तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन ने 14 जनवरी को फेसबुक पर लिखा, "लेखक पेरूमल मुरुगन मर गया. वह भगवान नहीं है, लिहाजा वह खुद को पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता. वह पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करता. आगे से, पेरूमल मुरुगन सिर्फ एक अध्यापक के बतौर ज़िंदा रहेगा, जो वह हरदम रहा है." अब तक मुरुगन के खिलाफ धर्म और जाति के स्वयंभू ठेकेदारों से लेकर उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक़ में आवाज़ उठाने वाले लोगों ने लाखों शब्द व्यय किए होंगे, लेकिन लेखक की पीड़ित अंतरात्मा की यह तीन पंक्तियां सब पर भारी हैं. लेखक मर गया, लेकिन 2015 के हिन्दुस्तान के राज और समाज की हिंसक दयनीयता जी रही है. मुरुगन का वक्तव्य ऐसे वक्त पर टिप्पणी है जिसमें जनता की वंचनाओं और हाहाकार को एक सामूहिक पागलपन की ओर मोड़ देने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं. अतीत की रमणीय कपोल-कल्पनाओं और भविष्य के मादक सपनों की गरज के बीच आज के भारत की कराह सुनाई देनी बंद होती जा रही है. वे सारे परदे जिनपर चित्र और चलचित्र दिखाई देते हैं और वे सारे यंत्र-तंत्र जिनसे आवाजें सुनी जाती है, झपट लिए गए हैं. मानव विकास सूचकांक में दुनिया के 135वें पायदान पर खड़े भारत की वर्तमान वास्तविकता, वास्तविक अतीत तथा यथार्थपरक भविष्य के चित्र और स्वर अदृश्य और गूंगे बनाए जा रहे हैं.
आस्था में चार साल की देरी से आए उबाल के तहत मुरुगन के जिस उपन्यास को पिछले दिसंबर महीने से निशाना बनाया गया है, वह 2010 में प्रकाशित हुआ था जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद 'वन पार्ट वुमन' के नाम से 2013 में पेंग्विन से छप कर आया. रोचक यह है कि इस उपन्यास में न तो ईशनिंदा है और न ही किसी धर्म या उसकी प्रथाओं का विरोध. उपन्यासकार ने उनपर व्यंग्य भी नहीं किया है, न कोई भंडाफोड़ किया है. उपन्यास का संवेदनात्मक उद्देश्य ही अलग है. मुरुगन की इतिहास-दृष्टि और सामाजिक चेतना मिथकों और आस्थाओं में लिपटे जीवन की वास्तविक धड़कनों और मर्म को इस उपन्यास में प्रत्यक्ष कर देती है, उनके दुश्मनों की निगाह में यही उनका अपराध है. उन्हें मुरुगन की कथा-सृष्टि भी सच की तरह डराती है. सच से ऐसा डर ही उन्हें सामाजिक सच्चाइयों के हर अनुसंधान या साहित्यिक पुनर्रचना को आस्था की तोपों से मार गिराने का अभ्यस्त बनाता है. सत्य से सत्ता का युद्ध बड़ा पुराना है, लेकिन हम जिस 2015 के भारत में रह रहे हैं, वहां सच के आखेटक पहले से अधिक मूर्ख, किन्तु प्रशिक्षित हैं.
घटनाएं : 27 दिसंबर, 2014 के 'द हिन्दू' अखबार के अनुसार तिरुचेंगोडे नगर की आर.एस.एस. इकाई के अध्यक्ष महालिंगम ने 26 दिसंबर के दिन 50 से अधिक लोगों का जुलूस निकाला और मुरुगन के इस उपन्यास की प्रतियां जलाई. भाजपा, आर.एस.एस. तथा कुछ अन्य हिंदूवादी संगठनों ने लेखक की गिरफ्तारी की मांग भी की (हालांकि अब जबकि लेखक के समर्थन में भी आवाजें तेज़ हो रही हैं, ये संगठन समूचे घटनाक्रम में अपनी भूमिका नकार रहे हैं). इसी रिपोर्ट के मुताबिक़ बीस दिन पहले से मुरुगन को धमकियां मिल रही थीं. बाद में उपन्यास के विरोधस्वरूप शहर बंद भी कराया गया. 12 जनवरी को नमक्कल के जिला प्रशासन ने लेखक को उनके विरोधियों के साथ शान्ति वार्ता के लिए बुलाया. यहाँ प्रशासन ने मुरुगन को 'बिनाशर्त माफी' माँगने, अगले संस्करण में उपन्यास में वर्णित स्थानों का नाम बदलने और उसके 'आपत्तिजनक अंशों' को हटाने, वर्तमान संस्करण की अनबिकी प्रतियों को बाज़ार से वापस लेने और भविष्य में ऐसी कोई हरकत न करने का वचन देने संबंधी हलफनामे पर दबाव देकर दस्तखत कराया. इस प्रकार सरकारी देख-रेख में संविधान की धारा 19(1) (ए) की धज्जियां उड़ाई गयीं. ध्यान रहे मुरुगन जिस अंचल के लेखक हैं, उसी अंचल के एक सपूत थे 'पेरियार'. जातिप्रथा-विरोधी, अंधश्रद्धा-विरोधी, सेक्युलर और नास्तिक 'पेरियार' की कर्मभूमि पर एक लेखक के साथ यह सब कुछ होना भारी विडम्बना है. द्रविड़ आन्दोलन के साथ पेरियार की विरासत जुडी हुई है, लेकिन उसी आन्दोलन से निकली एक पार्टी तमिलनाडू की सत्ताधारी पार्टी है और दूसरी मुख्य विपक्षी पार्टी. सत्ताधारी पार्टी की भूमिका नमक्कल प्रशासन की हरकतों से ज़ाहिर है और विपक्षी पार्टी की भूमिका इस प्रकरण पर उसकी चुप्पी से. ( मामला तूल पकड़ने पर इस पार्टी ने लेखक के पक्ष में एक-दो बयान जारी करके छुट्टी पा ली है) अनेक लेखकों ने ठीक ही लक्ष्य किया है यह प्रकरण द्रविड़ पार्टियों की पस्ती के दौर में हिंदुत्व की ताकतों द्वारा तमिलनाडू में पाँव पसारने की कवायद का सूचक है. एक जागरूक नागरिक के रूप में मुरुगन अपने इलाके में शिक्षा की दुकानदारी के खिलाफ लिखते रहे हैं और पर्यावरण की धज्जियां उड़ानेवालों के खिलाफ भी. यह सारे निहित स्वार्थ भी उनके खिलाफ परदे के पीछे सक्रिय हैं. 48 वर्षीय मुरुगन नमक्कल में शासकीय कला विद्यालय में तमिल पढ़ाते हैं. उन्होंने अबतक 35 पुस्तकें लिखीं है जिनमें 07 उपन्यास और तमिलनाडु के कोंगू (पश्चिम) क्षेत्र की बोलियों का शब्दकोष भी शामिल है.
उपन्यास का कथानक : यह उपन्यास कोंगू अंचल के जन-जीवन का अत्यंत संवेदनशील चित्र प्रस्तुत करता है. इस अंचल के जंगल, पहाड़, वनस्पति, पशु-पक्षी, मेले, नृत्य, संगीत, खेल-तमाशे, हाट-बाज़ार, खान-पान, पहनावा, देवस्थान और उनसे जुडी आस्थाएं, लोकविश्वास और किसान जीवन को कथा में जीवंत इसीलिए किया जा पाया है कि उपन्यासकार उस अंचल का मार्मिक जानकार ही नहीं, गंभीर अध्येता भी है. उपन्यास के इसी आंचलिक परिवेश में निस्संतान किसान दंपत्ति पोन्ना(पत्नी) और काली(पति) की कोमल कथा प्रवाहित है. दोनों एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं. लेकिन उनके paraparpapअकुंठ प्यार पर निस्संतान होने का ग्रहण लग जाता है. रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों के ताने पोन्ना को ज़्यादा सुनने पड़ते है. तीज-त्यौहार और मांगलिक अवसरों पर कर्मकांडों के वक्त 'बाँझ स्त्री' के प्रति अपमानजनक व्यवहार के चलते वह धीरे-धीरे अपने घर की चहारदीवारी में सिमटती चली जाती है. काली को भी समय समय पर किसी न किसे प्रकरण में लज्जित होना पड़ता है. उसका भी सामाजिक जीवन सीमित होता जाता है. उसकी नपुंसकता की चर्चाएँ भी होती हैं. निस्संतान दंपत्ति की संपत्ति पर रिश्ते-नातेदारों ही नहीं, पड़ोसियों की भी निगाह है. काली को उसकी मां और दादी दूसरा विवाह करने की सलाह देती हैं. इस प्रस्ताव पर पोन्ना के मां- बाप को भी कोई ऐतराज़ नहीं है, वे इतने में ही संतुष्ट हैं कि दूसरी स्त्री के साथ उनकी बेटी भी उसी घर में रहे, निकाली न जाए. पोन्ना और काली भी कभी कभी एक दूसरे का मन टोहने या चिढाने के लिए आपस में दूसरे विवाह की बात करते हैं. पोन्ना सदैव ही भारी मन से ही सही, यह कहती है कि काली की खुशी के लिए वह इसके लिए भी तैयार है. वास्तव में दोनो ही एक दूसरे से इतना प्यार करते हैं कि मन बांटने के लिए इस प्रस्ताव पर चाहे जो चर्चा करते हों, उसकी वास्तविक संभावना को कभी मन में स्वीकार नहीं करते. काली की मां और दादी उनके परिवार पर देवी -देवताओं का श्राप मानती हैं. निर्वंश होने के श्राप से मुक्ति के लिए काली और पोन्ना वर्षानुवर्ष न जाने कितने देवी-देवताओं, मंदिरों-मठों का चक्कर लगाकर, न जाने कितनी पूजा-पाठ, व्रत-अनुष्ठान करके थक चुके हैं. काली की मां और दादी के पास परिवार पर श्राप के अलग अलग किस्से हैं. वे हर किस्से के अनुरूप श्रापमुक्ति के उपाय करते हैं. पाठक इन किस्सों में उस अंचल के तमाम सामाजिक संबंधों की भी झांकी पाता है. ये किस्से अलग-अलग जातियों के बीच, अलग अलग तबकों के बीच, आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच, स्त्री और पुरुष के बीच, औपनिवेशिक समय में अंग्रेजों और देशियों के बीच, मनुष्य और देवता के बीच संबंधों की झलक दिखलाते है. ये किस्से उस अंचल के ऐतिहासिक-सामाजिक जीवन की मिथकीय अभिव्यक्तियाँ हैं. ऐसे किस्सों और लोकविश्वासों को पिरोने और अंचल के जीवंत नृवंशीय चलचित्र प्रस्तुत करने का हुनर मुरुगन अपने अनेक उपन्यासों में पहले भी दिखला चुके हैं. अपने अंचल के प्रति गंभीर ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करते हुए उन्होंने अतीत के लेखकों द्वारा उस अंचल पर लिखी गई चीज़ों की खोज की और उन्हें दो खण्डों में प्रकाशित किया. उन्होंने टी.ए. मुथूसामी कोनार द्वारा इस अंचल पर लिखे इतिहास-ग्रन्थ जिसे लुप्त मान लिया गया था, उसे खोजकर पुनर्प्रकाशित कराया. (देखें ए.आर. वेंकट चेलापति का लेख, 'द हिंदू', 12 जनवरी)
एक भरा-पूरा, सुन्दर और संतुष्ट वैवाहिक जीवन सामाजिक मान्यताओं के चलते किस तरह अवसादग्रस्त होता है, लेकिन अवसाद के आगे पराजय नहीं मानता, इसे मुरुगन ने बहुत कोमल और संवेदनशील रंग-रेखाओं में अंकित किया है. काली और पोन्ना का निश्छल और उन्मुक्त प्यार समाज की मान्यताओं के टकराकर कैसे कैसे अंतर्द्वंद्वों से गुज़रता है, उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कंपन को उपन्यासकार की लेखनी पकड़ लेती है. वे तत्व जो इन पात्रों के मन की सुन्दर गहराइयों में लेखक की उंगली पकड़ कर उतरने की जगह उन सुन्दर उँगलियों को ही तोड़ देने को पुरुषार्थ समझे बैठे हैं, उनका कलेजा सचमुच काठ का बना है. उपन्यास का अंत ट्रैजिक है. काली के दूसरे विवाह के प्रस्ताव और श्रापमुक्ति के सभी उपाय विफल होने पर पोन्ना और काली दोनों की मांएं एक अलग योजना बनाती हैं. अर्द्धनारीश्वर के स्थानीय मंदिर में हर साल तमिल वैकासी महीने ( मई-जून) में १४ दिन का मेला लगता है. चौथे दिन पहाड़ों से देवता उतरते हैं और उनकी रथ की सवारी अगले दस दिन निकलती रहती है, अंतिम दिन वे वापस चले जाते हैं. अंतिम दिन मेले में भारी भीड़ होती है और माना जाता है कि इस दिन मेले में उपस्थित सभी पुरुष देवता होते हैं. निस्संतान स्त्रियों के लिए यह दिन भाग्यशाली होता है, जहां वे किसी देवता से समागम कर संतान-प्राप्ति कर सकती हैं. ऐसी संतानें देवता का प्रसाद या देव-संतानें मानी जाती हैं. काली की मां इस दिन पोन्ना को मेले में भेजे जाने के लिए काली को सहमत नहीं कर पाती. एक साल बीत जाता है. अगले साल मेला शुरू होने के समय काली का साला मुथु (जो उसका बाल-सखा भी है) बहन-बहनोई को इसके लिए राजी करने उनके घर आता है. मंदिर पोन्ना के घर से नज़दीक है. हर साल मेले के समय काली पोन्ना को लेकर अपने ससुराल जाया करता था और वहीं से वे मेला घूमने जाते थे. ऐसे में मुथु के आग्रह पर काली पोन्ना को तत्काल उसके साथ भेजने को राजी हो जाता है और खुद मेले के १४वे दिन आने का वादा करता है. लेकिन पोन्ना को देव-समागम के लिए भेजे जाने से वह इनकार कर देता है. मुथु बहन से झूठ बोलता है कि बहनोई काली ने इस बात की अनुमति दे दी है. पोन्ना को इसकी तस्दीक खुद काली से करने का वक्त नहीं मिलता, फिर भाई की बात पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था क्योंकि काली और मुथु साले-बहनोई ही नहीं बाल-सखा भी थे. एक नाटकीय घटनाक्रम में चौदहवें दिन काली के ससुराल पहुँचाने के बाद मुथु सदा की तरह काली को लेकर खाने-पीने, मौज-मस्ती करने घर से खूब दूर ले जाता है, ताकि अगली सुबह तक दोनों लौट न पाएं. उधर पोन्ना के मां-बाप उसे लेकर बैलगाड़ी में मेले की ओर चल देते है. काली और मुथु दूरस्थ स्थान पर खाने-पीने के बाद सो जाते हैं. लेकिन काली की नींद आधी रात के बाद खुल जाती है. वह वापस ससुराल की ओर चल पड़ता है. भोर में वहां पहुँच कर जब उसे ताला जडा मिलता है, तो उस पर वज्रपात सा होता है. उसकी भावनाएं पछाड़ खाकर गिरती हैं. उसे लगता है कि पोन्ना ने उसके साथ धोखा किया है. यहीं उपन्यास ख़त्म होता है.
ट्रेजेडी का भाव सघन इसलिए होता है कि दरअसल किसी ने किसी को धोखा नहीं दिया. मुथु, काली की माँ, उसके सास-ससुर- सभी काली और पोन्ना का दुःख दूर करना चाहते हैं. मुथु ने इसी खातिर बहन से झूठ बोला. पोन्ना मेले में जाने को खुद तत्पर नहीं है. वह काली को खुश देखना चाहती है, उसके किए बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार है, ऐसे में उसकी रजामंदी जानकार वह मेले में जाने को तैयार होती है. यह निश्छल भावनाओं की ऐसी दुनिया है जहां हरेक व्यक्ति जो कर रहा है वह दूसरे की खुशी के लिए कर रहा है, लेकिन परिणाम वह निकलता है जो किसी ने न चाहा था. मेले की भीड़ में 'देवता' से उसकी भेंट सुगम हो सके, इसके लिए पोन्ना को अकेला छोड़ जब उसकी माँ गायब हो जाती है, तब के बाद का वर्णन उपन्यासकार की सामर्थ्य का सबसे ताकतवर साक्ष्य है. पोन्ना की मार्फ़त पाठक तमाम स्थानीय सांस्कृतिक कला-रूपों, नाटकों और रिवाजों की दृश्यावली से गुज़रता है, लेकिन सबसे बड़ा नाटक तो पोन्ना के मानसपटल पर अभिनीत हो रहा है. भारी भीड़ में अकेले होने के भय से शुरू करके अपरिचितों के बीच अनाम होने की खुशी तक उसके मन में अनेक भाव आते और जाते हैं. परिचय की दुनिया की हर नज़र उसे छेदती थी, क्योंकि वह निस्संतान थी. मेले में भीड़ का हिस्सा होकर वह ऐसी हर नज़र से आज़ाद थी, जहां न वह किसी को जानती थी और न कोई उसे. लेकिन अवचेतन के सह-सम्बन्ध और संस्कार उसकी निगहबानी बदस्तूर कर रहे थे. जब भी कोई 'देवता' उसकी ओर रुख करता, उसके और अपरिचित देवता के बीच काली का चेहरा परिचिति या स्मृति की छाया सा झिलमिला उठाता, क्योंकि पति से भी ज़्यादा काली वह व्यक्ति है जिससे वह सबसे ज़्यादा प्यार करती है. एक छोटे से स्वप्न-दृश्य में बचपन के प्यार का एक चेहरा भी कौंधता है. यह कोई नैतिक द्वंद्व नहीं है. काली के विपरीत पोन्ना के मन में इस प्रथा पर आस्था का कोई संकट नहीं है. काली की खुशी के लिए और अपने जानते में उसकी 'अनुमति' से ही वह 'देवता' की खोज में आई है, लेकिन क्या एक क्षण को भी काली को भूले बगैर 'देवता' से मिलन संभव हो पाएगा? इस द्वंद्व को उपन्यासकार ने चेतन और अचेतन के बीच, परिचित और अनजाने के बीच, सम्बन्ध-भावना और स्वातंत्र्य-कामना के बीच, मानवीय भाव-यंत्र और देवत्व के तसव्वुर के बीच - एक साथ अनेक स्तरों पर अभूतपूर्व संवेदनशीलता से अंकित किया है. अंततः पोन्ना इस द्वंद्व से पार जाती है, इसका संकेत करके उपन्यासकार आगे बढ़ जाता है. समागम का दृश्य उपस्थित करने और पाठक को गुदगुदाने की उसकी कोई इच्छा ही नहीं है.
कहानी का अंत नहीं हुआ, लौटेगा कहनेवाला : उपन्यास के अंतिम दृश्य में काली को तड़पता देख पाठक की उत्कंठा बढ़नी स्वाभाविक है, लेकिन उपन्यास ख़त्म हो जाता है. पाठक के ज़ेहन में ढेरों सवाल हैं? क्या पोन्ना और काली का सम्बन्ध-विच्छेद हो जाएगा? क्या काली यह जान कर कि पोन्ना को उसकी 'अनुमति' की झूठी जानकारी थी, उसे अपना लेगा? क्या पोन्ना यह जानकार कि उससे झूठ बोला गया था, अपराधबोध या आत्महंता भाव से ग्रस्त हो जाएगी? ऐसे में अपने माँ-बाप और भाई के प्रति उसका क्या रुख होगा? यदि वह अपने माँ-बाप और भाई को क्षोभ में त्याग दे और काली उसे फिर से न अपनाए, तो वह कहाँ जाएगी? यदि उसे देव-संतान होती है, तो उस संतान का भविष्य क्या है? श्री चेलापति ने अपने लेख में लिखा है कि ढेरों पाठकों ने लेखक को पोन्ना और काली की आगे की कहानी बताने के लिए अनेक पत्र लिखे. जवाब में लेखक ने उपन्यास को आगे के दो खण्डों में जारी रखने का वादा किया है, दोनों खण्डों के शीर्षक भी बताए हैं. मुरुगन को यह वादा निभाना ही पडेगा. लेखक की मृत्यु की घोषणा के बावजूद उसे खुद को पुनरुज्जीवित करना होगा. पाठक ज़रूर उन ताकतों से लड़ेंगे और जीतेंगे जो कि लेखक के पुनरुज्जीवन में बाधा हैं.
मुरुगन के लेखक को मार देनेवाली ताकतों को इस उपन्यास की मूल संवेदना से कुछ लेना लादना नहीं है. उनके लिए निस्संतान स्त्रियों द्वारा एक स्थानविशेष के मंदिर के मेले में आपसी सहमति से विवाह-बाह्य, धर्मानुमोदित और सामाजिक स्वीकृति प्राप्त यौन-सम्बन्ध बनाने की प्रथा का उपन्यास में कथात्मक विनियोग 'आपत्तिजनक' है. इसे वे धर्मविरुद्ध, स्त्रियों की मर्यादा के विरुद्ध और उस इलाके के लिए अपमानजनक मानते हैं. क्या उपन्यासकार ने इस प्रथा की वकालत की है या उसका अनुमोदन किया है? ज़ाहिर है 'नहीं'. कहानी की तर्क-योजना और संवेदनात्मक उद्देश्य में उक्त प्रथा की हिमायत या आलोचना का कोई काम ही नहीं है. लेकिन ज़रा प्राचीन ग्रंथों पर नज़र डालें और देखें कि 'नियोग' की प्रथा को कितने धर्मशास्त्रों की सम्मति प्राप्त थी. भारतरत्न पंडित पांडुरंग वामन काणे ने गौतम, वसिष्ठ, बौधायन, याज्ञवल्क्य, नारद, कौटिल्य आदि धर्मसूत्रकारों की सम्मतियों उद्धृत की है तथा महाभारत के आदिपर्व, अनुशासनपर्व और शांतिपर्व में नियोग के उदाहरणों और संकेतों की चर्चा की है. (धर्मशास्त्र का इतिहास-प्रथम भाग) मुरुगन की पुस्तक जलानेवाले तत्व इन धर्मसूत्रों और महाभारत के बारे में क्या ख्याल रखते हैं? शास्त्र और लोक की बात छोड़ भी दें, तो क्या मानवशास्त्र का अध्ययन यह नहीं बताता कि ऐसी प्रथाएं लगभग सभी प्राक-आधुनिक समाजों में रही आई हैं? यह भी कि आधुनिक समय में भी तमाम प्राक-आधुनिक प्रथाएं रूप बदलकर क्या अपनी निरंतरता नहीं बनाए रखतीं? मुरुगन ने किसी प्रथा पर कोई मूल्य निर्णय नहीं दिया है, अच्छा या बुरा नहीं कहा है, उन्होंने सिर्फ एक कोमल कहानी कही है जो एक समाज में जन्मी है. उस समाज की कुछ प्रथाएं और मान्यताएं हैं जो उस समाज में जी रहे लोगों के जीवन से लिपटी हैं, उन्हें कोई कथाकार, इतिहास-लेखक या नृतत्वशास्त्री कृत्रिम ढंग से काट कर अलग नहीं कर सकता. ऐसा करना खुद को झूठा साबित करना है, कला और समाज दोनों से गद्दारी है. मुरुगन ने ऐसा करने से इनकार किया है, लेखक की मृत्यु की कीमत चुका कर भी. लेकिन पाठकों और जागरूक नागरिकों का प्यार उन्हें वापस लौटा लाएगा. ज़रूर ही लौटा लाएगा. (समकालीन जनमत से साभार)
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