यह छोटी-सी कहानी सुनाना काफी कठिन होगा-इतनी सीधी-सादी है यह! जब मैं अभी छोटा ही था, तो गरमियों और वसन्त के दिनों में रविवार को, अपनी गली के बच्चों को इकट्ठा कर लेता था और उन्हें खेतों के पार, जंगल में ले जाता था। इन पंछियों की तरह चहकते, छोटे बच्चों के साथ दोस्तों की तरह रहना मुझे अच्छा लगता था।
बच्चों को भी नगर की धूल और भीड़ भरी गलियों से दूर जाना अच्छा लगता था। उनकी माँएँ उन्हें रोटियाँ दे देतीं, मैं कुछ मीठी गोलियाँ खरीद लेता, क्वास की एक बोतल भर लेता और फिर किसी गड़रिये की तरह भेड़ों के बेपरवाह मेमनों के पीछे-पीछे चलता जाता-शहर के बीच, खेतों के पार, हरे-भरे जंगल की ओर, जिसे वसन्त ने अपने सुन्दर वस्त्रों से सजा दिया होता।
आमतौर पर हम सुबह-सुबह ही शहर से बाहर निकल आते, जब कि चर्च की घण्टियाँ बज रही होतीं और बच्चों के कोमल पाँवों के जमीन पर पड़ने से धूल उठ रही होती। दोपहर के वक्त, जब दिन की गरमी अपने शिखर पर होती, तो खेलते-खेलते थककर, मेरे मित्र जंगल के एक कोने में इकट्ठे हो जाते। तब खाना खा लेने के बाद छोटे बच्चे घास पर ही सो जाते-झाड़ियों की छाँव में-जबकि बड़े बच्चे मेरे चारों ओर घिर आते और मुझे कोई कहानी सुनाने के लिए कहते। मैं कहानी सुनाने लगता और उसी तेजी से बतियाता, जिससे मेरे दोस्त और जवानी के काल्पनिक आत्मविश्वास तथा जिन्दगी के मामूली ज्ञान के हास्यास्पद गर्व के बावजूद मैं अक्सर अपने आपको विद्वानों से घिरा हुआ किसी बीस वर्षीय बच्चे-सा महसूस करता।
हमारे ऊपर अनन्त आकाश फैला है, सामने है जंगल की विविधता-एक जबरदस्त खामोशी में लिपटी हुई; हवा का कोई झोंका खड़खड़ाता हुआ पास से निकल जाता है, कोई फुसफुसाहट तेजी से गुजर जाती है, जंगल की सुवासित परछाइयाँ काँपती हैं और एक बार फिर एक अनुपम खामोशी आत्मा में भर जाती है।
आकाश के नील विस्तार में श्वेत बादल धीरे-धीरे तैर रहे हैं, सूरज की रोशनी से तपी धरती से देखने पर आसमान बेहद शीतल दिखता है और पिघलते हुए बादलों को देखकर बड़ा अजीब-सा लगता है।
और मेरे चारों ओर हैं ये छोटे-छोटे, प्यारे बच्चे, जिन्हें जिन्दगी के सभी गम और खुशियाँ जानने के लिए मैं बुला लाया हूँ।
वे थे मेरे अच्छे दिन-वे ही थीं असली दावतें, और जिन्दगी के अँधेरों से ग्रसित मेरी आत्मा, जो बच्चों के खयालों और अनुभूतियों की स्पष्ट विद्वत्ता में नहाकर तरो-ताजा हो उठती थी।
एक दिन जब बच्चों की भीड़ के साथ शहर से निकलकर मैं एक खेत में पहुँचा, तो हमें एक अजनबी मिला - एक छोटा-सा यहूदी - नंगे पाँव, फटी कमीज, काली भृकुटियाँ, दुबला शरीर और मेमने-से घुँघराले बाल। वह किसी वजह से दुखी था और लग रहा था कि वह अब तक रोता रहा है। उसकी बेजान काली आँखें सूजी हुईं और लाल थीं, जो उसके भूख से नीले पड़े चेहरे पर काफी तीखी लग रही थीं। बच्चों की भीड़ के बीच से होता हुआ, वह गली के बीचोंबीच रुक गया, उसने अपने पाँवों को सुबह की ठण्डी धूल में दृढ़ता से जमा दिया और सुघड़ चेहरे पर उसके काले ओठ भय से खुल गये - अगले क्षण, एक ही छलाँग में, वह फुटपाथ पर खड़ा था।
“उसे पकड़ लो!” सभी बच्चे एक साथ खुशी से चिल्ला उठे, “नन्हा यहूदी! नन्हे यहूदी को पकड़ लो!”
मुझे उम्मीद थी कि वह भाग खड़ा होगा। उसके दुबले, बड़ी आँखोंवाले चेहरे पर भय की मुद्रा अंकित थी। उसके ओठ काँप रहे थे। वह हँसी उड़ाने वालों की भीड़ के शोर के बीच खड़ा था। वह पाँव उठा-उठाकर अपने आपको जैसे ऊँचा बनाने को कोशिश कर रहा था। उसने अपने कन्धे राह की बाड़ पर टिका दिये थे और हाथों को पीठ के पीछे बाँध लिया था।
और तब अचानक वह बड़ी शान्त और साफ और तीखी आवाज में बोल उठा - “मैं तुम लोगों को एक खेल दिखाऊँ?”
पहले तो मैंने सोचा कि यह उसका आत्मरक्षा का कोई तरीका रहा होगा - बच्चे उसकी बात में रुचि लेने लगे और उससे दूर हट गये। केवल बड़ी उम्र के और अधिक जंगली किस्म के लड़के ही उसकी ओर शंका और अविश्वास से देखते रहे - हमारी गली के लड़के दूसरी गलियों के लड़कों से झगड़े हुए थे। उनका पक्का विश्वास था कि वे दूसरों से कहीं ज्यादा अच्छे हैं और वे दूसरों की योग्यता की ओर ध्यान देने को भी तैयार नहीं थे।
पर छोटे बच्चों के लिए यह मामला एकदम सीधा-सादा था।
“दिखाओ - जरूर दिखाओ!”
वह खूबसूरत, दुबला-पतला लड़का बाड़ से परे हट गया। उसने अपने छोटे-से शरीर को पीछे की ओर झुकाया। अपनी अँगुलियों से जमीन को छुआ और अपनी टाँगों को ऊपर की ओर उछालकर हाथों के बल खड़ा हो गया।
तब वह घूमने लगा, जैसे कोई लपट उसे झुलसा रही हो - वह अपनी बाँहों और टाँगों से खेल दिखाता रहा। उसकी कमीज और पैण्ट के छेदों में से उसके दुबले-पतले शरीर की भूरी खाल दिखाई दे रही थी - कन्धे, घुटने और कुहनियाँ तो बाहर निकले ही हुए थे। लगता था, अगर एक बार फिर झुका, तो ये पतली हड्डियाँ चटककर टूट जाएँगी। उसका पसीना चूने लगा था। पीठ पर से उसकी कमीज पूरी तरह भीग चुकी थी। हर खेल के बाद वह बच्चों की आँखों में, बनावटी, निर्जीव मुसकराहट लिये हुए, झाँककर देख लेता। उसकी चमक रहित काली आँखों का फैलना अच्छा नहीं लग रहा था - जैसे उनमें से पीड़ा झलक रही थी। वे अजीब ही ढंग से फड़फड़ाती थीं और उसकी नजर में एक ऐसा तनाव था, जो बच्चों की नजर में नहीं होता। बच्चे चिल्ला-चिल्लाकर उसे उत्साहित कर रहे थे। कई-एक तो उसकी नकल करने लगे थे।
लेकिन अचानक ये मनोरंजक क्षण खत्म हो गये। लड़का अपनी कलाबाजी छोड़कर खड़ा हो गया और किसी अनुभवी कलाकार की-सी नजर से बच्चों की ओर देखने लगा। अपना दुबला-सा हाथ आगे फैलाकर वह बोला, “अब मुझे कुछ दो!”
वे सब खामोश थे। किसी ने पूछा, “पैसे?”
“हाँ,” लड़के ने कहा।
“यह अच्छी रही! पैसे के लिए ही करना था, तो हम भी ऐसा कर सकते थे...”
लड़के हँसते हुए और गालियाँ बकते हुए खेतों की ओर दौड़ने लगे। दरअसल उनमें से किसी के पास पैसे थे भी नहीं और मेरे पास केवल सात कोपेक थे। मैंने दो सिक्के उसकी धूल भरी हथेली पर रख दिये। लड़के ने उन्हें अपनी अँगुली से छुआ और मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद!”
वह जाने को मुड़ा, तो मैंने देखा कि उसकी कमीज की पीठ पर काले-काले धब्बे पड़े हुए थे।
“रुको, वह क्या है?”
वह रुका, मुड़ा, उसने मेरी ओर ध्यान से देखा और बड़ी शान्त आवाज में मुस्कराते हुए बोला, “वह, पीठ पर? ईस्टर के मौके पर एक मेले में ट्रपीज करते हुए हम गिर पड़े थे - पिता अभी तक चारपाई पर पड़े हैं, पर मैं बिलकुल ठीक हूँ।”
मैंने कमीज उठाकर देखा - पीठ की खाल पर, बायें कन्धे से लेकर जाँघ तक, एक काला जख़्म का निशान फैला हुआ था, जिस पर मोटी, सख्त पपड़ी जम चुकी थी। अब खेल दिखाते समय पपड़ी फट गयी थी और वहाँ से गहरा लाल खून निकल आया था।
“अब दर्द नहीं होता,” उसने मुस्कराते हुए कहा, “अब दर्द नहीं होता... बस, खुजली होती है...”
और बड़ी बहादुरी से, जैसे कोई हीरो ही कर सकता है, उसने मेरी आँखों में झाँका और किसी बुजुर्ग की-सी गम्भीर आवाज में बोला, “तुम क्या सोचते हो कि अभी मैं अपने लिए काम कर रहा था! कसम से-नहीं! मेरे पिता... हमारे पास एक पैसा तक नहीं है। और मेरे पिता बुरी तरह जख्मी हैं। इसलिए - एक को तो काम करना ही पड़ेगा, साथ ही... हम यहूदी हैं न! हर आदमी हम पर हँसता है... अच्छा अलविदा!”
वह मुस्कराते हुए, काफी खुश-खुश बात कर रहा था। और तब अपने घुँघराले बालोंवाले सिर को झटका देकर अभिवादन करते हुए वह चला गया - उन खुले दरवाजों वाले घरों के पार, जो अपनी काँच की मारक उदासीनता भरी आँखों से उसे घूर रहे थे।
ये बातें कितनी साधारण और सीधी हैं - हैं न? लेकिन अपने कठिनाई के दिनों में मैंने अक्सर उस लड़के के साहस को याद किया है - बड़ी कृतज्ञता से भर कर!
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