-ताकते आँखों में पर्याप्त
बोरियत भर जाती। धुँधुँआ कर चलने वाली गर्म हवाओं से जेल का पूरा अहाता सुलगता रहता।
दोपहर को धरती से निकलती हुई गर्मी से अहाते का सूनापन भी दहकने लगता। चौतरफा फैले
ऐसे गर्म दृश्यों को देखने पर लगता आँखें झुलस जाएँगी।
सूरज का प्रकोप शाम खत्म होने पर भी कम नहीं होता। एक अदृश्य आग में हम लगातार
धीमे-धीमे सिंक रहे होते। शाम को हम उसी पानी से हाथ-मुँह धोते जो दोपहर को खुले आसमान
के नीचे खौलता होता। हम प्यास से अकुलाते यूँ ही पड़े रहते पर गर्म पानी हलक के नीचे
नहीं जा पाता।
घंटी लगने पर जब रात में सोना होता,
हम घंटों छत को और छत से लटकते पीले बल्ब को घूरते रहते।
गर्मी से बेहाल हम करवटें बदलते, उठते-बैठते
घंटों निकाल देते। ऊबने-थकने पर तब कहीं नींद आती। आधी रात या उसके आस-पास जब हम सारी
थकान, गर्मी, और मच्छरों को भूलकर बेमतलब के सपनों में गिरते-पड़ते बेसुध
पड़े होते, दुष्ट जेलर अपने दल-बल के साथ
हमारी कोठरियों में टार्च की सफेद रोशनी चमकाता,
रूल से सीखचों पर चोट करता औचक निरीक्षण करने में जुटा रहता।
एकाएक नींद टूट जाने से हम हड़बड़ाकर उठ बैठते,
घूमते दल-बल को देख झुँझलाहट होती और फिर गुस्से में मच्छरों
के लिए हथेलियाँ चटचटाते अपनी खीझ और गुस्सा जाहिर करते। रतजग्गे वाले ऐसे समयों में
हम अपने पिजड़ों में दाह-पसीने, चिपचिपाहट
और बेचैनी के बीच अपनी सजा को और अधिक खिंचता हुआ महसूस करते। भर गर्मी हमें परेशान
देख जेलर खूब पर्व मनाता और पुलका-पुलका रहता।
जाड़े में हमारे मजे औसत रहते। मीठी धूप में बैठना यदि नसीब होता तो हमारे भीतर
की उचाटता नर्म धूप की गर्मी में पिघलकर बह जाती,
नहीं तो कंबल के भीतर के अँधेरे और गर्मी में ही दिन-रात
कट जाते।
जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, सर्दी
के शुरूआती दो महीने निकल चुके हैं, जो
मेरे लिए कहीं से भी सुखद नहीं रहे हैं। पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना के बाद से जेल
सुपरिटेंडेंट को हटाकर बहुत दूर एक कस्बाई जिले के जेल में भेज दिया गया है। उसकी जगह
पर जो नया आया है, जो
नानूसान की उम्र के आस-पास ही ठहरता है, सनकीपन की हद तक जाकर दौरे करता है। दुष्ट जेलर,
हेड चीफ, वार्डर
सब उसके पीछे जूते बजाते, रूल
घुमाते, नफरत और वहशियाना नजरों से
हमें घूरकर चले जाते हैं। असल में, उन्हें
यह विश्वास करने में बड़ी दिक्कत हो रही है कि पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना में हमारी
कहीं से कोई संलिप्तता नहीं है।
हमारे प्रति बनी उनकी धारणा और विश्वास इसलिए भी नहीं घट रहा है कि प्रारंभिक
जाँच में घटना के समय हमारी गतिविधियाँ उनके लिए खटकने वाली थी। इतवार की सुबह मुलाकाती
जब अपने बंधु-बांधवों से मुलाकात कर रहे थे,
मैं और नानूसान,
वार्डर और मेट की निगहबानी में कोहरा छँटने के बाद खिले जाड़े
की सुषम धूप में देह के पोरों में गर्माहट भर रहे थे कि गेट के करीब वह कानफोड़ू धमाका
हुआ था। 'ये क्या हुआ' की घोर जिज्ञासा वाले भाव के साथ वार्डर और मेट को भूलकर
हम तत्क्षण गेट की ओर लपके थे, पर
तुरंत पोजीशन में आए वार्डरों और सिपाहियों द्वारा हम गेट से दस-पंद्रह फर्लांग पहले
ही धर लिए गए थे।
हम जिस तरह से जकड़े गए थे और वापस अलग-अलग कोठरियों में डाले गए थे, यह समझना कहीं से भी कठिन नहीं था, कि हमारे इस तरह अचानक दौड़ पड़ने को क्या समझ लिया गया है।
हमारे प्रति बने-बनाए पूर्वागह और उस पर यह घटना जाहिर तौर पर उनके इतने गड़बड़ तरीके
से समझ लिए जाने पर पूरी जाँच की शुरूआत हमसे ही हुई थी।
मुझे नानूसान से अलग करके कैद तन्हाई में डाल दिया गया था। कई आशंकाओं के भँवर
में डूबता-उतराता मैं नानूसान के लिए चिंतित था मुझे डर था कि इस घटना के मार्फत नानूसान
का मुकदमा और ज्यादा प्रभावित न कर दिया जाए।
धमाका और फिर तुरंत कैद तन्हाई, यह सब इतने त्वरित अंदाज में हुआ था कि घटना को लेकर हमारी अनभिज्ञता बनी ही
रह गई थी। घटना के तुरंत बाद अहाते में कड़ाई व्याप्त गई थी। सारे ओहदों पर खूब फेर-बदल
हुई थी। हमारा दोस्त मेट भी नहीं दिखता था जो कुछ बता सके।
अब तक जिए गए जेल जीवन के सबसे दर्दनाक दिन मेरे लिए यही रहे। अँधेरे में दिन-रात
काटता मैं अपनी अब तक की जिंदगी जेल से जंगल को मन ही मन दुहराता चला जाता। घटनाओं
के साथ-साथ लगने वाले दुख, पीड़ा, क्षोभ, अफसोस, खुशी, पछतावा
जैसे भावों को दुहरा-तिहरा जीता मैं हर पल बेचैन होता रहता। मैं हफ्तों पहले देखे गए
उगते-डूबते सूरज, उसकी
गुनगुनी गर्मी, उड़ती चिड़ियाओं के झुंड और
शाम ढले जेल के हाते के ठीक ऊपर से गुजरते थकान से भरे कबूतरों को याद कर मन मसोसता
और लंबी ऊब और झुँझलाहट से भर देने वाली पूछताछ में साहबों का साथ देने की भरसक कोशिश
करता।
दरअसल हम उस झमेले के शिकार हो गए थे जिसका हमको ठीक-ठीक पता तक नहीं था। घटना
को लेकर उत्सुकता का आलम यह कि लंबी पूछताछ के दौरान साहबों की ओर से पूछे जाने वाले
सवालों के जवाब में मन करता की बड़े भोलेपन से उल्टी पूछूँ कि कैसे क्या हुआ था साहब
उस दिन? मैं असमंजस में पड़ा आँखें
चिहार कर उन्हें देखता भर रह जाता। वे सवाल दर सवाल किए चले जाते। आखिर में वे अँधेरे
में इधर-उधर गालियाँ बिखेर कर और दो तीन झन्नाटेदार थप्पड़ों से मेरी कनपट्टियाँ झन-झनाकर
इस वायदे के साथ रुखसत होते कि वे फिर आएँगे। धमाके वाले इतवार कांड में कौन-कौन शामिल
है, यह उगलवाने।
यह सब लगातार चलता रहा और जब जाँच में लगे साहबों के हाथ कुछ मजबूत सूत्र आए
जिसमें हम कहीं नहीं थे और जब फरारियों को पकड़ कर कुछ नए आरोपों के साथ वापस जेल में
ले आया गया तब जाकर मुझे कैद तन्हाई से मुक्ति मिली। हालाँकि नानूसान को किसी तरह की
कोई राहत नहीं दी गई।
इतना कुछ हुआ, तब
जाकर पता चला कि उस इतवार को आखिर हुआ क्या था?
असल में, घटना वाले इतवार एक मुलाकाती
अपने साथ जो खाना लेकर आया था, उस
टिफिन में ऊपर से तो गोल-गोल लिट्टियाँ रखी थीं,
पर नीचे दो जिंदा देसी बम थे,
जिन्हें विस्फोट कर दो लोगों को भगाया गया था। बुच्चू बता
रहा था कि भाग निकले कैदी पकड़े नहीं जाते पर कुछ ऐसा हो गया कि दोनों के दोनों धरे
गए।
धमाका कर मुलाकाती सिर्फ अपने भाई को भगाने आया था पर धुएँ और अफरातफरी का सहारा
लेकर एक सजायाफ्ता कैदी और फरार हो गया, जो किसी ठेकेदार के चक्कर में पड़ कर अपनी प्यारी पत्नी को शक के कारण पीट पीटकर
हत्या कर देने के आरोप में बीस बरसा भोग रहा था। भागकर दोनों महुआटाँड जाने वाली बस
में सवार हो गए थे, पर
महुआटाँड जाने के बजाय दोनों आपस में बातचीत कर वहाँ से लगभग पंद्रह-बीस किलोमीटर पहले
ही एक गाँव के नजदीक उतर गए। उतरे तो ठीक,
लेकिन जिसको भगाने के लिए बम फोड़ा गया था, उसकी लूटने-झपटने की पुरानी आदत। उतरते-उतरते उसने बस के
दरवाजे पर खड़ी बुढ़िया से उसका लाल बाँका मुर्गा छीन लिया। यह आदमी पहले घाटी में
गिरोह बनाकर बस-ट्रक लूटता था, वह
भी पार्टी के नाम पर। गिरोह के सदस्यों को पुलिस तो खोज ही रही थी, पार्टी वाले भी पीछे पड़े थे,
लेकिन पार्टी वालों के हाथ पड़ने से पहले ही गिरोह के चार
आदमी पुलिस के हत्थे चढ़ गए। पार्टी के नाम पर उत्पात मचाना खूब भारी पड़ गया। थाना
लूटने, पिकेट उड़ाने जैसे बीसियों
आरोप और ऊपर से लाद दिए गए। दो साल से यूँ ही पड़े हुए थे। इन्हीं चार में से एक को
उसके दुस्साहसी भाई ने बम पटक कर भगा लिया।
दूसरा कैदी जिसने मौका ताक कर चालाकी दिखाई थी और निकल लिया था, उसी की योजना थी,
गाँव के नजदीक उतरने की,
क्योंकि इस गाँव में उसकी फूफासास रहती थी। तुरंत के लिए
यह ठिकाना उन्हें महफूज भी लगा था, पर
संयोग कि लाल रंग वाले उस बाँके मुर्गे वाली बुढ़िया इसी गाँव की निकली और उसने इन
दोनों को पहचान भी लिया। फिर तो गाँव वालों ने दोनों को भरदम मारा और थाने में दे दिया।
जहाँ इन्होंने सब किस्सा बक दिया।
इस बम कांड ने बहुत कुछ उलट कर रख दिया है। अब तो पूरा इतवारी बम कांड झरने
के पानी की तरह साफ है, पर
जेल वालों के दिमाग में अब भी हमारे प्रति अविश्वास,
सर्तकता और चौकन्नापन साफ झलक रहा है। हालाँकि मुझे कैद तन्हाई
से छुटकारा दे दिया गया है, पर
वापस नानूसान की देखभाल के लिए नहीं रखा गया है। उन्होंने मुझे ताकीद भी किया है कि
मैं उनसे दूर रहूँ। मेरा अकेलापन हाट से बाहर की ओर आने वाले उस सड़क के सूनापन जैसा
हो गया है जिस पर हाट खत्म होने और अँधेरा घिर आने की वजह से कोई एक कुत्ता तक मौजूद
नहीं होता।
मैं बुच्चू के साथ भी नहीं हूँ। मुझे कोठरी में उचक्कों और चार सौ बीसों के
साथ रखा गया है। ये लंपट हैं, चापलूस
हैं, धूर्त, लोलूप झगड़ालू और कटखने भी। भद्दी-भद्दी बातें बतियाते हैं
और बात-बात में कहकहे लगाते हैं। ये आपस में दोस्ती का नाटक करते हैंड, एक-दूसरे की तारीफ करते हैं,
खुशामद करते हैं,
फिर किसी बात पर एक दूसरे की माँ-बहनों पर चढ़ बैठते हैं, बाहर निकलकर सबक सिखाने की धमकियाँ देते हुए कुत्ते सूअरों
की तरह लड़ते-भिड़ते हैं। अकेलेपन निराशा और अवसादों का यह दौर अब आगे भी जारी रहने
वाला है। लगता है, अब
सही मायने में जेल मुझे डराएगा और इस डर और हताशा से बचाकर मुझे सीखने बताने वाला कोई
नहीं होगा।
मैं जान गया हूँ, जेल
जैसे रेतीले-पथरीले और ऊसर जगह में मौसम की सारी अठखेलियाँ और ठिठोलियाँ नानूसान जैसों
के संग ही समझी जा सकती हैं। अर्भी सर्दी है,
सर्दी की कनकनी रातों में कछुए की तरह कंबल के अँधेरे में
सर घुसाए, मैं इतना कुछ सोच लगातार काँपता
रहता हूँ।
मुझे यह कँपकँपी नई नहीं लग रही है। मैं इसे पहले भी दो-तीन दफा महसूस कर चुका
हूँ। बचपन में हुई ऐसी कँपकँपियों का तो मुझे ख्याल नहीं,
पर इस कोठरी में आने के दो दिन पहले जंगल की उस मायूस साँझ
की पहली और जरा कम तीव्रता वाली कँपकँपी, और उस साँझ के उतरने के बाद आई काली-कलूटी रात की भीषण कँपकँपी की झनक अब तक
मेरी देह में बची है।
हौले से हरेक अंग को झनझना कर, रीढ़ की हड्डी में समाकर खत्म हो जाने वाली वह पहली कँपकँपी, मैंने गर्मी की उस साँझ महसूस की थी, जब जंगल की या कि मेरी त्रासदी अपनी प्रक्रिया में थी और
इसके कुछ लक्षण मुझे अपनी प्रेमिका में भी दिखाई दे गए थे।
सुक्की , मैं और हमारा जंगल
हम प्यार करते थे और फूल गिरते थे। उन फूलों को बकरियाँ अपने गालों में दबाकर
खा जाती थीं। हम प्यार करते थे और महुए टपकते थे,
उन महुओं को भी बकरियाँ आँखें नचाकर खा जाती थीं। महुआ या
जामुन की जड़ों पर जहाँ हम बैठे या अधलेटे होते,
हमारी देहों पर या बिल्कुल करीब गिरे फूलों या महुओं को खाने
कोई साहसी और समझदार बकरी आती या फिर कोई मासूम,
छौना। छौना निधड़क और बड़ी कोमलता से फूलों या महुओं को चुभलाता
हमारी ओर से बेपरवाह होता। हम मिलकर उसे आसानी से पकड़ते और बारी-बारी से चूमते। वह
उसे छाती से चिपटाकर कहती, 'हम
तीनों वहाँ घर बनाएँगे, जहाँ
यह जंगल खत्म होता है और जहाँ इस धरती और आकाश का मिलन होता है। तब हमारे घर का दरवाजा
जंगल की ओर होगा और घर की पिछली दीवार के रूप में क्षितिज का आसमान होगा, जिसकी ओट में हम बिल्कुल सुरक्षित होंगे। हालाँकि ऐसी तमाम
कल्पनाओं में खोते हुए उसके चेहरे का रंग मलिन होता जाता,
क्योंकि जंगल की आबोहवा तेजी से बदलती जा रही थी। इसका भान
था मुझे और उसे भी, पर
हम अलग- अलग दुखी हुआ करते थे, अलग-अलग
समय में। वह हर साँझ, जब
हम यूँ ही लेटे या अधलेटे होते, डूबते
सूरज के साथ अपनी कल्पनाओं को, जंगल
में आने वाली संभावित त्रासदी से दरकता हुआ पाती।
जंगल का गाढ़ापन जार-जार होकर बिखर रहा था और जंगल के बदलते मौसम के साथ-साथ
हमारे प्यार का तिलिस्म भी चटक रहा था। जंगल में बढ़ आए फाँटों से अब कोई भी नया-पुराना
जो मुँह उठाकर जंगल में घुसा चला आ रहा था,
हमें आसानी से झाँक जाता था। पेड़ों की जिन जड़ों पर परसकर
हम सपने बुना करते थे, वहाँ
कुछ देर या बहुत देर पहले कइयों के होने की गंध और निशान बचे होते थे।
हम इस डर मिश्रित निराशा और दुख के साथ लगातार खामोशी भरे चौकन्नेपन में जिए
जा रहे थे। जंगल के गंधाते जा रहे माहौल में अब सुक्की क्षितिज के भी सुरक्षित होने
को लेकर आश्वस्त नहीं लगती थी। साँझ, सवेरे, दिन-दोपहर हमें प्रेम के लिए
जगह तलाशनी पड़ रही थी। अपने ही घर में हम भटक-भटक कर प्रेम कर रहे थे। हमारी प्यारी
मुर्गियाँ और बकरियाँ गायब हो रही थीं और हमारे परिजन भी। हमारी झोपड़ियाँ अचानक राख
हो रही थीं और हमें जंगल से बाहर बने तंबुओं की ओर खदेड़ा जा रहा था।
हमारे दिलों में खौफ भरने वाले धीरे-धीरे पूरे जंगल में छितर रहे थे। इनमें
से कई हमारे बंधु-बांधव थे और कई, बड़े
शहरों से भेजे गए हरबे-हथियारों से लैस सिपाही। ये अपनी लोहेनुमा गाड़ियों में भरकर
गोला-बारूद लाए थे और मुक्त हाथों हमारे बंधु-बांधवों को बाँट रहे थे ताकि जंगल के
पुराने रखवालों से जंगल को खाली कराया जा सके। शहरी सिपाहियों ने हमारे लिए एक रेखा
खींच रखी थी, जीवन और मृत्यु की कि इनकी
ओर से हथियार उठाने पर जीवन अन्यथा सौ फीसदी मृत्यु। पर सच यह था कि कोई भी चुनाव शर्तिया
मौत की ओर ही ले जाने वाला था। भाइयों से ही लड़ाने की स्थिति पैदा कर रखी थी इन्होंने।
जंगल में एक संभावित युद्ध शुरू होने वाला था और हम इसके सबसे आसान शिकार थे।
बड़े शहरों से आए सिपाहियों ने हथियार चलाने के लिए हमारे बंधु-बांधवों का कंधा चुना
था और मौज के लिए हमारे बहनों को, जो
चंद पैसों पर या फिर मौत के विकल्प पर उन्हें उपलब्ध हो जा रहा थे। यह सब कुछ वाकई
डरावना था।
उथल-पुथल से भरे ऐसे ही समय की वह साँझ,
हमारी पिछली कई साँझों से बिल्कुल अलग और हमें एक-दूसरे से
जुदा करने वाली थी।
उस साँझ जब वह आई तो रोजाना की तरह उसकी हाथों में हँसुआ नहीं, पलक झपकते मृत्यु की गलियों में भेज देने वाला एक खतरनाक
हथियार था, जो निश्चित तौर पर सिपाहियों
की ओर से ही दिया गया था। अलविदा कहते सूरज की सुरमई ताँबई रोशनी में वह हद से ज्यादा
उदास और डूबती दिख रही थी।
महुओं का टपकना दिन भर से शुरू था और वे गिर कर बासी हो रहे थे। बकरियों का
आना शायद अभी भी बाकी था।
मैंने उसे सहारा दिया और उसके हाथों से हथियार लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा।
वह वैसी ही अधलेटी उदास और थकी-थकी नजरों से मुझे देखती रही।
सूरज भरपूर रंगीन होता हुआ नीचे जा रहा था,
जैसे किसी पेड़ पर गिरकर लटक जाएगा।
मैं उस हथियार को जतन से पोछता रहा और वह मुझे ताकती रही। शायद वह बहुत कुछ
कहना चाहती थी या फिर कुछ भी नहीं। मैं भी बहुत कुछ पूछना चाहता था या फिर कुछ भी नहीं।
हम अगले कई पलों तक अबोले बैठे रहे थे।
फिर मैं चुप्पी छोड़ आहिस्ते से उठा और अपनी पूरी ताकत से सामने जामुन की टहनियों
की ओर उस हथियार को उछाल दिया। काले-काले,
रस से भरे खूब सारे पके जामुन गदबदा कर पसर गए। मैं बड़े
इत्मिनान से उन्हें चुन रहा था और उनमें धँसे छोटे-छोटे कंकड़ों-मिट्टियों को हटाकर, साफ जामुनों को बकरियों की तरह अपनों गालों के बीच दबाता
जा रहा था।
कुछ साबुत जामुनों को दोनों हथेलियों में भरकर,
जब मैं उसकी ओर मुड़ा,
वह वहाँ नहीं थी।
सूरज अपनी रंगीनियाँ बिखेरकर जंगल के बाहर गिर गया था। जामुनों को वहीं बिखेरकर
मैं तने और जमीन के ऊपर तक निकल आई मोटी-मोटी जड़ों का सहारा लेकर पसर गया। वह शायद
इस जंगल की साँझ के साथ कहीं बिला गई थी, सोच कर रीढ़ की हड्डी के बीच से एक हौले से झुरझुरी के साथ एकबएक कँपकँपी उठी
और मैं हिल गया।
साँझ खत्म हो जाने के बाद मद्धिम रात पसरने को थी और मैं यूँ ही पसरा रहा, एक धीमी किंतु स्थायी कँपकँपी के साथ। जामुन के कसैलेपन के
साथ वाले खट्टेपन से मुझे अपने होंठ ज्यादा मोटे और भद्दे तरीके से लटके लग रहे थे।
पिछले कई मिलनों में, खास
कर गर्मियों वाली देर से उतरने वाली साँझों में,
जब हम भरपेट आम जामुन खाकर,
एक दूसरे को चूमते तो हमारे होठ अपेक्षाकृत ज्यादा मोटे, ठोस, मुलायम
और झूलते मालूम होते थे। मैं जंगल और सुक्की के बारे में घंटों सोचता रहा।
चाँदनी छिटकने पर साधारण लकड़ी की तरह मालुम होता हथियार, बिखरे जामुन के बीच अब भी पड़ा था। सुक्की के इस तरह हथियार
छोड़ चले जाने और रात की साँय- साँय भयानक तरीके से बढ़ आने से रीढ़ की हड्डी से उठा
मेरा भय कनपटी पर आकर सनसनाने लगा। लग रहा था,
जंगल में घुसपैठ कर फैल जाने वालों की खूनी नजरें अगल-बगल
के पेड़ों से मुझे झाँक रही हैं। अचानक वे पेड़ों से सरसराते हुए उतर पड़ेंगे और क्षण
भर में मुझे नोच-फाड़ खाएँगे। इतने भयानक ख्याल आते ही मुझे ठंड का अहसास हुआ और मैं
डर कर सिकुड़ गया। मैं जामुनों के बीच पड़े उस हथियार की ओर फिर से देखे बगैर उसे वहीं
छोड़ तुरंत उठ खड़ा हुआ और भागने लगा, सुक्की की झोंपड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर।
जामुन खाने से विकृत हुए होंठ और गले की भरपूर ताकत से एक भयंकर आवाज के साथ
मैं चिल्लाना चाहता था, अपनी
प्रेमिका के लिए कि वह सावधान हो जाए और बची रहे। हम जंगल नहीं छोड़ेंगे। हम आगे और
प्रेम करेंगे। मैं पूरी ताकत लगाने पर भी भागता हुआ ऐसे नहीं चिल्ला सकता था, या शायद ठहरकर भी नहीं। मैं जितना अधिक जोर लगाता था, आवाज निकलने के बजाय मेरी कँपकँपी बढ़ जाती थी। और मैं हिरण
की रफ्तार से नहीं भाग पा रहा था।
मेरा डर, मेरी आशंका सब कुछ सच था। मैं
भागता हुआ सच में दबोच लिया गया था। मुझे अपनी गिरफ्त में लेने वाले जंगल के रखवाले
नहीं थे। ये वही थे, जिनसे
हम पिछले कई हफ्तों से भागते फिर रहे थे जो बाहरी सिपाहियों और उनके गोले-बारूदों के
साथ मिलकर हमसे जंगल छोड़ने को कह रहे थे,
जो हमारी प्यारी मुर्गियों और बकरियों को खा रहे थे। हमारे
प्रिय परिजनों को गायब कर रहे थे। हमारी झोपड़ियाँ जला रहे थे और भेड़ियों की तरह झुंड
में घूमते हुए हमारी बहनों को भंभोड़ रहे थे।
ये मुझे पहचानते थे और मैं उन्हें। मैं कई दिनों या हफ्तों या फिर महीनों से
इनकी नजरों में चढ़ा था। ये एक साथ मुझपर गुर्रा रहे थे और फिर तुरंत, उन भेड़ियों ने मेरे धुर्रे उड़ा दिए। मेरी अँतड़ियाँ उलट
गईं। आँखें पलट गईं, लेकिन
पीड़ा के इस जोर से मेरी आवाज लौट आई जो डर से कुछ देर पहले भागते हुए जम सी गई थी।
वे संपूर्ण ताकत से मुझे पीट रहे थे और मैं मारे जाते हुए सूअर की तरह भंयकर आवाज निकालता
हुआ चीख रहा था, 'सुक्की सावधान रहना, तुम बची रहना। जंगल मत छोड़ना। हम बचेंगे और आगे और प्रेम
करेंगे।'
मैं अपने भीतर की सारी आवाज सुक्की को सचेत करने में झोंक रहा था।
खूब पीट जाने पर लगा मेरी नसों में न रक्त बचा है,
न शक्ति और न कोई आवाज।
और मैं मर गया।
अगली दोपहर मैंने जाना, मैं
बच गया हूँ और चारों ओर जंगल का नामोनिशान नहीं हैं।
मैं बड़े शहर के सिपाहियों के बीच था जो मेरी ओर इशारा करते हुए जोर-जोर से
मुखबिर-मुखबिर चिल्लाकर बातें कर रहे थे। अगले कई हफ्तों तक हर उसके पास जिसके सामने
मेरी पेशी हुई, मेरे लिए मुखबिर शब्द ही कहा
गया।
जेल की इस चाहरदीवारी में मैं इसी आरोप में बंद हूँ। उनकी नजरों में मैंने बेहद
संगीन अपराध किया है। यदि किया है तो, और सब सोचते हैं मैंने यह जरूर किया है,
नानूसान, मेट
और बुच्चू को छोड़कर।
नानूसान दुखद स्थिति में हैं। गाँव,
जंगल, पठार, पहाड़, शहर
सब को चाहिए कि ये अपनी चिंताओं में नानूसान को और उन जैसों को शामिल करें जिन्होंने
अपने पूरे जीवन को इस धरती की त्रासदियों से लड़ने-भिड़ने के लिए समर्पित कर दिया है।
नानूसान से अलग किया जाना मेरे लिए बेहद दुखदायी होगा और यह सुक्की से अलग होने
से तनिक भी कम असहनीय नहीं होगा।
जंगल की लड़ाई शायद लंबी चले, क्योंकि कई अपने ही दूसरे खेमे से लड़ रहे हैं। अब तक तो गोलियों की दिन रात
की बौछार और बमों की चिनगारियों से पेड़ों की पतियाँ,
फूल और फल बिंध कर झर गए होंगे। बंदर, नीलगाय, खरगोश, चीतल, तेंदुए, और हिरण यहाँ तक की अपनी बाँबियों में दुबके विषधर भी बारूद
की तेज भभकने वाली आग में भुन गए होंगे और हमारी झोपड़ियों के खाक हो जाने के बाद पेड़ों
पर ठहरने वाली चिड़ियाओं के घोसलों का जलना-गिरना आम हो गया होगा।
और जंगल की इस आग में मेरी सुक्की का प्रेम करने के लिए बचा रह जाना, तालाब में पर्याप्त जहर छोड़ देने के बाद भी एक सुनहली मछली
के जीवित तैरते रह जाने जैसा होगा।
मुझे नहीं मालूम कि इन आड़े-तिरछे अक्षरों,
शब्दों और वाक्यों को निहार भर लेने के लिए सुक्की जिंदा
है या नहीं, लेकिन लिखना सिख लेने के बाद
मैं यह सब इसलिए भी लिख रहा हूँ ताकि दुनिया को कल अचानक घट जा सकने वाली बातों की
बाबत पहले से इत्तिला कर सकूँ।
दरअसल, उस इतवारी बम कांड के बाद नामालूम
क्यों, हम जेलर की नजरों में और अधिक
संदिग्ध हो गए हैं। वह हमारी तकलीफें लगातार बढ़ाता जा रहा है। मालूम होता है, वह हमेशा हमें मारने के मौकों की तलाश में लगा रहता है, हालाँकि उसे ऐसे मौके हाथ नहीं लग रहे हैं, क्योंकि हम हमेशा बड़े संयमित और सचेत रहते हैं। स्पष्ट है, हम उसकी नजरों पर चढ़े हुए हैं। पर बात इतनी नहीं है। यह
सब तो मैं अपने समान्य विवेक से पकड़ रहा हूँ। बुच्चू के मार्फत नानूसान ने कुछ सचमुच
डरावनी बातें बताई हैं कि ऊपरी आकाओं के इशारों पर वे उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं।
बड़ी चालाकी से उनके लिए खामोश मौत की तैयारी की जा रही है। इसलिए नानूसान ने मुझे
भी चौकन्ना रहने को कहा है।
नानूसान अपनी कोठरी में बीमार हैं और कभी-कभी खून की उल्टियाँ कर रहे हैं। जेलर
आखिरकार उन्हें बीमारावस्था में धकेल देने की अपनी योजना में सफल हो गया है। इसलिए
उसने जानबूझ कर उन्हें उल्टियाँ करते हुए छोड़ दिया है। बाहर किसी को भनक तक नहीं लगने
दी जा रही है। हुक्मरान उनकी प्राकृतिक मौत हो आने की आस में टकटकी बाँधे बैठे हैं।
दिखावे के लिए जेल का डॉक्टर उन्हें सुइयाँ लगाना चाहता है लेकिन उनके लिए सबसे खतरनाक
बात यही है। डर यह है कि कहीं सुइयों में हवा भर कर नसों में पैवस्त कर नानूसान को
मार न डाला जाए। इसलिए नानूसान शहर के किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की बात पर
डटे हैं। मुझे तो यह भी डर है कि कहीं रोज-रोज उनके खाने में थोड़ा-थोड़ा जहर न दिया
जा रहा हो। यह सब देखने-समझने वाला उनके पास कोई नहीं है।
यह सोलह आने सच है कि नानूसान के साथ कुछ भी किया जा सकता है क्योंकि ऊपर और
उससे भी ऊपर और सबसे ऊपर के लोग भी उनके साथ ऐसा ही चाहते हैं। इसलिए नानूसान तो सावधान
हैं ही, मुझे भी सावधान हो जाना चाहिए
और जंगल, पहाड़, गाँव, शहर
सबको भी, ताकि कल को कुछ ऐसा-वैसा हो
जाए तो सब झूठे आश्चर्य में पड़ कर दिखावे में मुँह बाए न रह जाएँ।
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