Tuesday, 4 February 2014

शंभुनाथ सिंह

सोन हँसी हँसते हैं लोग
हँस-हँस कर डसते हैं लोग।
रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से।
नागफनी को बाहों में
हँस-हँस कर कसते हैं लोग।

जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर।
अपने ही बुने जाल में
हँस-हँस कर फँसते हैं लोग।

चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में।
भूतों के इन महलों में
हँस-हँस कर बसते हैं लोग।

भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से।
भीड़ों के इस दलदल में
हँस-हँस कर धँसते हैं लोग।

वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग।
अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
हँस-हँस कर ग्रसते हैं लोग।

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