Sunday, 16 August 2015

जयप्रकाश त्रिपाठी

इस क्रूर-अबूझ कोलाहल में मन कैसे-कैसे रंग ओढ़ने लगता है.....
ऊंची-ऊंची लहरों से ढंके गहरे-गहरे समुद्र, ऊपर-और-ऊर बिछा-बिछा सा अंतहीन आकाश और भांति-भांति की पंछी-उड़ानें....
कि बस, इन सब से ही बोलते-बतियाते रहें, आंधियों की तरह उठें अक्सर और दूर-दूर तक फैले जंगलों को झकझोरते हुए बांहों में भर लें बस्तियां, नगर, गांव-गांव...
दिशाएं जहां तक ले जाए वक्त की उंगलियां थामे-थामे...
अजायब घर होती जा रही अपनी दुनिया से कुछ देर बाहर रहें, और जाने-समझें और ठीक से पहचानें कि वे कौन हैं, क्या चाहते हैं, क्यों इस तरह उन सब ने इतनी खूबसूरत इंसानियत को जिबह कर डाला है, आखिर मंशा क्या है उनकी...
क्या उन बहेलियों को ठोर-ठोर घोसलों की खिड़कियों से चोंच-चोंच चहचहाती, दाने चुगती, टहनियां झकझोरती और पंखों में आकाश भर लेने के लिए बेताब चिड़ियों की आंखों से प्यार नहीं....
प्यासी पृथ्वी और मनुष्यता को संतृप्त कर देने वाले बादलों से, बारिश से बातें करना क्या उन्हें जरा भी नहीं सुहाता...
सबके हिस्से के सुख बांटती धूप से, उजाले से, क्षितिज से, सुबहों-शामों, दोपहरों और रातों से, निरभ्र-नीले वितान के ओर-छोर और गहन तारा कुंज-निकुंजों से कोई हमदर्दी नहीं...
आखिर क्या किया जाना चाहिए पत्तियों के थरथराने पर तालियां बजाकर झूम उठते इन बहेलियों का, जन-गण-मन के सपनों के लुटेरों का.....

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