मुझे नहीं मालूम था कि उस दिन बाबा नागार्जुन लूजमोशन से लस्त-पस्त से हो रहे थे। अस्सी के दशक में जयपुर (राजस्थान) में प्रगतिशील लेखक सम्मेलन का वह दूसरा दिन था। बड़े भाई शिवमूर्ति (कथाकार) के साथ मैं भी वहां जा पहुंचा था। मुझे अपनी पड़ी थी। वहां जाने से कुछ रोज पहले ही कमला सांकृत्यायन द्वारा संपादित महापंडित राहुल सांकृत्यायन पर पुस्तक पढ़ चुका था, जिसमें उनके जीवन के कई अछूते प्रसंग उदघाटित थे। उस पुस्तक से ही पता चला था कि कमला सांकृत्यायन मसूरी की हैप्पी वैली में उन दिनो रहती थीं। मुझे बस इसी जानकारी को पुख्ता कर लेना था ताकि किसी तरह वहां पहुंच कर कम से कम एक बार उनसे मिल सकूं। जिज्ञासा इसलिए भी बेतरह जोर मार रही थी कि छात्र जीवन में राहुल जी के गांव के ही मेरे कक्षाध्यापक थे पारसनाथ पांडेय। राहुलजी का गांव मेरे गांव से तीन-चार कोस की दूरी पर था। पारसनाथ पांडेय ने राहुल जी के बारे में ढेर सारे ऐसे संस्मण सुनाते रहे थे, जो किताबों में नहीं हैं। कभी समय मिला तो विस्तार से लिखना चाहूंगा।
तो उस दिन जयपुर में जिस धर्मशालानुमा ठिकाने पर बाबा नागार्जुन आदि ठहरे थे, बगल के कमरे में महाकवि त्रिलोचन के साथ बातचीत का अवसर मिल गया। अन्य बातों के साथ मैंने अपनी जोर मारती हैप्पी वाली जिज्ञासा भी त्रिलोचन जी के सामने व्यक्त कर दी। उन्होंने पहले तो इधर उधर देखा कि कोई सुन न ले, फिर बड़ी सावधानी से मेरे कान में कूक दिया कि बाबा को पकड़ लो, उन्हें सब मालूम है। हिदायत भी दे गये कि डरना मत, साफ साफ पूछ लेना। त्रिलोचन जी के इस अप्रत्याशित सहयोग राज भी मुझे बाद में पता चल गया था, जिसे यहां लिखना ठीक न होगा।
खैर, त्रिलोचन जी के कहे अनुसार मैंने उस कमरे के दरवाजे पर निगाह गड़ा दी, जिसमें बाबा नागार्जुन ठहरे हुए थे। एक मिनट बाद बाद वह जोर जोर से कुछ बड़बड़ाते हुए सफेद गमछा पहने कमरे से बाहर बरामदे में आ गये। मैं तेजी से लपका और तपाक से बाबा से पूछ बैठा- 'क्या कमला जी हैप्पी वैली में ही रहती हैं?' बाबा ने प्रतिप्रश्न कर दिया - 'कौन कमला?' मैंने कहा- कमला सांकृत्यायनजी।
इसके बाद तो बाबा बम की तरह फट पड़े मुझ पर। 'मैं नहीं जानता किसी कमला-समला को, और तुम कौन हो, कहां से आये हो। चलो हटो इधर से...।' और बाबा पुनः कमरे में लौट कर बाथरूम में चले गये। मैं हक्काबक्का अपना-सा मुंह लिए उस कमरे में घुस गया, जिसमें त्रिलोचन जी कुछ लोगों के साथ हंसी-ठट्ठा कर रहे थे। मुझे खिन्नमना देखते ही अनभिज्ञ-से फिर बातों में मशगूल हो लिये। मैं भी ताड़ गया। ठान लिया, अब त्रिलोचनजी से नागार्जुन की नाराजगी का रहस्य जानकर ही रहूंगा। वहीं बगल में बैठ गया मौके की ताक में। दो-तीन मिनट बाद त्रिलोचन जी उठ कर जाने लगे। मैं भी पीछे पीछे हो लिया। बाहर निकलते ही उन्हे अकेला पाकर जब उन्हें मैंने बाबा की खीझ की बात बतायी तो वह जोर जोर से हंसने लगे। मैं कभी उनके चेहरे, कभी उनके (पेट पर) पैबंद लगे कुर्ते को देखकर 'नरभसाने'(शरद जोशी से क्षमा सहित) लगा। फिर त्रिलोचन जी सविस्तार बताया कि बाबा नाराज क्यों हो गये थे। (लेकिन मैं नहीं बता सकता, क्योंकि बात बड़ी ऐसी-वैसी है)......
तो उस दिन जयपुर में जिस धर्मशालानुमा ठिकाने पर बाबा नागार्जुन आदि ठहरे थे, बगल के कमरे में महाकवि त्रिलोचन के साथ बातचीत का अवसर मिल गया। अन्य बातों के साथ मैंने अपनी जोर मारती हैप्पी वाली जिज्ञासा भी त्रिलोचन जी के सामने व्यक्त कर दी। उन्होंने पहले तो इधर उधर देखा कि कोई सुन न ले, फिर बड़ी सावधानी से मेरे कान में कूक दिया कि बाबा को पकड़ लो, उन्हें सब मालूम है। हिदायत भी दे गये कि डरना मत, साफ साफ पूछ लेना। त्रिलोचन जी के इस अप्रत्याशित सहयोग राज भी मुझे बाद में पता चल गया था, जिसे यहां लिखना ठीक न होगा।
खैर, त्रिलोचन जी के कहे अनुसार मैंने उस कमरे के दरवाजे पर निगाह गड़ा दी, जिसमें बाबा नागार्जुन ठहरे हुए थे। एक मिनट बाद बाद वह जोर जोर से कुछ बड़बड़ाते हुए सफेद गमछा पहने कमरे से बाहर बरामदे में आ गये। मैं तेजी से लपका और तपाक से बाबा से पूछ बैठा- 'क्या कमला जी हैप्पी वैली में ही रहती हैं?' बाबा ने प्रतिप्रश्न कर दिया - 'कौन कमला?' मैंने कहा- कमला सांकृत्यायनजी।
इसके बाद तो बाबा बम की तरह फट पड़े मुझ पर। 'मैं नहीं जानता किसी कमला-समला को, और तुम कौन हो, कहां से आये हो। चलो हटो इधर से...।' और बाबा पुनः कमरे में लौट कर बाथरूम में चले गये। मैं हक्काबक्का अपना-सा मुंह लिए उस कमरे में घुस गया, जिसमें त्रिलोचन जी कुछ लोगों के साथ हंसी-ठट्ठा कर रहे थे। मुझे खिन्नमना देखते ही अनभिज्ञ-से फिर बातों में मशगूल हो लिये। मैं भी ताड़ गया। ठान लिया, अब त्रिलोचनजी से नागार्जुन की नाराजगी का रहस्य जानकर ही रहूंगा। वहीं बगल में बैठ गया मौके की ताक में। दो-तीन मिनट बाद त्रिलोचन जी उठ कर जाने लगे। मैं भी पीछे पीछे हो लिया। बाहर निकलते ही उन्हे अकेला पाकर जब उन्हें मैंने बाबा की खीझ की बात बतायी तो वह जोर जोर से हंसने लगे। मैं कभी उनके चेहरे, कभी उनके (पेट पर) पैबंद लगे कुर्ते को देखकर 'नरभसाने'(शरद जोशी से क्षमा सहित) लगा। फिर त्रिलोचन जी सविस्तार बताया कि बाबा नाराज क्यों हो गये थे। (लेकिन मैं नहीं बता सकता, क्योंकि बात बड़ी ऐसी-वैसी है)......
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