Saturday, 24 January 2015

पी. साइनाथ की 'परी': उम्‍मीद पर भी सवाल बनते हैं /अभिषेक श्रीवास्‍तव

बीते दस साल में अगर याद करें तो मुझे नहीं याद आता कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसे एक अपमार्केट अभिजात्‍य आयोजन स्‍थल पर किसी कार्यक्रम में पांच सौ के आसपास की भीड़ मैंने देखी या सुनी होगी। राजकमल प्रकाशन के सालाना आयोजन या किसी बड़े लेखक के बेटे-बेटी के रिसेप्‍शन समारोह को अगर न गिनें, तो सामाजिक-राजनीतिक विषय पर किसी वक्‍ता को सुनने के लिए यहां सौ श्रोता भी आ जाएं तो वह अधिकतम संख्‍या होती है। इसीलिए 5 जनवरी को नियत समय से सिर्फ पंद्रह मिनट की देरी से जब मैं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पहुंचा तो भीड़ को देखकर हतप्रभ हुए बिना नहीं रह सका। सभागार के भीतर इतने लोग थे कि दरवाज़ा खोलकर पैर रखना मुश्किल था। तब समझ में आया कि करीब दो दर्जन लोग बाहर क्‍यों मंडरा रहे थे। कार्यक्रम शुरू हो चुका था और ग्रामीण पत्रकारिता के लिए मशहूर व भारत में उसका तकरीबन पर्याय बन चुके पी. साइनाथ अपनी चिर-परिचित थॉमस फ्रीडमैन वाली शैली में मंच पर नमूदार थे। मौका था उनकी वेबसाइट पीपॅल्‍स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (परी) के बारे में उनके परिचयात्‍मक वक्‍तव्‍य का, जिसका लोकार्पण 20 दिसंबर, 2014 को किया जा चुका था।
साइनाथ जब-जब दिल्‍ली आए हैं, उन्‍हें सुनने के लिए लोग अपने आप उमड़ते आए हैं। बीते कुछ वर्षों में ऐसे दो मौकों का मैं गवाह रहा हूं- एक राजेंद्र भवन में और दूसरा कॉस्टिट्यूशन क्‍लब में। उनके बोलने और समझाने की शैली बड़ी दिलचस्‍प है। आंकड़े उनकी ज़बान पर चढ़े रहते हैं। व्‍यंग्‍य बिलकुल विक्‍टोरियाई शैली वाला संतुलित और बौद्धिक होता है। विषय हमेशा तकरीबन एक ही- गांव, किसान, पलायन, खुदक़ुशी और कॉरपोरेट मीडिया का मिलाजुला आख्‍यान। सफ़ेद कमीज़, काले रंग की बंडी और बांहें मुड़ी हुईं। ये सब मिलकर उन्‍हें एक ब्रांड बनाता है। एक ऐसा ब्रांड, जो अपने व्‍याख्‍यानों में ब्रांड के जनक पूंजीवादी बाज़ार और विपणन की अवधारणा का विरोधी है क्‍योंकि वह किसान की बात करता है। बेहतर होगा कि हम उन्‍हें काउंटर-ब्रांड कहें- बाज़ार के खिलाफ़ बाज़ार में खड़ा एक आदमी जो लोगों को अपने अनुभवों से शिक्षित करता है। उसके अनुभव गांवों से आते हैं, खासकर मध्‍य भारत और दक्षिण भारत के वे गांव, जहां तक उसकी आसान पहुंच है। हमने साइनाथ के माध्‍यम से वायनाड से लेकर अहमदनगर और विदर्भ तक के कई किस्‍से सुने हैं। हम साइनाथ के ऋणी हैं कि उन्‍होंने एक ऐसे वक्‍त में हमारा ध्यान खेतों की ओर खींचा जब सारी सियासत उस ओर से ध्‍यान हटाने के लिए चल रही थी। और भी लोग थे जो उदारीकरण के दौर में किसानों और खेतों पर खबरें कर रहे थे, लेकिन ब्रांड अकेले साइनाथ थे क्‍योंकि उनके पीछे एक बड़ा ब्रांड खड़ा था- उनका अख़बार दि हिंदू, जिसे इस देश के 'पढ़े-लिखे सरोकारी लोग' अपना अख़बार मानते रहे हैं (क्षेपक: मैंने पिछले चार-पांच महीने से इसे लेना बंद कर दिया है)। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी से लेकर बौद्धिक विमर्शों तक फैले इस दायरे में दि हिंदू को उद्धृत किया जाता रहा है, लिहाजा साइनाथ से इस देश के मध्‍यवर्ग का एक तबका लंबे समय से पर्याप्‍त परिचित रहा है।  
आइआइसी के सभागार में 5 जनवरी को यही तबका मौजूद था। एक सज्‍जन ने हॉल के बाहर टीप मारी, ''साइनाथ अपनी भीड़ साथ लेकर आते हैं''। उनका इशारा जेएनयू और एसएफआई (सीपीएम के छात्र संगठन) की ओर था। ज़ाहिर है, इस भीड़ के अलावा कार्यक्रम में जयराम रमेश और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के बड़े नेता, कुछ बड़े पत्रकार, शहर की सिविल सोसायटी का एक तबका, दिल्‍ली के कॉलेजों के आइपैडयुक्‍त जिज्ञासु छात्र और बड़ी संख्‍या में ऐसे लघु व मंझोले पत्रकार शामिल थे जो शायद अपने करियर की शुरुआत में साइनाथ बनना चाहते रहे होंगे लेकिन आटे-दाल के भाव ने उन्‍हें किसी मूर्ख बनिया का क्‍लर्क बनाकर छोड़ा है। साइनाथ को सुनने आना दरअसल अपने आल्‍टर-ईगो को तुष्‍ट करने जैसा होता है- कि जो काम हम नहीं कर पाए, जो करना चाहते थे, जिसे मानते भी हैं कि हमें करना चाहिए, उसे कम से कम सुनकर ही क्षुधा को तृप्‍त कर लिया जाए। हो सकता है कि सबके मामले में ऐसा न हो, लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं कि अधिकतर लोग ऐसे वक्‍ताओं को सुनने इसीलिए जाते हैं ताकि वापस आकर वहां नहीं गए दूसरे व्‍यक्ति से कह सकें, ''ओ... आइ फील यू मिस्ड इट... तुम्‍हें वहां रहना चाहिए था।'' यह सरोकार से ज्‍यादा प्रातिनिधिक खुशी का एक मसला है, जिसमें हम/आप जैसे हिंदी पट्टी के सामान्‍य, भीरु और दरिद्र लोग 'नदी के द्वीप' (अज्ञेय) का वह रिक्‍शावाला बन जाते हैं जिसके पीछे बैठा पत्रकार चंद्रमाधव लखनऊ के मेफेयर सिनेमा में लगी एक फिल्‍म देखने जा रहा है जबकि खुद वह फिल्‍म न देख पाने की अपनी कसक को तुष्‍ट करने के लिए रिक्‍शेवाला फिल्‍म के अंतरंग दृश्‍यों की कल्‍पना कर के ही मस्‍त हो गया है और अनजाने में उसने गति बढ़ा दी है। चंद्रमाधव भी रिक्‍शे से उतरने के बाद उसका उत्‍साह देखकर उसे एक रुपया बख्‍शीश दे देता है।
बहरहाल, उपन्‍यास जीवन नहीं होता। जीवन भले उपन्‍यास बन जाए। इसीलिए साइनाथ ने वहां उत्‍साह में आए नौजवानों को अपनी परियोजना में ''वॉलन्टियर'' बनाने के लिए उनसे हाथ तो उठवाया, लेकिन उन्‍हें अपनी ओर से कोई बख्शीश नहीं दे पाए क्‍योंकि उनके पास खुद संसाधनों का अभाव है और अब तक का सारा काम कथित तौर पर स्‍वैच्छिक कार्यकर्ताओं के भरोसे ही हो रहा है। यह भरोसा वाकई मज़बूत होगा, शायद इसीलिए साइनाथ इन कार्यकर्ताओं के सहारे अपनी नई-नवेली 'परी' को छोड़कर पूरे साहस के साथ अगले चार महीनों के लिए प्रिंसटन युनिवर्सिटी में पढ़ाने चले गए हैं। वे कह रहे थे, ''चार महीना पैसे कमाकर आऊंगा तो आठ महीना घूम पाऊंगा।'' ठीक ही कह रहे थे। मैं भी यही करता हूं। फ्रीलांसर पत्रकार और कर भी क्‍या सकता है। अपने भीतर की प्रेरणा का पीछा करने के लिए ज़रूरी है कि पहले उसके लिए कुछ पैसे कमाए जाएं। सोचा जा सकता है कि जब साइनाथ को अपने पसंदीदा काम के लिए पैसे कमाने अध्‍यापन के लिए बाहर जाना पड़ रहा है, तो हिंदी पट्टी का कोई सरोकारी पत्रकार चाह कर भी उनके लिए वॉलंटियर कैसे कर सकेगा? सवाल सिर्फ हिंदी पट्टी का नहीं है। पत्रकारिता में कायदे के काम की जितनी कीमत है, उतने में एक आदमी का घरबार नहीं चल सकता। फिर हर कोई पूर्व राष्‍ट्रपति का पोता भी नहीं होता। हर किसी के पास जेएनयू से पैदा हुआ राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय नेटवर्क नहीं होता। हर किसी के पास दि हिंदू जैसा अख़बार नहीं होता। हर कोई पी. साइनाथ नहीं होता। साइनाथ कह रहे थे कि अपना प्रायोजक खुद ढूंढिए और 'परी' के लिए काम करिए। हर पत्रकार की पहली और आखिरी तमन्‍ना एक 'प्रायोजक' खोजने की होती है। हर मार्क्‍स को एक एंगेल्‍स चाहिए। मार्क्‍सवाद उसके बाद पनपता है। अगर प्रायोजक ही मिल गया, तो दुकान अपनी होगी न? प्रायोजक भी खोजें और अपना माल दूसरे के ब्रांड से बेचें? ऐसा कहीं सुना है किसी ने?
बहरहाल, भाषा के इस चालूपने से इतर, 'परी' में मामला बेचने-खरीदने का बिलकुल नहीं है। यह एक निशुल्‍क डिजिटल आर्काइव है। इसके बारे में पत्रकार रवीश कुमार की भूरि-भूरि प्रशंसा से आप इस प्रोजेक्‍ट के कथित उद्देश्‍यों को जान-समझ सकते हैं। मेरे लिखने का उद्देश्‍य इसका फिर से परिचय देना नहीं है क्‍योंकि वेबसाइट चालू है और कोई भी उसे देखकर अपनी समझ बना सकता है। 'परी' को योगदान दीजिए निशुल्क, उससे डाउनलोड कीजिए निशुल्‍क, उसे देखिए निशुल्‍क। सब कुछ निशुल्‍क है। 'परी' की यही खूबी है। कभी-कभार जो खूबी होती है, वही अभिशाप बन सकती है। ज़रा खुलासे में समझने की कोशिश करते हैं। पहली बात यह है कि अख़बारों को वैसे भी ग्रामीण या विकास पत्रकारिता से कोई सरोकार अब नहीं रहा। चैनलों को तो और भी नहीं क्‍योंकि वहां प्रधान सेवक का डिक्‍टेट चलता है। जो काम हो भी रहा है वह ऑनलाइन उपलब्‍ध है। वीडियो वॉलंटियर्स जैसे तमाम मंच हैं जो गांवों की ख़बर, ऑडियो, वीडियो लाकर लोगों को मुफ्त में दे रहे हैं। कई एनजीओ इस किस्म के काम कर रहे हैं। गांवों को डॉक्‍युमेंट करने का काम जितना नेशनल ज्‍यॉग्राफिक और डिस्‍कवरी चैनलों ने अपने-अपने तरीके से किया है, उतना शायद ही किसी ने किया हो। दिल्‍ली में एक भारत सरकार का अभिलेखागार भी है जहां जाने की आदत अब तक इस देश के पत्रकारों को नहीं पड़ी है। इसके अलावा इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय कला केंद्र की वेबसाइट है जहां बहुमूल्‍य सामग्री डिजिटल रूप में मौजूद है। सब का सब निशुल्‍क। किसी भी मीडिया में कहीं भी ऐसे किसी संसाधन का कोई उपयोग होता नहीं दिखता। अखबारों में एक जमाने में लाइब्रेरी हुआ करती थी। वो भी अब नहीं बनती। चैनलों में एक पद होता है रिसर्चर का, जिसका व्‍यावहारिक मतलब होता है गूगलप्रेमी स्‍टेनो। इसलिए यह सोचना गफ़लत पालने जैसा होगा कि आप गांवों की स्‍टोरी निशुल्‍क मुहैया करा रहे हैं तो इसका उपयोग मुख्‍यधारा का मीडिया करेगा। दूसरी बात, यदि किसी संदर्भ में किसी क्षेत्र विशेष के प्रोफाइल की, किसी गांव की ख़बर की ज़रूरत किसी मीडिया प्रतिष्‍ठान को हुई भी और उसने 'परी' का सहारा लिया, तो देखिए कैसी-कैसी विडम्‍बनाएं सामने आ सकती हैं।
पहली तो यही होगी कि आप कालखंड में स्थिर एक सामग्री (वीडियो, ऑडियो, लेख, रिपोर्ट, चित्र) आर्काइव से उठा रहे हैं, जबकि ज़मीन पर सचाई बदल चुकी है। अगर मीडिया संस्‍थान ने वहां अपना रिपोर्टर रीयल टाइम में नहीं भेजा, तो वह 'परी' पर भरोसा कर के धोखा खा सकता है क्‍योंकि 'परी' उक्‍त गांव/क्षेत्र का कालखंड में किसी समय पर रिकॉर्ड किया गया एक पहलू आपके सामने रखेगी। ध्‍यान रहे, यह कोई एंथ्रोपोलॉजिकल (नृशास्‍त्रीय) वेबसाइट नहीं है जो बदलावों को दर्ज करती हो। फर्ज़ करें, आपने इस वेबसाइट से अमुक गांव के बारे में साइनाथ की 2009 में खींची हुई एक तस्‍वीर 2016 में किसी घटना की रिपोर्ट में इस्‍तेमाल कर ली। जिस जगह पर वह तस्‍वीर खींची गई थी, मान लें एक खेत, वहां सात साल के अंतराल में ज़मीन बिक चुकी है और किसी कारखाने/संयंत्र का काम चालू हो गया है। अब आप क्‍या करेंगे? मान लें कि किसी चैनल ने 'परी' पर मौजूद पॉस्‍को सयंत्र विरोधी वृत्‍तचित्र से ढिनकिया गांव के एक किसान की बाइट काटकर आज से डेढ़ साल बाद अपनी किसी ताज़ा स्‍टोरी में लगा दी क्‍योंकि उस गांव में पुलिस की घेराबंदी है और स्ट्रिंगर वहां नहीं जा सकता। अगर वह बाइट 2012 में ली गई थी और उक्‍त किसान स्‍टोरी चलने तक गुज़र चुका हो, तब तो चैनल को लेने का देना पड़ जाएगा। वेबसाइट को देखेंगे तो आप ऐसी कई वास्‍तविक स्थितियां खुद सोच पाएंगे। खतरे और भी हैं। मान लें कि किसी घटना पर एक रिपोर्टर अपने संपादक से कवर करने के लिए वहां जाने की इच्‍छा जताता है। संपादक कह सकता है- ''तुम साइनाथ से ज्‍यादा बड़ा पत्रकार खुद को समझते हो? जाओ, जाकर 'परी' देखो, सब कुछ पहले से मौजूद है।'' इस तरह ग्रामीण पत्रकारिता की रही-सही गुंजाइश भी खत्‍म हो सकती है।
टीवी चैनलों में आजकल कुछ वर्षों से यू-ट्यूब के वीडियो डाउनलोड कर के स्‍टोरी बनाने का चलन सा बन गया है। जिस रफ्तार से यह सुविधा बढी है, उसी रफ्तार से वीडियो की विश्‍वसनीयता को जांचने का विवेक कम होता गया है। रिपोर्टरों का काम मौसम, हादसे या ज्‍यादा से ज्‍यादा नेताओं को रिपोर्ट करना रह गया है। सुदूर गांवों में जाने पर सामान्‍यत: रिपोर्टरों का क्‍या हश्र होता है और वे कैसे मचल जाते हैं, उसका एक दृष्‍टान्‍त मैंने एनडीटीवी के बहाने नियमगिरि की सुनवाई के दौरान इंडिया रेजिस्‍ट्स नामक वेबसाइट पर पेश किया था जिसके लिए मुझे अंग्रेज़ी के पत्रकारों से बहुत गालियां बाद में खानी पड़ी थीं। सोचिए, ऐसी विषद स्थिति में अगर बैठे-बैठाए मुफ्त में बढि़या ऑडियो, वीडियो और चित्रों का आर्काइव पूरे देश भर से एक क्लिक पर उपलब्‍ध हो, तो ग्रामीण व विकास पत्रकारिता के लिए भला कौन कष्‍ट उठाना चाहेगा। कौन संपादक उसका बजट तय कर के प्रबंधकों के सामने खुद को खर्चीला दिखाना चाहेगा? कुल मिलाकर स्थिति आज से और बदतर इसलिए हो जाएगी क्‍योंकि पी.साइनाथ एक अतिविश्‍वसनीय ब्रांड हैं जिनके सामने कम से कम आज की तारीख में और कोई नहीं टिकता। आप चीखते हुए मर जाएंगे, लेकिन संपादक को यह बात नहीं समझ आएगी कि उसे आपको गांव क्‍यों भेजना चाहिए जब सब कुछ रेडीमेड मौजूद है। ऐसी तमाम कल्पित स्थितियों के सहारे मुझे नहीं लगता कि 'परी' के आने से मुख्‍यधारा के मीडिया परिदृश्‍य पर लेशमात्र भी कोई फ़र्क पड़ने वाला है।
अब संस्‍थागत पत्रकारिता के दायरे से बाहर आते हैं। गांवों में जाकर दो किस्‍म के स्‍वतंत्र पत्रकार रिपोर्ट कर सकते हैं। एक, जिनके पास बाप का कमाया पैसा हो और अभिव्‍यक्ति की आज़ादी का प्रिविलेज भी हो। दूसरे, जो अपनी प्रेरणा का पीछा करने के चक्‍कर में कहीं से पैसे जुगाड़ कर बेखौफ़ निकल पड़ते हों। पहली श्रेणी पत्रकारिता के लिए वरदान है। होनी भी चाहिए। ऐसे जितने युवा पैदा हों, ग्रामीण पत्रकारिता की गुंजाइश उतनी ही बची रहेगी। दूसरी श्रेणी दुर्लभ है और लुप्‍तप्राय है। इसके भरोसे कुछ नहीं होने या बचने वाला। ऐसे लोग शहीद होने के लिए बने हैं या फिर अपनी सनक में अपना ही घर तोड़ लेंगे। जो अवसरप्राप्‍त पहला तबका है, शहरी, मध्‍यवर्गीय और बुनियादी वर्जनाओं से स्‍वतंत्र, वही 'परी' का टार्गेट ग्रुप है। साइनाथ के मुताबिक उनका उद्देश्‍य ऐसे ही तबके को ''सेंसिटाइज़'' करना है। साइनाथ बहुत मार्के की बात कह रहे थे, ''इस देश में म्‍यूजि़यम संस्‍कृति इसलिए नहीं है क्‍योंकि बाहर कुछ भी नहीं बदला है। जो म्‍यूजि़यम में है, वही समाज में भी बचा हुआ है।'' इस बात के दो आशय हैं। पहला यह कि भारतीय समाज स्थिर है। यह एक खतरनाक व्‍याख्‍या हो सकती है इसलिए इसकी गहराई में मैं नहीं जाना चाहूंगा। दूसरा आशय यह है कि समाज की चीज़ों को संग्रहित करने का कोई जीवंत सांस्‍कृतिक मूल्‍य भारत जैसे देश में नहीं है। साइनाथ यहीं से अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि इसी वजह से उन्‍होंने ऑनलाइन माध्‍यम को चुना क्‍योंकि संग्रहालय में 'फिजि़कली' जाने की संस्‍कृति यहां विकसित नहीं हुई है जबकि युवाओं के हाथ में मोबाइल है जिससे वे कभी भी ऑनलाइन कुछ भी देख सकते हैं। ठीक बात है। साइनाथ इसी तबके को 'सेंसिटाइज़' करना चाहते हैं। आजकल इसे चलताऊ भाषा में 'डेमोग्राफिक डिविडेंड' कहा जाता है। इस देश में 18 से 35 बरस के बीच 65 फीसदी युवा हैं। नरेंद्र मोदी को भी इन्‍हीं की चिंता है। राहुल गांधी भी इसी समूह को लेकर परेशान थे। कहते हैं कि इसी तबके ने भाजपा की जीत को आसान बनाया और नरेंद्र मोदी को दिल्‍ली के सिंहासन तक पहुंचाया। क्‍या साइनाथ के पास इस समूह को 'सेंसिटाइज़' करने की कोई 'राजनीति' है जो उनके उद्देश्‍य को नरेंद्र मोदी/राहुल गांधी आदि के उद्देश्‍य से अलग कर सके? संघ भी गांवों की बात करता है। मोदी भी आदर्श गांव बनाना चाहते हैं। देश को बरसों पीछे पीछे किसानी सभ्‍यता में ले जाने के प्रयास इधर तेजी से हो रहे हैं। अगर हम मौजूदा 'डेमोग्राफिक डिविडेंड' को अपने पक्ष में करना चाहते हैं तो हमारे पास एक वैकल्पिक राजनीति ज़रूर होनी चाहिए जिससे हम प्रतिगामी ताकतों के खिलाफ़ खड़े होकर गांवों की बात को किसी तरक्‍कीपसंद मूल्‍य से जोड़ सकें। सिर्फ बचाने और बचाने का काम तो हिंदी कवि भी अपनी कविता में तुलसी के चौरे आदि के माध्‍यम से करता है। गांवों को बचाना एक सामान्‍य और सदिच्‍छा प्रेरित उद्देश्‍य भले हो, लेकिन उसमें 'राजनीतिक तत्‍व' की शिनाख्‍त करनी बहुत ज़रूरी है। क्‍या 'परी' का कोई स्‍पष्‍ट राजनीतिक उद्देश्‍य है जो अपने लक्षित समूह को उससे अनुप्राणित कर सके? क्‍या आप गांव के साथ वहां के सामंती मूल्‍यों को भी बचाएंगे? अगर नहीं, तो यह बात आप कैसे युवाओं को समझाएंगे कि संघ जो कह रहा है आप उससे बिलकुल अलग परिप्रेक्ष्‍य में बात कर रहे हैं? कोई लकीर है? राजनीतिक उद्देश्‍य के सवाल पर साइनाथ सिर्फ इतना कहते हैं कि उनका काम गांवों को डॉक्‍युमेंट करना है। मेरे खयाल से यह सबसे बड़ा लोचा है जिसकी ओर मेरा ध्‍यान कवि रंजीत वर्मा ने हॉल से निकलते ही दिलाया था जब उन्‍होंने सवाल किया, ''ये आर्काइव क्‍यों बना रहे हैं?''
ऊपर कहीं गई तमाम बातें निराधार हो सकती हैं। अटकलें ही हैं। व्‍याख्‍याओं का क्‍या, उन्‍हें अपनी सुविधानुसार मोड़ा भी जा सकता है। मेरा उद्देश्‍य इस बहुप्रचारित परियोजना के बारे में कोई आखिरी राय बनाना नहीं है, बल्कि एक अच्‍छे काम को और अच्‍छा बनाने के लिए बार-बार सोचना है, शायद इसीलिए बीते एक हफ्ते से मैं लगातार इस बारे में सोच रहा था। और बार-बार जब मैं सोच रहा था तो मेरे जेहन में एक तस्‍वीर उभर रही थी। वह तस्‍वीर सभागार में लगे उस साइनबोर्ड की थी जिसके सामने बैठकर साइनाथ जिज्ञासु श्रोताओं के जवाब दे रहे थे। उक्‍त बोर्ड पर कार्यक्रम के नाम के अलावा सबसे ऊपर पांच नाम लिखे थे- ऐक्‍शन एड, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, सेव दि‍ चिल्‍ड्रेन, यूथ की आवाज़, बिजनेस एंड कम्‍युनिटी फाउंडेशन। मैं नहीं जानता कि ये संस्‍थाएं इस कार्यक्रम की प्रायोजक थीं या नहीं। मैंने पता करने की कोशिश भी नहीं की। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने हो सकता है अपना सभागार दिया था इसलिए उसका नाम वहां हो, लेकिन बाकी चार वहां क्‍या कर रहे थे? पता नहीं। मैं कुछ और बातें ज़रूर जानता हूं जिस वजह से इसका जिक्र यहां कर रहा हेूं। मसलन, ऐक्‍शन एड के बारे में पर्याप्‍त सूचनाएं मौजूद हैं कि वह फोर्ड फाउंडेशन से अनुदानित संस्‍था है। यही वह संस्‍था है जिसने वेदांता का संयंत्र नियमगिरि में लगवाने के लिए वहां के आदिवासियों और कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल के बीच मांडवाली की थी। शब्‍दों का मेरा चयन बुरा लगता हो तो लगे, लेकिन कालाहांडी के लांजीगढ़ में रहने वाले आदिवासी नेता कुमटी मांझी गवाह हैं कि उन्‍हें और कुछ दूसरे आदिवासियों को बाकायदा ऐक्‍शन एड के द्वारा लंदन ले जाकर अनिल अग्रवाल से मिलवाने की कोशिश की गई थी। कुमटी मांझी ने मुझे यह बात बताते हुए शर्म से अपना सिर झुका लिया था और बोले थे, ''...लेकिन हम लोगों को धोखे में रखा गया था। वहां अनिल अग्रवाल को अचानक देखकर हम लोग कमरे से बाहर निकल गए।'' मांझी से पूरी बातचीत का वीडियो मेरे पास है।
सेव दि चिल्‍ड्रेन बच्‍चों की शिक्षा पर काम करने वाली संस्‍था है। हमारे एक मित्र राजेश चंद्र जो आजकल 'समकालीन रंगमंच' के संपादक हैं, आज से कुछ साल पहले इस संस्‍था की पत्रिका निकाला करते थे और उसके लिए नियमित तौर पर उदयपुर आते-जाते रहते थे। उन्‍होंने अपने आखिरी दिनों में कुछ पत्रकारों को संस्‍था का काम दिखाने के लिए उदयपुर बुलाया। कुल सात लोग थे। मैं भी था। सभी जानने वाले थे। हम लोग एक सप्‍ताह तक उदयपुर, बांसवाड़ा, सलूम्‍बर, डूंगरपुर आदि जगहों पर घूमे। शिक्षा में चल रहा काम देखा गया। इस दौरान एक रात हमारी मुलाकात डूंगरपुर के बाहर स्थित एक होटल में सेव दि चिल्‍ड्रेन के कंट्री डायरेक्‍टर से हुई थी। नाम नहीं याद है, कोई बंगाली था। उम्र 35 बरस के आसपास रही होगी। प्रेसिडेंसी कॉलेज से पढ़ा सभ्‍य अभिजात्‍य व्‍यक्ति था। आधी रात को हमारे परिचय के साथ शुरुआती बातचीत उसके सुरूर में आने के बाद हलकी बहस में बदल गई, तब उसने एक दिलचस्‍प उद्घाटन किया था। उसने बताया था कि दक्षिणी राजस्‍थान का इलाका माओवाद के पनपने के लिए काफी मुफीद है क्‍योंकि यहां पर्याप्‍त आदिवासी हैं और समस्‍याएं अपार हैं। सेव दि चिल्‍ड्रेन के प्रोजेक्‍ट का बुनियादी उद्देश्‍य आदिवासियों के असंतोष को दबाना है और शिक्षा के आंदोलन की तरफ सारी चेतना को मोड़कर संसाधनों की लूट से ध्‍यान हटाना है। इस घटना का जि़क्र मैंने वरिष्‍ठ पत्रकार उर्मिलेश द्वारा संपादित एक पुस्‍तक में लिखे अपने एक लंबे आलेख में कुछ साल पहले किया था। यहां बस दुहरा रहा हूं। आखिरी बात यह ध्‍यान रखने वाली है कि उदयपुर को वेदांता सि‍टी के नाम से भी जाना जाता है क्‍योंकि सरकारी उपक्रम जि़ंक इंडिया को वेदांता ने खरीद लिया था। आप उदयपुर गए हों तो वेलकम टु वेदांता सिटी के बोर्ड ज़यर आपने देखे होंगे।
क्‍या यह महज संयोग है कि सेव दि चिल्‍ड्रेन और ऐक्‍शन एड का सिरा एक ही कंपनी वेदांता से जाकर जुड़ता है? हो सकता है यह मेरा सीमित अनुभव हो। बहरहाल, एक ऑनलाइन मंच है यूथ की आवाज़ जिसे किसी अश्विनी तिवारी ने शुरू किया है और जिसका नाम साइनाथ के आयोजन के बोर्ड पर था। इस मंच का घोषित उद्देश्‍य युवाओं की आवाज़ को स्‍वतंत्र रूप से सामने लाना है क्‍योंकि उसके मुताबिक मीडिया में अब जगह नहीं बची है। इस वेबसाइट पर आपको अच्‍छी कहानियां पढ़ने को मिल जाएंगी। आजकल इस पर अंतरराष्‍ट्रीय दानदाता एजेंसी ऑक्‍सफैम के एक प्रोजेक्‍ट के तहत महिलाओं पर श्रृंखला चलाई जा रही है। वेबसाइट का कहना है कि उसे किसी संस्‍था से भी कोई परहेज़ नहीं है। क्‍या यह संयोग है कि ऑक्‍सफैम को भी फोर्ड फाउंडेशन ही पैसा देता है?
संयोगों की इस कड़ी में बोर्ड पर लिखा आखिरी नाम है बिजनेस एंड कम्‍युनिटी फाउंडेशन का, जिसके बारे में बहुत ज्‍यादा सूचनाएं नहीं हैं क्‍योंकि यह अपेक्षाकृत नई संस्‍था है। इसकी वेबसाइट कहती है कि इसके निदेशक बोर्ड में ग्‍लैक्‍सो स्मिथक्‍लाइन लिमिटेड के पूर्व प्रबंध निदेशक एस.जे. स्‍कार्फ, कैडबरी कंपनी में वरिष्‍ठ पद पर रहे एन.एस. कटोच, बजाज कंपनी के अध्‍यक्ष राहुल बजाज, फोर्ब्‍स मार्शल कंपनी की रति फोर्ब्‍स, कनफेडरेशन ऑफ ब्रिटिया इंडस्‍ट्री के भारत में सलाहकार एम. रुनेकर्स, केंद्रीय प्रत्‍यक्ष कर बोर्ड के पूर्व अध्‍यक्ष सुधीर चंद्र समेत कुछ लोग शामिल हैं। यह संस्‍था भारत सरकार के कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के साथ मिलकर सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्‍पॉन्सिबिलिटी) के क्षेत्र में काम करती है और कई दूसरी संस्‍थाओं को अपने परमर्श और प्रशिक्षण मुहैया कराती है। इसी संस्‍था ने 1 जुलाई 2010 को आइआइसी में ''कृषि संकट और किसानों की आत्‍महत्‍या'' विषय पर पी. साइनाथ का एक व्‍याख्‍यान रखवाया था।
पी. साइनाथ ने भविष्‍य में 'परी' की ओर से 50 फेलोशिप देने की भी बात कही है। अगर उपर्युक्‍त संस्‍थाएं 'परी' की प्रायोजक हैं, तो हो सकता है कि फेलोशिप में इन संस्‍थाओं का कुछ हाथ हो। यह स्‍पष्‍ट नहीं है कि इन संस्‍थाओं के साथ 'परी' का क्‍या और किस हद तक लेना-देना है। ऐसी संदिग्‍ध संस्‍थाओं के साथ ग्रामीण पत्रकारिता की सबसे अनोखी परियोजना का रिश्‍ता हो सकता है, और उस रिश्‍ते के क्‍या निहितार्थ हो सकते हैं, यह सिर्फ अटकल की बात है। एक बात हालांकि तय है कि ऐक्‍शन ऐड और सेव दि चिल्‍ड्रेन आदि इस देश में ग्रामीण पत्रकारिता करने-करवाने न आए थे, न ही उनका यह कोई उद्देश्‍य है। विदेशी अनुदान से, स्‍पष्‍टत: फोर्ड फाउंडेशन से अनुदानित स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका पर अब इस देश में कोई बहस नहीं रह गई है। यह बात खुलकर कई साल पहले सामने आ चुकी है कि ऐसी संस्‍थाएं जनता के असंतोष को प्रेशर कुकर की तरह बाहर निकालने का काम करती हैं। यह बहुत संभव है कि पी. साइनाथ की एक ग्रामीण पत्रकार के तौर प्रतिबद्धता और ईमानदारी इन आशंकाओं को निर्मूल करार देगी, लेकिन फिर भी एक सवाल बचा रह जाता है कि आखिर 'परी' की पॉलिटिक्‍स क्‍या है?
मैं 'परी' को लेकर बहुत उत्‍साहित था। अब भी हूं। यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अब हो रहा है तो इसका स्‍वागत किया जाना चाहिए। हमें साइनाथ के हाथ मज़बूत करने चाहिए। मैंने भी और लोगों की तरह साइनाथ को कुछ तस्‍वीरें भेजी हैं। एक पिक्‍चर स्‍टोरी भेजी है। मैंने उनसे कहा है कि मेरे पास बहुत सामग्री है, मैं 'परी' को सब कुछ देना चाहूंगा जो उसके मैनडेट में आता हो। मैंने कहा कि मैं स्‍टोरी भी करना चाहूंगा। इतना सब कहते हुए हमने उनके उद्देश्‍य के बारे में सवाल भी पूछे। काफी बात हुई, लेकिन बात अब तक अधूरी है क्‍योंकि वे हमें शंकाओं के बीच छोड़कर चार महीने के लिए बाहर चले गए हैं। शायद वे व्‍यस्‍त होंगे क्‍योंकि मेरे पास उनको भेजे ई-मेल की पावती अब तक नहीं आई है। हम लोग हिंदी पट्टी के दरिद्र पत्रकार हैं। हमेशा अच्‍छा काम करने का मौका देने वाले की फिराक में रहते हैं। और साइनाथ तो पत्रकारिता के जौहरी हैं। उन्‍हें अच्‍छे-बुरे की परख है। हो सकता है वे हमें मौका दें। हो सकता है न भी दें। सवाल पूछना हमारा सनातन काम है। वो तो हम करते रहेंगे।
('हाशिया' से साभार)

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