Monday 12 September 2016

14 सितंबर हिंदी दिवस : हिंदी-चिंतक रामविलास शर्मा

शीर्ष आलोचक रामविलास शर्मा ने भारतीय संस्कृति, भारत में अँग्रेजी, हिन्दी नवजागरण, हिन्दी जाति, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी जैसी कालजयी विषयों को रेखांकित किया। हिंदी के प्रश्न पर वह भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। वह लिखते हैं- आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। रामविलास शर्मा का कहना है - दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है। इसी दौरान भारतीय आर्यों के दल इराक से लेकर तुर्की तक फैल जाते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूँजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है। जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ ही वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना है।
हिंदी जाति की अवधारणा रामविलास शर्मा के जातीय चिंतन का केंद्रीय बिंदु है। भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन तथा वैश्विक साहित्य से अन्तर्क्रिया के द्वारा रामविलास जी ने साहित्य के जातीय तत्वों की प्रगतिशील भूमिका की पहचान की है। वे लिखते हैं - ‘‘सन्‌ 1786 में ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था, ‘ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है।’ पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्‍वास किए बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्त्रोत से जन्मे हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है। इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडो यूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है। अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है।
अँग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने 1833 में लिखा था, ‘‘हम निश्‍चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में इटैलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल हैं, जिनकी अधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अँग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण में प्रतिबिंबित है।
रामविलास जी अंग्रेजों की प्रगतिशील भूमिका का मूल्यांकन तथ्यों की कसौटी पर करते हैं, इसीलिए वे उन्हें उतने प्रगतिशील नहीं लगते जितने अन्य विद्वानों को लगते हैं । शायद इसी कारण से डॉ रामविलास शर्मा अंगेजों की प्रगतिशील भूमिका का समर्थन करने के बजाय अपने लेखन में उन भारतीय तत्वों को उभारने का प्रयास करते हैं जो अंगेजों से भिन्न और कहीं अधिक प्रगतिशील थे ।
अंग्रेजों ने भारतीयों के इतिहास और साहित्य को पूरी तरह से खारिज करने के बाद, अपने औपनिवेशिक हितों के लिए जब इतिहास की व्याख्या करना प्रारंभ किया तो सबसे पहले हमारी ही भूमि पर हमें विदेशी साबित किया। उन्होंने कहा, `आर्य विदेशी थे।` यह कह कर वे अपने शासन को औचित्यपूर्ण आधार दे रहे थे। उन्होंने इतिहास की व्याख्या करते हुए बताया, आर्य विदेशी थे, वे जिस समय आए उनकी संस्कृति द्रविणों से अधिक समुन्नत थी और उन्होंने द्रविणों पर शासन कर उन्हें सभ्य बनाया। आज उन आर्यों की तुलना में हमारी संस्कृति अधिक समुन्नत है और हम उन पर शासन कर उन्हें वैज्ञानिक सीख दे रहे हैं। प्रश्न उठता है कि अंग्रेजों को ऐसे आधार तलाशने की जरूरत क्यों पड़ी? हमें याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन सहित यूरोप में एक ऐसा बौद्धिक वर्ग था, जो लगातार भारत तथा अन्य उपनिवेशों में अनौचित्यपूर्ण शासन की निंदा कर रहा था। उन्हें संतुष्ट करने के लिए उपनिवेशवादियों ने ऐसी थोथी व्याख्याएँ  प्रस्तुत कीं।
आर्यों के संबंध में उन्होंने भाषा विज्ञान के आधार पर सिद्ध किया कि आर्य यहाँ से बाहर गए और आर्यों के साथ द्रविण भी। ये लिखते हैं,  “दूसरी सस्राब्दी ई.पू. में जब बहुत-से भारतीय जन पश्चिमी एशिया में फैल गए, तब ऐसा लगता है, उनमें द्रविण जन भी थे। इस कारण ग्रीक आदि यूरोप की भाषाओं में द्रविण भाषा तत्व मिलते हैं यथा तमिल परि (जलना), ग्रीक पुर (अग्नि), तमिल अत्तन (पीड़ित होना), ग्रीक अल्गोस (पीड़ा), तमिल अन (पिता), ग्रीक अत्त (पिता)। यूरोप की भाषाओं में 12  से 19 तक संख्यासूचक शब्द कहीं आर्य पद्धति से बनते हैं, कहीं द्रविण पद्धति से।" (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग २, पृ. 673) रामविलास जी पुस्तक के इसी अध्याय में जॉन हॉफमैन का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने मुंडा परिवार की मुंडारी भाषा पर एक बड़ा ग्रन्थ `इनसाइकिलोपीडिया मुंडारिका` तैयार किया था। इसकी भूमिका में हॉफमैन आश्चर्य प्रकट करते हैं कि "मुंडा भाषा परिवार के जो शब्द आर्य भाषाओं में नहीं हैं, वे भी यूरोप की भाषाओं में मिल जाते हैं।
वास्तव में दूसरी सहस्राब्दी ई. पूर्व. में जब बहुत-से भारतीय गण और जन पश्चिम एशिया में फैले, तब उनके घुल-मिल जाने से स्लाव, ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि समुदायों की भाषाओं का निर्माण हुआ।" (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, पृ. 673) इसी विवेचन में वे आगे लिखते हैं,  "अवश्य ही इन प्रवासी जनों पर पीछे से बराबर दबाव पड़ता रहा होगा, जिससे ये यूरोप के उत्तर की ओर बढ़ते गए और इंडो-यूरोपियन परिवार की भाषाएँ बोलनेवाले यूरोप की अधिक उपजाऊ प्रशस्त भूमि पर बस गए। फिनोउग्रियन परिवार की भाषाएँ बोलनेवाले और भी उत्तर में ठेल दिए गए।"
उन्होंने हिंदी नवजागरण को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से अभिन्न रूप से संबद्ध मानते हुए लिखा –“हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होता है ।” (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, भूमिका) इसे हिंदी प्रदेश का राष्ट्रीय व जातीय संग्राम मानते हुए रामविलास जी ने इसके प्रभाव का सविस्तार विश्लेषण किया और यह दिखाया कि किस तरह इस राष्ट्रीय संग्राम का असर सारे देश पर हुआ, किंतु हिंदी भाषी प्रदेश पर सबसे अधिक हुआ। डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र इस संदर्भ में लिखते हैं, "हिंदी जाति के नवजागरण के अंतर को अन्य जातियों के नवजागरण से भिन्न रूप में रेखांकित करके निश्चय ही उसकी प्रकृति को समझने में मदद की है।" (आलोचक और समीक्षाएँ, पृ. 24) रामविलास शर्मा का मानना है कि हिंदी नवजागरण सामंतवाद व साम्राज्यवाद का विरोध करके आगे बढ़ा, इसीलिए इसकी एक पुरानी परंपरा है । 1857 के पहले के नवजागरण को जन-जागरण का नाम देते हुए वे लिखते हैं, “भारतेंदु युग उत्तर भारत में जन-जागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जन जागरण की पुरानी परंपरा का खास दौर है। जन-जागरण की शुरुआत तब होती है, जब यहाँ बोल-चाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है। यह सामंत विरोधी जागरण है।" (भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, पृ. 13) रामविलास जी भक्ति काल मे फैलाए गए इस जन-जागरण को `लोक-जागरण` कहते हैं। प्लासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, उन्हें `जन-जागरण` का नाम देते हैं। पहले दौर के लोक जागरण को दूसरे दौर के जन-जागरण से अलग करते हुए बताते हैं कि पहले दौर में विरोध सामंतवाद से है जबकि दूसरे दौर में साम्राज्यवाद से है।
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण की व्याख्या करते हुए कई चरणों का उल्लेख करते हैं। पहला चरण गदर या 1857 का स्वाधीनता संग्राम और दूसरा भारतेंदु युग है। हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल है। सन 1990 में `सरस्वती` का प्रकाशन आरंभ हुआ और 1920  में द्विवेदी जी उससे अलग हुए। इन दो दशकों की अवधि को `द्विवेदी युग` कहा जा सकता है। निराला साहित्य को रामविलास जी इसी नवजागरण की अगली कड़ी मानते हैं। ये लिखते हैं, “इस तरह नवजागरण जो 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरंभ हुआ, वह भारतेंदु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य विरोधी और सामंत, साम्राज्य विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में पुष्ट हुईं। फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उसकी विचारधारा में ये प्रवृत्तियाँ क्रांतिकारी रूप में व्यक्त हुईं।"            (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नव जागरण, पृ. 18) उन्होंने माना है कि नवजागरण की प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि अब भी जारी है । आज नवजागरण का संबंध पूँजीवाद से है।
डॉ. रामविलास शर्मा के हिंदी नवजागरण संबंधी मान्यताओं की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं, जिनकी ओर डॉ. शम्भुनाथ ने अपने लेख `हिंदी नवजागरण की अवधारणा : संदेह के बावजूद` (अलोचना, सहस्राब्दी अंक पाँच, अप्रैल-जून 2001) में लिखा है। पहली विशिष्टता है कि उन्होंने इसे तेरहवीं शताब्दी से ही विस्तृत निरंतरता में देखा। दूसरी बड़ी विशिष्टता है कि इसका संबंध हिंदी जाति के निर्माण और आत्मपहचान से स्थापित किया। तीसरी विशिष्टता यह है कि आधुनिक नाटककार शेक्सपीयर के काल का उदाहरण रख कर वे स्पष्ट करते हैं कि आधुनिकता का संबंध मशीनी उत्पादन से नहीं होता। सामंती व्यवस्था के भीतर व्यापारिक हस्त-शिल्प, कृषि, वाणिज्य, बाजार और नगर ही व्यापारिक पूँजीवाद की आधारशिला के लिए पर्याप्त हैं। चौथी बड़ी विशिष्टता यह है कि रामविलास शर्मा नवजागरण के हिंदी जातीय संदर्भ का उद्घाटन करने की प्रक्रिया के संदर्भ में वस्तुतः `रिनेसाँ` से लगातार एक दूरी बनाते चले गए। उन्होंने प्राच्यविद्यावाद को चुनौती देते हुए, लगभग हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में घोषित किया कि "भारत में अंग्रेज न आए होते तो भी सांस्कृतिक नवजागरण संभव था।" इस नवजागरण की पाँचवी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे पहले चरण में सामंत विरोधी और दूसरे चरण में सामंतवाद, साम्राज्यवाद विरोधी कहा गया। छठवीं सबसे बड़ी और अंतिम  विशेषता है कि हिंदी नवजागरण के पहले चरण में सामंतवाद, साम्राज्यवाद, पृथकतावाद, रीतिवाद, नस्लवाद और संकीर्ण जातीयतावाद का विरोध करते हुए भारतीय राष्ट्रीयता और संस्कृति के भीतर ही हिंदी जाति की परिकल्पना की गई। इसमें हिंदी और उर्दू दोनों को समान जगह दी गई।
यह सत्य है कि डॉ. रामविलास शर्मा का नवजागरण संबंधी विवेचन पूर्ण नही कहा जा सकता, क्योंकि इसमें अनेक बातों का स्पष्टीकरण नहीं है। सबसे पहली बात तो यही है कि भारतीय नवजागरण का हिंदी नवजागरण से स्पष्ट भेद नहीं है। दूसरी बात भारतीय नवजागरण के संदर्भ में हिंदी नवजागरण की दिशा और स्वरूप का स्पष्टीकरण नहीं किया गया। इसी प्रकार अन्य अनेक प्रश्न उठाए जा सकते हैं। इसके बावजूद, कर्मेंदु शिशिर ठीक ही लिखते हैं, “सवाल और भी उठाए जा सकते हैं और उठाए जाने चाहिए भी। मगर नवजागरण की मूल स्थापना को उलट कर अंग्रेजों की भूमिका को प्रगतिशील सिद्ध करना अथवा हिंदी नवजागरण के अस्तित्व को ही विवादग्रस्त करना उचित नहीं, लेकिन निहित उद्देश्योंवाले संदिग्ध मार्क्सवादियों का एक अच्छा-खासा वर्ग है जो भारत की सभ्यता, विकास, यहाँ तक कि आजादी का श्रेय भी अंग्रेजों को देने में शर्म मह्सूस नहीं करता।" (रामविलास शर्मा का हिंदी नवजागरण, कल के लिए,  जनवरी-मार्च, 2002) आज आवश्यकता है रामविलास शर्मा की इस मौलिक स्थापना को पूर्णता की ओर बढ़ाने की न कि इसे विवादग्रस्त बना कर खारिज करने या इसकी मौलिकता नष्ट करने की।
`हिंदी जाति की अवधारणा` भी डॉ. रामविलास शर्मा की एक मौलिक अवधारणा है। उनकी सभी स्थापनाओं में से यह स्थापना सर्वाधिक विवादग्रस्त रही है। अपनी इस स्थापना में वे जाति शब्द का प्रयोग  `नेशन` के अर्थ में करते हैं। इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग सबसे पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। उसके बाद कार्तिक प्रसाद व महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी किया, जिसकी चर्चा करते हुए रामविलास जी लिखते हैं, “हिंदी में तथा भारत की अन्य भाषाओं में जाति शब्द का पेशेवर बिरादरी (caste), नस्ल (race) और कौम (nationality) के लिए प्रयुक्त होता रहा है। कौम के लिए उसका प्रयोग अपक्षाकृत नया नहीं है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने `जातीय संगीत' नाम के निबंध में प्रदेशगत जाति के संगीत की चर्चा की थी, किसी पेशेवर बिरादरी के संगीत की नहीं। श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित जनवरी 1902 की 'सरस्वती' में कार्तिक प्रसाद के लेख का शीर्षक था - `महाराष्ट्रीय जाति का अभ्युदय`। जाति और साहित्य के संबंध में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1923 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में कहा था, `जिस जाति विशेष में साहित्य का अभाव या उसकी न्यूनता आपको दिखाई पड़े, आप यह निःसंदेह निश्चित समझिए कि वह जाति असभ्य किंवा अपूर्ण सभ्य है। जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका साहित्य भी ठीक वैसा ही होता है।" (हिंदी जाति का साहित्य, पृ. 15-16)
हिंदी को जाति के रूप में चर्चित करने का श्रेय डॉ. रामविलास शर्मा को ही जाता है। उनकी दृष्टि में मराठी, बँग्ला, उड़िया आदि जैसे जातियाँ हैं, वैसे ही `हिंदी जाति` है। हिंदी जाति उन सभी बोलियों को मिला कर निर्मित होती है, जिसे `हिंदी भाषी क्षेत्र` कहते हैं। रामविलास शर्मा अंग्रेजी के अध्यापक होते हुए भी अपना संपूर्ण जीवन इसी `हिंदी जाति` के उत्थान और इसकी सांस्कृतिक परंपरा को निर्मित करने के लिए लगा दिया। ये चाहते तो आज के अंग्रेजीदाँ लोगों की तरह अंग्रेजी में लेखन कार्य कर सकते थे, किंतु इन्होंने ऐसा नही किया।
आज धर्म, संप्रदाय, जाति आदि के नाम पर सर्वाधिक बँटा हुआ हिंदी भाषी क्षेत्र ही है। रामविलास जी ने इसे `हिंदी जाति` के रूप में संगठित करने के लिए जो प्रयास किया, निश्चय ही वह आधुनिक भारत की मजबूती के लिए कारगर साबित हो सकती है। यद्यपि अनेक विद्वान इस पर शंका प्रकट करते हैं, जैसा कि रामचंद्र तिवारी लिखते हैं, “जैसे बाँग्ला जाति की भावना को ऊपर करने से धर्म, संप्रदाय आदि के भेद बंगाल में दब गए हैं, वैसे ही `हिंदी जाति` की भावना को ऊपर करने से हिंदी प्रदेश में भी धर्म और संप्रदाय का भेद दब जाएगा। हिंदी जाति के भीतर वे `उर्दू` को भी समाविष्ट करते हैं। उनकी यह स्थापना आज के माहौल को देखते हुए कम से कम हिंदी प्रदेश में व्यावहारिक प्रतीत नही होती । उर्दू भाषी अपने को `हिंदी जाति` के अंतर्गत स्वीकार नहीं करते। स्वयं मार्क्सवादियों में इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं था। इसलिए चिंतन के स्तर पर `हिंदी जाति` की अवधारणा चाहे जितनी उपयोगी लगे, व्यवहार में इसकी चरितार्थता संदिग्ध है।" (कल के लिए, अप्रैल-जून,2002, पृ.28)।” ऐसी शंका करनेवाले विचारक शायद 1857 के पहले की स्थिति को भूल जाते हैं, जब न तो हिंदी और उर्दू का कोई सांप्रदायिक लगाव था और न ही हिंदी-उर्दू का विवाद। यह तो इस क्षेत्र को विभाजित करने की अंगेजों की रणनीति थी, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का षड्यंत्र था, क्योंकि इसी क्षेत्र से 1857 में उन्हें सर्वाधिक चुनौती मिली थी। इस क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा की आजादी के बाद इस अलगाव को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
डॉ. रामविलास शर्मा के जातीयता संबंधी चिंतन में कहीं भी संकीर्णता दिखाई नहीं पड़ती है। जातीय संवेदना को उभार कर समाज को कितना गुमराह किया जा सकता है, रामविलास जी इसके प्रति सचे़त दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए वे हिंदी और उर्दू को बोल-चाल के स्तर पर एक भाषा मानते हुए भी उर्दू लिपि की रक्षा की आवश्यकता पर पूरा बल देते हैं। वे हिंदी को हिंदुत्व और उर्दू को इस्लाम से जोड़े जाने का लगातार विरोध करते रहे। इस संदर्भ में भगवान सिंह का कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं, “उर्दू अपने साहित्य के कारण भारतीय समाज में एक ऐसा स्थान बना चुकी है कि इसके साहित्य की उपेक्षा संभव नहीं। हिंदी कवि स्वयं उर्दू के लोकप्रिय छंदों में लिखने की लालसा रखते हैं और जिन्हें किंचित सफलता मिलती है, वे इसे अपने लिए गौरव की बात मानते हैं। पर साहित्यिक भाषा के रूप में भी इसका हिंदी से उतना अंतर नहीं है; जितना हिंदी क्षेत्र की बोलियों का स्वयं हिंदी से।" (कल के लिए,  जनवरी-मार्च, 2002, पृ. 53) हिंदी का अस्तित्व ही उर्दू सहित उसकी विभिन्न बोलियों से बनता है, इसलिए हमें उसकी विभिन्न बोलियों तथा उर्दू के विकास के साथ-साथ एक मानक हिंदी तथा हिंदी जाति को बढावा देना चाहिए।
डॉ. रामविलास शर्मा जिस हिंदी संस्कृति की चर्चा करते हैं उसका निर्माण केवल हिंदुओं ने नहीं किया है। इस संस्कृति के निर्माण में हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, सिख आदि अनेक धर्मावलंबियों का, समाज के अनेक वर्गों का योगदान रहा है। रामविलास जी की हिंदी जाति की अवधारणा के पीछे उनका गहन अध्ययन है। अजय तिवारी के शब्दों में, “हिंदी समाज व्यापक दरिद्रता का गढ़ है। जैसे-जैसे यह समाज शिक्षित होगा, जैसे-जैसे यह समाज अपना भाग्य बदलने के लिए संघर्ष करेगा, वैस-वैसे रामविलास जी का महत्व बढ़ता जायेगा। उस संघर्ष का आधार अपनी सांस्कृतिक अहचान और अपनी वर्गीय एकता होगी। रामविलास इसी बात के लिए लड़े थे।" (कल के लिए,  अप्रैल-जून, 2002, पृ. 28)
डॉ. रामविलास शर्मा ने कोई परंपरागत `हिंदी साहित्य का इतिहास` नही लिखा और न ही वे मूलतः हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक थे। लेकिन अपनी अलग-अलग पुस्तकों में उन्होंने हिंदी साहित्य के बारे में जो भी लिखा है, उससे उनकी मौलिक स्थापनाओं का साफ पता चलता है। इस दिशा में इनका महत्वपूर्ण योगदान यह है कि ये हिंदी साहित्य के इतिहास की परंपरा की तलाश करते हुए वेदों तक गए और जो साहित्य उपनिवेशवादी अवधारणा का शिकार था, हर तरह से पश्चिम का ऋणी माना जाता था, उसे उसके मूल से जोड़ने का प्रयास किया। इसके केंद्र में भारतीय दृष्टिकोण को विकसित व स्थापित करने तथा हिंदी साहित्य एवं संस्कृति की एक परंपरा को निर्मित करने की चिंता है।

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