आकि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परी ख़ाना बना रखा था
जिस की उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था.
(फैज की इस नज़्म के बारे में फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था.- 'उर्दू की इश्किया शाइरी में अब तक इतनी पवित्र, इतनी चुटीली और इतनी दूरदर्शी और विचारात्मक नज़्म वजूद में नहीं आई. नज़्म नहीं है बल्कि जन्नत और दोज़ख़ के एकत्व का राग है. शेक्सपियर, गोएटे, कालीदास और सा‘दी भी इससे ज़्यादा रक़ीब (इश्क में प्रदिद्वन्दी) से क्या कहते, इश्क और इन्सानियत के ख़ूबसूरत सम्बन्ध को समझना हो तो ये नज़्म देखिए.')
जिसने इस दिल को परी ख़ाना बना रखा था
जिस की उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था.
(फैज की इस नज़्म के बारे में फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था.- 'उर्दू की इश्किया शाइरी में अब तक इतनी पवित्र, इतनी चुटीली और इतनी दूरदर्शी और विचारात्मक नज़्म वजूद में नहीं आई. नज़्म नहीं है बल्कि जन्नत और दोज़ख़ के एकत्व का राग है. शेक्सपियर, गोएटे, कालीदास और सा‘दी भी इससे ज़्यादा रक़ीब (इश्क में प्रदिद्वन्दी) से क्या कहते, इश्क और इन्सानियत के ख़ूबसूरत सम्बन्ध को समझना हो तो ये नज़्म देखिए.')
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