ऐसे में मीडिया का ये शोषित वर्ग श्रमकानूनों को रौंदकर मालदार होते जा रहे मालिकों और उनकी दलाल मंडलियों से मामूली सांस्थानिक बातों पर भी खुद को जिरह के काबिल नहीं पाता है। एक-एक मीडियाकर्मी अपने संस्थानों में अलग-थलग पड़ गया है। बड़े-बड़े विचार हांकने वाले संपादकनुमा 'दोमुंहे' उनसे कोरे कागजों पर हस्ताक्षर कराते डोल रहे हैं कि 'मुझे मजीठिया वेतनमान नहीं चाहिए अथवा मुझे तो पहले से उस वेतनमान से अधिक पैसा मिल रहा है।' मैंने तो ऐसे भी तत्व देखे हैं, जो ऐसे मौकों तक का फायदा उठाने पर आमादा रहते हैं कि परोक्ष-प्रकट तौर पर कोई मीडियाकर्मी ईमानदारी से अपनी बात कहीं रख रहा हो, वे अपनी योग्यता पर भरोसा करने की बजाए भेदिये की तरह उन बातों को मीडिया मालिकों और उनकी दलाल मंडलियों के कानों तक पहुंचाकर इंक्रिमेंट और प्रमोशन की इमदाद पाना चाहते हैं।
इसलिए आज मीडिया संस्थानों में शोषित पत्रकारों की जुबान पर ताले जड़े हुए हैं। इसलिए आज मीडिया में खबरों के पीछे की खबरें दहला रही हैं। जब इन दिनों पत्रकारों के मुश्किल हालात की विचलित कर देने वाली सूचनाएं पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं। लेकिन ये स्थितियां हमारे समय के मीडिया का कोई अंतिम सच नहीं। रास्ते हैं। कई-कई रास्ते हैं। कई तरह के रास्ते हैं। जरूरत है तो सिर्फ अपने भीतर के लालची और सुविधाजीवी मनुष्य को समझा-बुझाकर रास्ते पर ले आने की। वही आखिरी रास्ता है, उपाय है, इस धुंआकश से बाहर निकलने का। और कोई जतन नहीं। माखनलाल चतुर्वेदी के इन शब्दों के साथ - 'उठ महान, तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!'
इसलिए आज मीडिया संस्थानों में शोषित पत्रकारों की जुबान पर ताले जड़े हुए हैं। इसलिए आज मीडिया में खबरों के पीछे की खबरें दहला रही हैं। जब इन दिनों पत्रकारों के मुश्किल हालात की विचलित कर देने वाली सूचनाएं पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं। लेकिन ये स्थितियां हमारे समय के मीडिया का कोई अंतिम सच नहीं। रास्ते हैं। कई-कई रास्ते हैं। कई तरह के रास्ते हैं। जरूरत है तो सिर्फ अपने भीतर के लालची और सुविधाजीवी मनुष्य को समझा-बुझाकर रास्ते पर ले आने की। वही आखिरी रास्ता है, उपाय है, इस धुंआकश से बाहर निकलने का। और कोई जतन नहीं। माखनलाल चतुर्वेदी के इन शब्दों के साथ - 'उठ महान, तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!'
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