Thursday, 25 December 2014

विश्व पुस्तक मेले की पदचाप और वर्ष 2013-14 की कुछ किताबें

विश्व पुस्तक मेले की पदचाप अभी से सुनायी देने लगी है। इस बार मेला 14 फरवरी 2015 से शुरू होने वाला है। तय है, ऐसे में रचनाकारों और सुधी पाठकों के मन में पुस्तक चयन की जिज्ञासा भी हिलोरें ले रही होंगी। वर्ष 2013-14 का सिंहावलोकन कर लें तो तस्वीर कुछ साफ-साफ सी दिख जाती है। रचनात्मक श्रेष्ठता को लेकर कोई सीधा पैमाना नहीं, फिर भी विद्वान विश्लेषकों के चयन-क्रम को भरोसे का मान कर चलें तो वर्ष 2014 के कविता संग्रहों पर लाल्टू लिखते हैं -
'' हिंदी में अच्छे स्तर की कविताएँ खूब लिखी जा रही हैं। वर्ष 2014 में करीब पंद्रह कविता-संग्रह मेरे पास आए हैं। ज़ाहिर है यह सीमित संख्या है और सिर्फ़ इनके आधार पर पूरे कविता परिदृश्य पर कहना कठिन है। इनमें कुछ तो वरिष्ठ रचनाकारों की हैं - केदारनाथ सिंह : 'सृष्टि पर पहरा (राजकमल)', नन्दकिशोर आचार्य की किताबें 'मृत्यु शर्मिंदा है ख़ुद' और 'मुरझाने को खिलाते हुए' (सूर्य प्रकाशन, बीकानेर), दिवंगत कवि वेणु गोपाल की अप्रकाशित कविताओं का संग्रह 'और ज़्यादा सपने (दख़ल)', शरद कोकास : 'हमसे तो बेहतर हैं रंग (दख़ल)', मोहन डहेरिया : 'इस घर में रहना एक कला है (दख़ल)', सुधीर रंजन सिंह : 'मोक्षधरा (राजकमल)' और हरिओम राजोरिया: 'नागरिक मत (दख़ल)'. बाकी सभी युवा कवियों के संग्रह हैं. इस वर्ष सिर्फ़ एक स्त्री कवि का संग्रह मुझे मिला है, प्रसून प्रसाद : 'जंगल जो दरवाज़े पर शुरू होता है' (सतलुज)'।
'' केदार की किताब पर तो क्या कहें, उन्हें इस साल ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। ताज़ा संग्रह में मुझे सबसे ज़्यादा 'भोजपुरी' शार्षक कविता ने प्रभावित किया। आज जब भाषाएँ विलुप्त होती जा रही हैं, अनोखे ढंग से केदार ने मातृभाषा के लिए कहा है, '...क्रियाएँ खेतों से...संज्ञाएँ पगडंडियों से...बिजली की कौध और महुए की टपक ने ..दी थीं..ध्वनियाँ'। नन्दकिशोर जी की कविताओं में सघनता होती है। दोनों संग्रह एकांत में बैठ पढ़ने की माँग करते हैं। इसके विपरीत वेणुगोपाल की कविताएँ अपने अपेक्षित तेवर के साथ हमारे सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करती हैं। पर साथ ही कुछ कविताएँ अंदर की ओर झाँकती भी हैं। 'फूलों में क़ैद कवि' कविता में वे कहते हैं - 'वह यह तो जानता है कि दीवारें कैसे तोड़ी जा सकती हैं/ लेकिन फूलों के आगे वह लाचार है।' शरद कोकास, मोहन डहेरिया, सुधीर रंजन सिंह और हरिओम राजोरिया पिछली सदी के आखिरी दशकों में उभरे प्रतिबद्ध कवियों में से हैं और उनके ताज़ा संग्रहों के विविध रंग की कविताओं में उसी की झलक है।
'' युवाओं में चुनकर नाम लेना ग़लत होगा क्योंकि विविध होते हुए भी कमोबेश एक स्तर की कविताएँ कई युवा कवि लिख रहे हैं। मेरे पास मौजूद संग्रहों में कुछ उल्लेखनीय हैं, दख़ल प्रकाशन से शिरीष मौर्य: 'दन्तकथा और अन्य कविताएँ', अशोक कुमार पाण्डेय: 'प्रलय में लय जितना', तुषार धवल : 'ये आवाज़ें कुछ कहना चाहती हैं', जसम की प्रकाशित मृत्युंजय की 'स्याह हाशिए'। इन सब की कविताओं में कई तरह की बेचैनी है। यह बेचैनी कविता रचने की और सार्थक कुछ कह पाने की भी है। प्रसून की कविताओं में अलग ढंग की परिपक्वता है जो आगे के लिए उम्मीद जगाती हैं। समकालीन सामाजिक मुद्दों के अलावा अपने परिवेश के प्रति खास संवेदनशीलता इनकी कविताओं में हैं। कहना न होगा कि ये अपनी उम्र में पिछली पीढ़ियों से अधिक पढ़े-लिखे और सचेत दिखते हैं।
'' हिंदी कविता में जनपक्ष मुखर रहा है, इसलिए कइयों को लगता है कि साफबयानी न हो तो कविता सार्थक नहीं है। इस वजह से शब्दों का अतिरेक होना और प्रयोगों से परहेज आम बात है, जबकि प्रयोगधर्मी होना और नए अंदाज़ की तलाश कविता-कर्म की शर्त है। अक्सर समकालीन प्रसंग को सीधे-सीधे कह देने को ही लोग कविता मान लेते हैं। ऐसी कविता रेटरिक में आगे हो सकती है, पर यह सोचना चाहिए कि वह पिछली पीढ़ियों से किस मायने में अलग है। जीवन में अपने विचारों के पक्ष में सक्रिय होना ज़रूरी है, कविता में बयान करके बच निकलना तो बेईमानी है। इन बातों को मैं अपने लिए सबसे पहले कह रहा हूँ। दूसरे कवि सहमत नहीं भी हो सकते हैं।
विष्णु खरे, उदय प्रकाश, निर्मला जैन, कात्यायनी, अपूर्वानंद, बद्री नारायण, चंद्र भूषण, अनिल यादव, बजरंग बिहारी तिवारी, रंगनाथ सिंह की दृष्टि से वर्ष 2013 की उल्लेखनीय किताबें रही हैं - नए युग में शत्रु/मंगलेश, विभास/यतींद्र, समय स्वप्न/सविता सिंह  मोनालिसा की आँखें/सुमन केशरी, सृष्टि पर पहरा/केदारनाथ सिंह, जितने लोग उतने प्रेम/लीलाधर जगूड़ी, समकालीन परिदृश्य में स्त्रीवादी कविता/ओमलता, मानुषखोर/गंगा प्रसाद विमल, अर्धवृत्त/मुद्राराक्षस, चूड़ी बाज़ार में लड़की/कृष्ण कुमार, जाति और वर्ग- एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण/रंगनायकम्मा, भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास/मोहनदास नैमिशराय, गंगा स्नान करने चलोगे/विश्वानाथ त्रिपाठी, एक क़स्बे के नोट्स/ नीलेश रघुवंशी, सम्पूर्ण कहानियाँ/मंज़ूर एहतेशाम, सृष्टि पर पहरा/केदारनाथ सिंह, स्त्री वग्ग/ऋतुराज, नये युग में शत्रु/मंगलेश डबराल, धरती अधखिला फूल है/एकान्त श्रीवास्तव, जितने लोग, उतने प्रेम/लाधर जगूड़ी, यात्रा में कविताएं/विष्णुचंद्र शर्मा, कोट के बाज़ू पर बटन/पवन करण, विभास/यतींद्र मिश्र, प्रोफ़ाइल/कमलेश, मनु को बनाती मनई/ज्ञानेंद्रपति, चूड़ी बाजार में लड़की/कृष्ण कुमार, 'सूरदास', रीतिकाव्य/नंद किशोर नवल, हिंदी रंगमंच की लोक धारा/जावेद अख़्तर ख़ान, भारतीय नवजागरण और समकालीन सन्दर्भ/कर्मेंदु शिशिर, दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ/ओमप्रकाश वाल्मीकि, समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध/अनिता भारती, प्रेमचंद और दलित विवाद/सुधीर प्रताप सिंह, शब्द और देशकाल/कुंवर नारायण, वे हमें बदल रहे हैं/बलवंत कौर, निराशा में भी सामर्थ्य/पंकज चतुर्वेदी, हिंदी में समाचार/अरविन्द दास, केंद्र में कहानी/राकेश बिहारी, विज्ञान का क्रमिक विकास/रामदास चौधरी, दर दर गंगे/अभय मिश्र, पंकज रामेंदु, बम संकर टन गनेस/राकेश कुमार सिंह, हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान/पुरुषोत्तम अग्रवाल, मशेर का संसार/रमण सिन्हा, मेरी यादों का पहाड़/देवेंद्र मेवाड़ी, ऑस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावे/रामजी तिवारी, मस्तूलों के इर्द गिर्द/विमल चंद्र पांडेय, मोनिका कुमार की अनछपी कविताएं, सूखी हवा की आवाज़/भूपिंदर बराड़, सेप्पुकु/विनोद भारद्वाज, सुनो चारुशीला/नरेश सक्सेना।

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