Tuesday, 2 December 2014

मनमोहन

इन शब्दों में, वह समय है, जिसमें मैं रहता हूँ
ग़ौर करने पर उस समय का संकेत भी यहीं मिल जाता है।
जो न हो लेकिन मेरा अपना है
यहाँ कुछ जगहें दिखाई देंगी, जो हाल ही में ख़ाली हो गई हैं
और वे भी, जो कब से ख़ाली पड़ी हैं
यहीं मेरा यक़ीन है, जो बाकी बचा रहा,
यानी जो ख़र्च हो गया, वह भी यहीं पाया जाएगा
इन शब्दों में मेरी बचीखुची याददाश्त है
और जो भूल गया है, वह भी इन्हीं में है
कला का पहला क्षण, कई बार आप
अपनी कनपटी के दर्द में अकेले छूट जाते हैं
और कलम के बजाय तकिये के नीचे या मेज़ की दराज़ में
दर्द की कोई गोली ढूँढते हैं
बेशक जो दर्द सिर्फ़ आपका नहीं है
लेकिन आप उसे गुज़र न जाने दें, यह भी हमेशा मुमक़िन नहीं
कई बार एक उत्कट शब्द, जो कविता के लिए नहीं
किसी से कहने के लिए होता है
आपके तालू से चिपका होता है और कोई नहीं होता आसपास
कई बार शब्द नहीं, कोई चेहरा याद आता है या कोई पुरानी शाम
और आप कुछ देर
कहीं और चले जाते हैं रहने के लिए
भाई, हर बार रुपक ढूँढ़ना या गढ़ना मुमक़िन नहीं होता
कई बार सिर्फ़ इतना हो पाता है
कि दिल ज़हर में डूबा रहे और आँखें बस कड़वी हो जायें

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