Thursday, 30 October 2014

हम औरतें / वीरेन डंगवाल

रक्त से भरा तसला है,
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग,
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !

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