Monday 24 June 2013

किताबों की दुनिया में भारत की जय



प्रियंका सिंह

भारत अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन में दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है। कुल पब्लिकेशन मार्केट 80 अरब रुपये के आंकड़े को छू रहा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिकेशन्स के मुताबिक भारत में किताब प्रकाशन का बाजार 15 गुना की दर से बढ़ रहा है। आज हर साल विभिन्न भारतीय भाषाओं में करीब दो लाख किताबें छपती हैं, जिनमें से 30 हजार अंग्रेजी की होती हैं। इंग्लिश में भारत से ज्यादा किताबें सिर्फ अमेरिका व इंग्लैंड में ही छपती हैं। पैरिस इंटरनैशनल बुक फेयर व फ्रैंकफर्ट बुक फेयर जैसे बड़े आयोजनों में भारत को 'गेस्ट ऑफ ऑनर' बनाया जाना साबित करता है कि साहित्य की दुनिया में भारत के महत्व को दुनिया भर में स्वीकारा जा रहा है।
पेंग्विन पब्लिकेशन्स की भारतीय भाषाओं की सलाहकार व लेखिका नमिता गोखले कहती हैं कि हिंदी व स्थानीय भाषाओं की किताबों के लिए स्कोप काफी अच्छा है, कमी है तो सिर्फ डिस्ट्रिब्यूशन की। हमारी कोशिश है कि सभी इलाकों के पाठकों को किताबें उपलब्ध कराई जा सकें। हिंदी में अच्छी किताबें नहीं होने की शिकायत को दूर करने के लिए हम बेस्टसेलर किताबों को हिंदी में ट्रांसलेट कराने की कोशिश करते हैं। ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक रवींद्र कालिया कहते हैं कि हिंदी के अखबारों का प्रसार बढ़ रहा है और एक दिन ऐसा आएगा कि इंटरनेट पर भी हिंदी छा जाएगी। हिंदी के कई पब्लिशरों का टर्नओवर करोड़ों रुपये का है, फिर हिंदी को खतरा कहां है? अंग्रेजी लेखक केकी. एन. दारूवाला कहते हैं कि पढ़ने के मामले में हम बेशक कुछ यूरोपीय देशों से पीछे हैं, लेकिन 90 के बाद हालत सुधरे हैं, खासकर अंग्रेजी साहित्य में। बस जरूरत है तो बच्चों में पढ़ने की आदत डालने और विदेशों की तरह बुक-कॉफी शॉप बनाने की, जहां पाठक आराम से मनपसंद किताबें पढ़ व खरीद सकें।
समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट मानते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हिंदी साहित्य पर भारी पड़ रहा है। मनोरंजन के लिए किताबें पढ़नेवाले लोग टीवी की ओर मुड़ गए हैं। थोड़ा पढ़-लिखकर लोग अंग्रेजी की ओर बढ़ जाते हैं, क्योंकि अंग्रेजी पढ़ना फैशन हो गया है। हिंदी प्रकाशन के सबसे बड़े अड्डे दिल्ली में ही हिंदी किताबों की गिनी-चुनी दुकानें हैं। वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा इसके लिए हिंदी के लेखकों को जिम्मेदार ठहराती हैं। वह कहती हैं कि हिंदी के ज्यादातर लेखक अंग्रेजी लेखकों की नकल करते हैं और भाषा को इतना कठिन बना देते हैं कि आम पाठक से जुड़ नहीं पाते। उधर, आधार प्रकाशन के मालिक देश निर्मोही के मुताबिक किताबों की थोक खरीद पर ही अब किताबों का कारोबार निर्भर हो गया है।

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