'नसीब सिंह, नसीब सिंह कहाँ जा रिये हो, जरा दम तो ले लो, जहाँ जा रिये हो...' अजित वडनेरकर 'राग भोपाली' और ‘शब्दों का सफर’ नाम से फेसबुक पर हैं। उनका ब्लॉग भी है- shabdavali.blogspot.in वह कहते हैं- ‘ शब्दों के जन्मसूत्रों को तलाशने की मुझे धुन है। ज़िद की हद तक मैं रोज़ इनके पीछे भागता हूँ। इसे जुनून समझ सकते हैं। यह शौक बीते क़रीब तीस साल से है। मैंने १९८५ से आजीविका कमानी शुरू की। इस शौक से जुड़ी सामग्री, ज़ाहिर है वह किताबों की शक्ल में ही थी, जुटानी शुरू की। संवाद माध्यम के रूप में भाषा का इस्तेमाल करने के बावजूद भाषा को अध्ययन के स्तर पर, कठिन विषय समझा जाता है। २००५ में दैनिक भास्कर में साप्ताहिक कॉलम के रूप से शब्दों का सफ़र शुरू हुआ। २००६ तक मुझे लगने लगा था कि लोगों को यह अंदाज़ पसंद आ रहा है और मैंने उसी वर्ष इसी नाम से ब्लॉग शुरू कर दिया।’
अजित वाडनेकर को हिंदी ब्लॉग लेखन जगत का पाणिनी भी कहा जाता है। अत्यंत श्रमसाध्य उनके शब्दों के सफर से हिंदी साहित्य जगत ही नहीं, विशाल पाठक वर्ग भी सुपरिचत है। कैसा है उनका, शब्दों का सफर, जरा एक ताजा बानगी देखिए---
बराक साहब तो लौट गए और भारत सरकार में अब 'मुबारकाँ-मुबारकाँ' का दौर है। दरअसल बराक नाम में ही 'मुबारक' छुपा हुआ है। बराक शब्द मूल रूप से स्वाहिली का नहीं बल्कि अरबी का है। अरबी में यह हिब्रू से आया या नहीं इस विवाद में न पड़ते हुए यही कहा जा सकता है कि स्वाहिली में यह ज़रूर अरबी से गया है। अरबी al-baraka (या al-barack) बना है सेमिटिक धातु b-r-k (बा-रा-काफ) से जिसका अर्थ होता है आशीर्वाद देना, प्रशंसा करना, उपकृत करना, धन्य करना आदि। अरबी के अलावा हिब्रू में भी यह धातु है। समृद्धि, वृद्धि या खुशहाली के अर्थ में हिन्दी में इसी मूल से बना 'बरक्कत' शब्द प्रचलित है। मांगलिक अवसरों पर शुभकामना देने के लिए अक्सर मुबारकबाद दी जाती है। यह 'मुबारक' भी इसी मूल से आ रहा है और बराक में 'मु' उपसर्ग लगने से बना है। जाहिर है 'बराक' का अर्थ हुआ शक्तिशाली, विशिष्ट, मांगलिक, समृद्ध आदि। इस नाम के महत्व को विश्व में इस महाशक्ति की विशिष्ट भूमिका के संदर्भ में देखें तो 'अल-बराक' का सजातीय 'ब्रोकर' और भी अर्थवान नज़र आता है। दुनियाभर के इस स्वयंभू पंच की सौदागरी को ध्यान में रख कर आप मध्यस्थ, दलाल, ब्रोकर या डीलर क्या कहना चाहेंगे?
उपन्यास, कहानी, शब्द-व्युत्पत्ति-विवेचना, आलोचना आदि विविध विधाओं में रचनारत अजित वाडनेकर पेशे से पत्रकार हैं। उनकी मुख्य कृतियों में एक है, दो खंडों में शब्दों का सफर। उन्होंने शानी के साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखा है। वह कृति पाण्डुलिपि पुरस्कार, विद्यानिवास मिश्र-हिंदी की शब्द-संपदा सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं।
उनकी खोजपरक शब्द-यात्रा की एक और बानगी / ‘हवा, पानी और टंकण’
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इनसान ने अब तक ज्यादातर ज्ञान प्रकृति से ही सीखा है। भाषाविज्ञान के नजरिए से इसे आसानी से समझा जा सकता है। इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के साथ-साथ द्रविड़ भाषा परिवार के कई शब्दों से यह बात साफ हो जाती है। गति और प्रवाह संबंधी ज्यादातर शब्दों में अंतर्संबंध है और इनका उद्गम भी एक ही है और वे हैं हवा और पानी। प्रकृति की इन दोनों शक्तियों के गति और प्रवाह जैसे लक्षणों ने मानव स्मृति पर ऐसा असर डाला कि भाषा का जन्म होने के बाद इनके कई अर्थ प्रकट हुए।
इंडो-यूरोपीय भाषाओं में वः वायु और जल दोनों से संबंधित है और इससे कई शब्द बने हैं जिनसे प्रवाह, गति जैसे अर्थ उजागर होते हैं। संस्कृत मेंवः का अर्थ होता है वायु। हिन्दी का हवा शब्द इससे ही जन्मा है। (अलबत्ता वः यानी वह केहवा बनने में वर्णविपर्यय का सिद्धांत लागू हो रहा है।) संस्कृत का एक अन्य शब्द है वह् जिसका मतलब हुआ प्रवाह । बहाव, बहना, बहकना जैसे शब्दों का मूल भी यही है। वह् से ही बना संस्कृत का वात् जिसका अर्थ भी हवा ही होता है। वात् से बना वार्, जिसका एक रूप अंग्रेजी के एअर में नजर आता है। मराठी में भी हवा को वारं ही कहा जाता है। हिन्दी में मंद हवा के झोंके को बयार कहते हैं। संस्कृत वात् से रूसी भाषा के वेतेरयानी (हवा) की समानता पर गौर करें। वह् के प्रवाही अर्थ से ही जलसूचक शब्द वार जन्मा है। वरुण भी इससे ही बना है जिसका अर्थ समुद्र देव है। अब जरा गौर करें जर्मन के व्हासर , ग्रीक के हुदौर और अंग्रेजी के वाटर पर। इन सभी का मतलब होता है पानी। रूसी में पानी के लिए वोद शब्द है। विश्वप्रसिद्ध रूसी शराब वोदका का नामकरण इससे ही हुआ है। यही नहीं, अंग्रेजी के वेट यानी गीला, नम या भीगा शब्द में भी यही वह् मौजूद है। पसीने के लिए अंग्रेजी के स्वेट, हिन्दी शब्द स्वेद और नमी, गीलेपन के लिए आर्द्र जैसे शब्दों की समानता सहज ही स्पष्ट है।
ट का-सा जवाब देना, टाँग खींचना या टाँग अड़ाना जैसे मुहावरे आम तौर पर बोलचाल की हिन्दी में प्रचलित हैं। इन मुहावरों में टका और टाँग जैसे शब्द संस्कृत के मूल शब्द टङ्कः (टंक:) से बने हैं। संस्कृत में टङ्कः का अर्थ है बाँधना, छीलना, जोड़ना, कुरेदना या तराशना। हिन्दी के टंकण या टाँकना जैसे शब्द भी इससे ही निकले है। दरअसल, टका या टंका शब्द का मतलब है चार माशे का एक तौल या इसी वजन का चाँदी का सिक्का। अंग्रेजों के जमाने में भारत में दो पैसे के सिक्के को टका कहते थे। आधा छँटाक की तौल भी टका ही कहलाती थी। पुराने जमाने में मुद्रा को ढालने की तरकीब ईजाद नहीं हुई थी तब धातु के टुकड़ों पर सरकारी चिह्न की खुदाई यानी टंकण किया जाता था। गौरतलब है कि दुनिया भर में ढलाई के जरिए सिक्के बनाने की ईजाद लीडिया के मशहूर शासक (ई.पू. करीब छह सदी) क्रोशस उर्फ कारूँ (खजानेवाला) ने की थी। टका या टंका किसी जमाने में भारत में प्रचलित था मगर अब मुद्रा के रूप में इसका प्रयोग नहीं होता। कहावतों-मुहावरों में यह जरूर मिल जाता है। किसी बात के जवाब में दो टूक यानी सिर्फ दो लफ्जों में साफ इन्कार करने के लिए यह कहावत चल पड़ी - टका-सा जवाब। टके की दो पैसों की कीमत को लेकर और भी कई कहावतों ने जन्म लिया। मसलन टका-सा मुँह लेकर रह जाना, टके को भी न पूछना, टके-टके को मोहताज होना, टके-टके के लिए तरसना, टका पास न होना, वगैरह-वगैरह। भारत में चाहे टके को अब कोई टके सेर भी नहीं पूछता, मगर बाँग्लादेश की सरकारी मुद्रा के रूप में टका आज भी डटा हुआ है। बाँग्लादेश के अलावा कई देशों में यह लफ्ज तमगा, तंका, तेंगे या तंगा के नाम से चल रहा है जैसे ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और मंगोलिया। इन सभी देशों में यह मुद्रा के रूप में ही है, हालाँकि वहाँ इस शब्द की उत्पत्ति चीनी शब्द तेंगसे से मानी जाती है जिसका अर्थ होता है मुद्रित सिक्का और एक तरह की माप या संतुलन। अर्थ की समानता से जाहिर है कि तेंगसे शब्द भी टङ्कः का ही रूप है। टंका से ही चला टकसाल शब्द अर्थात टंकणशाला यानी जहाँ सिक्कों की ढलाई होती है।
अब आते हैं टङ्कः के दूसरे अर्थों पर । इसका एक मतलब होता है लात या पैर। संस्कृत में इसके लिए टङ्गा शब्द भी है। हिन्दी का टाँग शब्द इसी से बना है। गौर करें, टङ्कः के जोड़वाले अर्थ पर। चूँकि टाँग में घुटना और एड़ी जैसे जोड़ होते हैं, इसलिए इसे कहा गया टाँग।
इसी अर्थ से जुड़ता है इससे बना शब्द टखना । जोड़ या संधि की वजह से ही इसे यह अर्थ मिला होगा। इसी तरह, वस्त्र फट जाने पर, गहना टूट जाने पर, बरतन में छेद हो जाने पर उसे टाँका लगा कर फिर कामचलाऊ बनाने का प्रचलन रहा है। यह जो टाँका है वह भी इस टङ्कः से आ रहा है अर्थात इसमें जोड़ का भाव निहित है। टङ्कः का एक और अर्थ है बाँधना। गौर करें कि धनुष की कमान से जो डोरी बँधी होती है उसे खींचने पर एक खास ध्वनि होती है जिसेटंकार कहते हैं। यह टंकार बना है संस्कृत के टङ्कारिन् से जिसका मूल भी टङ्कः है यानी बाँधने के अर्थ में। तुर्की भाषा का एक शब्द है तमग़ा जो हिन्दी-उर्दू-फारसी में खूब प्रचलित है यानी ईनाम में दिया जानेवाला पदक या शील्ड। प्राचीन समय में चूँकि यह राजा या सुल्तान की तरफ से दिया जाता था, इसलिए इस पर शाही मुहर अंकित की जाती थी। इस तरह तमगा का अर्थ हुआ शाही मुहर या राजचिह्न। अब इस शब्द के असली अर्थ पर विचार करें तो साफ होता है कि यह शब्द भी टंकण से जुड़ा हुआ है।
अजित वाडनेकर को हिंदी ब्लॉग लेखन जगत का पाणिनी भी कहा जाता है। अत्यंत श्रमसाध्य उनके शब्दों के सफर से हिंदी साहित्य जगत ही नहीं, विशाल पाठक वर्ग भी सुपरिचत है। कैसा है उनका, शब्दों का सफर, जरा एक ताजा बानगी देखिए---
बराक साहब तो लौट गए और भारत सरकार में अब 'मुबारकाँ-मुबारकाँ' का दौर है। दरअसल बराक नाम में ही 'मुबारक' छुपा हुआ है। बराक शब्द मूल रूप से स्वाहिली का नहीं बल्कि अरबी का है। अरबी में यह हिब्रू से आया या नहीं इस विवाद में न पड़ते हुए यही कहा जा सकता है कि स्वाहिली में यह ज़रूर अरबी से गया है। अरबी al-baraka (या al-barack) बना है सेमिटिक धातु b-r-k (बा-रा-काफ) से जिसका अर्थ होता है आशीर्वाद देना, प्रशंसा करना, उपकृत करना, धन्य करना आदि। अरबी के अलावा हिब्रू में भी यह धातु है। समृद्धि, वृद्धि या खुशहाली के अर्थ में हिन्दी में इसी मूल से बना 'बरक्कत' शब्द प्रचलित है। मांगलिक अवसरों पर शुभकामना देने के लिए अक्सर मुबारकबाद दी जाती है। यह 'मुबारक' भी इसी मूल से आ रहा है और बराक में 'मु' उपसर्ग लगने से बना है। जाहिर है 'बराक' का अर्थ हुआ शक्तिशाली, विशिष्ट, मांगलिक, समृद्ध आदि। इस नाम के महत्व को विश्व में इस महाशक्ति की विशिष्ट भूमिका के संदर्भ में देखें तो 'अल-बराक' का सजातीय 'ब्रोकर' और भी अर्थवान नज़र आता है। दुनियाभर के इस स्वयंभू पंच की सौदागरी को ध्यान में रख कर आप मध्यस्थ, दलाल, ब्रोकर या डीलर क्या कहना चाहेंगे?
उपन्यास, कहानी, शब्द-व्युत्पत्ति-विवेचना, आलोचना आदि विविध विधाओं में रचनारत अजित वाडनेकर पेशे से पत्रकार हैं। उनकी मुख्य कृतियों में एक है, दो खंडों में शब्दों का सफर। उन्होंने शानी के साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखा है। वह कृति पाण्डुलिपि पुरस्कार, विद्यानिवास मिश्र-हिंदी की शब्द-संपदा सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं।
उनकी खोजपरक शब्द-यात्रा की एक और बानगी / ‘हवा, पानी और टंकण’
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इनसान ने अब तक ज्यादातर ज्ञान प्रकृति से ही सीखा है। भाषाविज्ञान के नजरिए से इसे आसानी से समझा जा सकता है। इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के साथ-साथ द्रविड़ भाषा परिवार के कई शब्दों से यह बात साफ हो जाती है। गति और प्रवाह संबंधी ज्यादातर शब्दों में अंतर्संबंध है और इनका उद्गम भी एक ही है और वे हैं हवा और पानी। प्रकृति की इन दोनों शक्तियों के गति और प्रवाह जैसे लक्षणों ने मानव स्मृति पर ऐसा असर डाला कि भाषा का जन्म होने के बाद इनके कई अर्थ प्रकट हुए।
इंडो-यूरोपीय भाषाओं में वः वायु और जल दोनों से संबंधित है और इससे कई शब्द बने हैं जिनसे प्रवाह, गति जैसे अर्थ उजागर होते हैं। संस्कृत मेंवः का अर्थ होता है वायु। हिन्दी का हवा शब्द इससे ही जन्मा है। (अलबत्ता वः यानी वह केहवा बनने में वर्णविपर्यय का सिद्धांत लागू हो रहा है।) संस्कृत का एक अन्य शब्द है वह् जिसका मतलब हुआ प्रवाह । बहाव, बहना, बहकना जैसे शब्दों का मूल भी यही है। वह् से ही बना संस्कृत का वात् जिसका अर्थ भी हवा ही होता है। वात् से बना वार्, जिसका एक रूप अंग्रेजी के एअर में नजर आता है। मराठी में भी हवा को वारं ही कहा जाता है। हिन्दी में मंद हवा के झोंके को बयार कहते हैं। संस्कृत वात् से रूसी भाषा के वेतेरयानी (हवा) की समानता पर गौर करें। वह् के प्रवाही अर्थ से ही जलसूचक शब्द वार जन्मा है। वरुण भी इससे ही बना है जिसका अर्थ समुद्र देव है। अब जरा गौर करें जर्मन के व्हासर , ग्रीक के हुदौर और अंग्रेजी के वाटर पर। इन सभी का मतलब होता है पानी। रूसी में पानी के लिए वोद शब्द है। विश्वप्रसिद्ध रूसी शराब वोदका का नामकरण इससे ही हुआ है। यही नहीं, अंग्रेजी के वेट यानी गीला, नम या भीगा शब्द में भी यही वह् मौजूद है। पसीने के लिए अंग्रेजी के स्वेट, हिन्दी शब्द स्वेद और नमी, गीलेपन के लिए आर्द्र जैसे शब्दों की समानता सहज ही स्पष्ट है।
ट का-सा जवाब देना, टाँग खींचना या टाँग अड़ाना जैसे मुहावरे आम तौर पर बोलचाल की हिन्दी में प्रचलित हैं। इन मुहावरों में टका और टाँग जैसे शब्द संस्कृत के मूल शब्द टङ्कः (टंक:) से बने हैं। संस्कृत में टङ्कः का अर्थ है बाँधना, छीलना, जोड़ना, कुरेदना या तराशना। हिन्दी के टंकण या टाँकना जैसे शब्द भी इससे ही निकले है। दरअसल, टका या टंका शब्द का मतलब है चार माशे का एक तौल या इसी वजन का चाँदी का सिक्का। अंग्रेजों के जमाने में भारत में दो पैसे के सिक्के को टका कहते थे। आधा छँटाक की तौल भी टका ही कहलाती थी। पुराने जमाने में मुद्रा को ढालने की तरकीब ईजाद नहीं हुई थी तब धातु के टुकड़ों पर सरकारी चिह्न की खुदाई यानी टंकण किया जाता था। गौरतलब है कि दुनिया भर में ढलाई के जरिए सिक्के बनाने की ईजाद लीडिया के मशहूर शासक (ई.पू. करीब छह सदी) क्रोशस उर्फ कारूँ (खजानेवाला) ने की थी। टका या टंका किसी जमाने में भारत में प्रचलित था मगर अब मुद्रा के रूप में इसका प्रयोग नहीं होता। कहावतों-मुहावरों में यह जरूर मिल जाता है। किसी बात के जवाब में दो टूक यानी सिर्फ दो लफ्जों में साफ इन्कार करने के लिए यह कहावत चल पड़ी - टका-सा जवाब। टके की दो पैसों की कीमत को लेकर और भी कई कहावतों ने जन्म लिया। मसलन टका-सा मुँह लेकर रह जाना, टके को भी न पूछना, टके-टके को मोहताज होना, टके-टके के लिए तरसना, टका पास न होना, वगैरह-वगैरह। भारत में चाहे टके को अब कोई टके सेर भी नहीं पूछता, मगर बाँग्लादेश की सरकारी मुद्रा के रूप में टका आज भी डटा हुआ है। बाँग्लादेश के अलावा कई देशों में यह लफ्ज तमगा, तंका, तेंगे या तंगा के नाम से चल रहा है जैसे ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और मंगोलिया। इन सभी देशों में यह मुद्रा के रूप में ही है, हालाँकि वहाँ इस शब्द की उत्पत्ति चीनी शब्द तेंगसे से मानी जाती है जिसका अर्थ होता है मुद्रित सिक्का और एक तरह की माप या संतुलन। अर्थ की समानता से जाहिर है कि तेंगसे शब्द भी टङ्कः का ही रूप है। टंका से ही चला टकसाल शब्द अर्थात टंकणशाला यानी जहाँ सिक्कों की ढलाई होती है।
अब आते हैं टङ्कः के दूसरे अर्थों पर । इसका एक मतलब होता है लात या पैर। संस्कृत में इसके लिए टङ्गा शब्द भी है। हिन्दी का टाँग शब्द इसी से बना है। गौर करें, टङ्कः के जोड़वाले अर्थ पर। चूँकि टाँग में घुटना और एड़ी जैसे जोड़ होते हैं, इसलिए इसे कहा गया टाँग।
इसी अर्थ से जुड़ता है इससे बना शब्द टखना । जोड़ या संधि की वजह से ही इसे यह अर्थ मिला होगा। इसी तरह, वस्त्र फट जाने पर, गहना टूट जाने पर, बरतन में छेद हो जाने पर उसे टाँका लगा कर फिर कामचलाऊ बनाने का प्रचलन रहा है। यह जो टाँका है वह भी इस टङ्कः से आ रहा है अर्थात इसमें जोड़ का भाव निहित है। टङ्कः का एक और अर्थ है बाँधना। गौर करें कि धनुष की कमान से जो डोरी बँधी होती है उसे खींचने पर एक खास ध्वनि होती है जिसेटंकार कहते हैं। यह टंकार बना है संस्कृत के टङ्कारिन् से जिसका मूल भी टङ्कः है यानी बाँधने के अर्थ में। तुर्की भाषा का एक शब्द है तमग़ा जो हिन्दी-उर्दू-फारसी में खूब प्रचलित है यानी ईनाम में दिया जानेवाला पदक या शील्ड। प्राचीन समय में चूँकि यह राजा या सुल्तान की तरफ से दिया जाता था, इसलिए इस पर शाही मुहर अंकित की जाती थी। इस तरह तमगा का अर्थ हुआ शाही मुहर या राजचिह्न। अब इस शब्द के असली अर्थ पर विचार करें तो साफ होता है कि यह शब्द भी टंकण से जुड़ा हुआ है।
बहुत आभार भाई :)
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