सुबह सुबह ही दफ्तर पहुंच गया। कहीं से कोई धुन सवार हो गया था कि इस स्टोरी को आज ही करनी है। दिल्ली फरीदाबाद सीमा पर मज़दूरों की विशालकाय बस्तियां बसी हैं। हम जल्दी पहुंचना चाहते थे ताकि हम उन्हें कैमरे से अचेत अवस्था में पकड़ सके। अखबारों में कोई विशेष खबरें नहीं थीं कि आज वृद्धोंं के लिए कोई दिन तय है। टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर दिखी जिसे कार में जल्दी जल्दी पढ़ने लगा। इतने प्रतिशत वृद्ध हैं। उतने प्रतिशत अकेले रहते हैं तो फलाने प्रतिशत गांव में रहते हैं तो चिलाने प्रतिशत शहर में। अपोलो अस्पताल से आगे धूल धूसरित मोहल्ले की तरफ कार मुड़ गई। वृद्ध आश्रम का बोर्ड दिखने लगा। शूटिंग ठीक से हो इसलिए पहले ही मोबाइल फोन बंद कर दिया। कभी करता नहीं पर पता नहीं आज क्यों बंद कर दिया।
सड़े गले शौचालय के पीछे का वृद्ध आश्रम। निम्नतम मध्यमवर्गीय इलाका। नियो मिडल क्लास नामकरण गरीबों के साथ धोखा है। जिसके पास किसी तरह से स्कूटर या कूलर आ जाए और उसके पास कच्चा पक्का सा मकान हो हमने उसे गरीब कहना छोड़ दिया है। नियो मिडिल क्लास कहते हैं ताकि लगे कि गरीबी खत्म हो गई है। मगर इनकी गरीबी उन पैमानों से भी खूब झांकती है। खैर मैं आश्रम के बड़े से दरवाज़े को ठेलते हुए अंदर आता हूं। जो देखा ठिठक गया। बहुत सारे वृद्ध। बेहतरीन साफ सफाई। डिमेंशिया और अलज़ाइमर के शिकार वृद्धों को नहलाया जा रहा था। फर्श की चमाचम सफाई हो चुकी थी। सबको कुर्सी पर बिठाया गया था। इज्जत और प्यार के साथ। कैमरा लगातार रिकार्ड किये जा रहा था।
इस संस्था के संस्थापक जी पी भगत कुछ दिन पहले दफ्तर आए थे। कहा कि आपको सम्मानित करना चाहते हैं। मैंने यूं ही पूछ लिया कि काम क्या करते हैं। सुना तो कहा सम्मान छोड़िये। बहुत मिल चुका सम्मान, अब उस तरफ देखने का मन भी नहीं करता। आपका काम अच्छा है तो कभी आऊंगा मगर बताकर आऊंगा। मैं गया बिना बताये। शायद यही वजह है कि उस जगह की कुछ गहरी छाप पड़ गई। तिरासी के साल में जे एन यू से कंप्यूटर साइंस में एम फिल करने वाले जी पी भगत ने अपनी जिंदगी बुजुर्गों के लिए लगा दी है। वो उनका पखाना और पेशाब अपने हाथों से साफ करते हैं। उनके साथ काम करने वाले भी हाथ से साफ करते हैं। भगत ने बताया कि कई बुजुर्ग तो ऐसी अवस्था में दिल्ली की सड़कों से मिले कि उनमें कीड़े पड़े हुए थे। उन्हें उठाकर लाना, नहाना, साफकर दवायें लगाना ये सब करते करते एक बुजुर्ग के पीछे साल गुज़र जाते हैं तब वे कुछ सम्मान जनक स्थिति में पहुंच पाते हैं। फिर तो उसके बाद अनुभवों का जो पन्ना खुलते गया मैं सुन सुनकर नया होने लगा। जो कुछ भी भीतर बना था वो सब धाराशाही हो गया।
भगत बताये जा रहे थे। जितिन भुटानी का कैमरा रोल था। हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा की आंखें भर आ रही थीं। मैं खुद हिल गया। फर्श की सफाई किसी अच्छे अस्पताल से भी बेहतर की गई थी। सबको प्यार से डायपर पहनाकर कुर्सी पर बिठा दिया गया था। दो चार लोग दिल्ली के घरों से फेंक दिये गए, कुछ बुजुर्ग भटक कर लापता हो गए। मैंने त्याग और करुणा का सर्वोच्च रूप देखा। भगत ने कहा कि लोगों को घिन आती है। पखाना पेशाब साफ करने में। इसलिए सड़कों पर छोड़ देते हैं। अस्पताल के बाहर छोड़ देते हैं। कई बुजुर्ग तो इस अवस्था में भी मिले कि उनके अंगूठों पर नीली स्याही के निशान ताज़े थे। ऐसा कई केस आ चुका है। संपत्ति के दस्तावेज़ पर अंगूठा लगवाकर इन बुजुर्गों को लोग फेंक देते हैं। स्याही सूखने का इंतज़ार भी नहीं किया। कई लोग तो फोन कर छोड़ देते हैं कि दस बारह हज़ार का महीना ले लो लेकिन अपने पास रख लो। भगत ने कहा कि मैं काफी समझाता हूं कि अपने पास रखिये फिर उनके सामने कड़ी शर्तें रखता हूं कि मिलने नहीं दूंगा मगर कोई यह नहीं कहता कि दूर से भी देख लेने देना। मां बाप को छोड़ कर जाते हैं तो दोबारा नहीं आते। एक बेटी से कहा कि फिर नहीं आओगी तो उसने कहा मंज़ूर है। फिर कहा कि देखो अगर तुम्हारी मां गुज़र गईं तो अंतिम संस्कार भी नहीं करने दूंगा तो उस पर भी वो मान गई। ऐसे तमाम बेटों की कहानी है कि पता चल गया कि मां बाप यहां हैं। कोई लंदन है कोई लुधियाना तो कोई अफसर मगर कोई लेने नहीं आता।
भगत के पास समाज की जो हकीकत है वो न तो ओबामा के पास है न मोदी के पास न किसी पत्रकार के पास। उनका अनुभव बोले जा रहा था। बुजुर्ग औरतें और पुरुष भगत और उनके सहयोगियों को बहुत प्यार करते हैं। सोहन सिंह को हिन्दू महिला सोहन कहती है तो मुस्लिम हैदर। सोहन ने बताया कि जो नाम याद आता है इन्हें बुला लेती हैं। भगत ने कुर्सी पर कोने में दुबके पांडे जी से कहा कि ये सिर्फ केला खाते हैं। मैंने कहा कि ये कैसे पता चला। तो कहने लगे कि महीनों तजुर्बा करते करते समझ आ गया। जो डिमेंशिया या अलज़ाइमर के मरीज होते हैं उन्हें अपने बच्चों के नाम याद रह जाते हैं। पोते पोतियों के नाम याद रह जाते हैं। जाति याद नहीं रहती मगर धर्म याद रहता है और हां स्वाद याद रहता है। इसलिए बाकी लोग स्वादिष्ट दलिया और हार्लिक्स पी रहे हैं मगर पांडे जी केला खा रहे हैं। आश्रम के सेवक कुछ औरतों को खैनी खिला रहे थे। कहा कि इसकी आदत है नहीं दो तो रोने लगती हैं।
भगत ने अमीरी गरीबी का भी भेद खोल दिया। कहा कि कई अमीर हैं जो अपने मां बाप की खूब सेवा करते हैं। तब पता चलता है जब वे उनके गुजरने के बाद महंगी मशीने और डायपर लेकर आते हैं। दान देने के लिए। मगर अमीर ही अपने मां बाप को सड़कों पर छोड़ देते हैं। हां लेकिन गरीब अपने मां बाप को नहीं फेंकता है। वो सेवा कर लेता है। कहा कि दान मांग कर और खुलकर मांग कर इनकी सेवा करता हूं। ऐसा हिसाब लगा रखा है कि पैसा बचेगा ही नहीं। बचने से समस्या पैदा होती है। मैंने खुद देखा। बेहतरीन साफ सफाई के साथ खाना बन रहा था। सबको अच्छे कपड़े दिये गए थे। हैदर ने बताया कि एक बार घिन आ गई तो किसी बुजुर्ग के पखाने को ब्रश से साफ कर दिया। भगत जी तो भगाने लगे कि भागो यहां से। ब्रश से जख्म हो जाएगा। हाथ से साफ करो। अब सामान्य ही लगता है सबकुछ।
उस आश्रम में अनगिनत किस्से हैं। हर किस्सा आपको गिरा कर नए सिरे से खड़ा कर देता है। भगत जी ने कहा कि हम सबका धर्म के हिसाब से संस्कार करते हैं। हज़ार लोगों का अंतिम संस्कार कर चुका हूं। अब तो मेरे पास चार आदमी हैं मगर जब यह काम शुरू किया था तब अपने हाथ से उठाकर मृत शरीर को गली के बाहर तक ले जाता था। मुझे तो हिन्दू मां भी बेटा कहती है तो मैं हिन्दू हो गया, मुस्लिम मां भी बेटा कहती है तो मुसलमान हुआ जब मां मुसलमान है तो बेटा भी मुसलमान हुआ, ईसाई मां ने बेटा कहा तो ईसाई हो गया। उनकी इस बात ने छलका दिया मुझे। हम किन वहशी लोगों के गिरफ्त में आ जाते हैं। धर्म पहचान कर अलग कर देते हैं। आश्रम की तख्ती पर कुरान की आयतें, गुरु नानक देवजी, ईसा मसीह के बगल में दुर्गी जी, कबीर,रविदास जी। सब एक साथ। ये होती है इंसानियत की इबादत। इंसानों को भगवान मानकर सेवा की तब भगवान एक से लगने लगे।
जो देखा खुद को काफी भरोसा देने वाला था। भगत ने कर के दिखाया है। उनके नब्बे साल के पिता ने कहा कि मैं नहीं भी रहा तो भगत के मां बाप हमेशा दुनिया में रहेंगे। इतने लोग इसे बेटा बेटा कहते हैं तो कभी होगा ही नहीं कि इसकी कोई मां नहीं होगी, इसका कोई पिता नहीं होगा। मैं नहीं रहूंगा तो क्या हुआ। इस कहानी ने भीतर तक तर कर दिया। सहयोगी सुशील बहुगुणा ने कहा कि फुटेज देखकर रोना आ गया। मैं यही सोचता हुआ दफ्तर से निकला कि इसे कहते हैं आदमी होने की सर्वोच्च अवस्था जब आप पखाने में उतरकर उसकी सेवा कर दें। कार में बैठा ही था कि कई मिस्ड काल नज़र आने लगे तो सुबह आए होंगे। सूचना मिली कि मेरी अपनी बड़की माई गुज़र गईं हैं। दो बुजुर्गों की दुनिया में बंट गया। हमारे बाबूजी को बहुत प्यार करती थी, कहती थीं मेरा देवर होता तो ये कर देता वो कर देता। छठ के समय बड़किया का बनाया रसियाव आज तक याद है। बचपन की स्मृतियों का आधार है। कसार अब नहीं खा सकेंगे। वो चली गई। इस वक्त जब मैं यह लिख रहा हूं मेरे बड़े भैया उन्हें अग्नि दे चुके हैं। बता रहे थे कि हम सब घाट पर हैं। अगर भगत से नहीं मिला होता तो इस खबर से मैं टूट जाता । मगर भगत के माता-पिता की कहानी सुनकर लगता है कि मेरी बड़किया किस्मत वाली है। उसकी बहू ने खूब सेवा की, बेटे ने भी की। संपन्न बेटी- दामादों ने की या नहीं मालूम नहीं। किया ही होगा। बिना जाने कुछ नहीं कहना चाहिए मगर भगत की बातें सुनकर बिना जाने यकीन भी नहीं होता। अपने रिश्तेदारों से न के बराबर संपर्क रखता हू। भगत का स्केल देखकर ऐसा लग रहा था कि हमने भी अपने बाबूजी की कम सेवा की। मां की कम सेवा करता हूं। मुझे लगता है कि बहुत ख्याल रखता हूं मगर कोई भगत के भाव की बराबरी नहीं कर सकता है।
बड़का बाबूजी भी कमज़ोर हो गए हैं। दोनों एक दूसरे को खूब प्यार करते हैं। चंद दिनों पहले पटना के अस्पताल में बड़किया भरती थीं। उन्होंने मेरी भाभी से कहा कि तुम लोग हमको जिया दोगे आ बेतिया में हमार बुढऊ के कुछ हो जाई त। ले चलो वहां। बेतिया में बड़का बाबूजी ने खाना बंद कर दिया था कि मेरी बुढ़िया को पटना ले गए हैं। नहीं बच पाई तो। क्या लव स्टोरी है। आज बड़किया का देवर बहुत याद आ रहा है।
(रवीश के ब्लॉग 'कस्बा' से साभार)
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