Saturday, 4 January 2014

छछनी छछन्न करे, टाटी-बेड़ा बन्न करे

काकी की कहावत-1

जब हम कोई सही बात कहते हैं, उसका भी एक गलत पक्ष होता है (सोचने वालो के लिए)। 'पुरुष-अर्थी' समाज में 'तिरिया चरित्र' का अर्थ नहीं समझाया जाता है। काका गांव में किसी भी ऐसे किस्सा-कहानी पर ये कहावत छाप देते थे- 'छछनी छछन्न करे, टाटी-बेड़ा बन्न करे' (कि ऐसी है नहीं, दिखाने की कोशिश कर रही है)। उस समय हम सुनते ही हंस देते थे। आज समझ में आता है कि काका पूरी औरत जात की हंसी उड़ाते थे। 'पुरुष-अर्थी' समाज की पुरानी आदत है। जो किसी लायक नहीं, वह भी औरतों, मेहनतकश जातियों और समुदायों के प्रति अनादर व्यक्त करके ही अपने को आदरणीय दिखाने की कोशिश करता है। अरे, तुलसीदास तक इस लपेटे में आ गए तो औरों की क्या कहें। स्त्रियों, पंजाबी समाज, यादवों और दलितों पर सबसे ज्याादा कहावतें पढ़ने-सुनने को मिलती हैं।
इस समय 'छछनी छछन्न करे, टाटी-बेड़ा बन्न करे', का अर्थ राजनीतिक दलों पर सबसे सटीक बैठता है। मतदाताओं की आंख में धूल झोकने के लिए टाटी-बेड़ा (परदेदारी) कर वे कितनी तरह से छछन्न (नखरें) करती हैं...उनके नेता जोकरों की तरह कभी तलवार लेकर, कभी टोपी, कभी नोटो की माला पहन कर, कभी पटेल की मूर्ति बनाने के लिए गांव-गांव से लोहा बटोरने का अभियान चलाकर, कभी जनता का ही पैसा जनता को देते हुए मनरेगा-मनरेगा चिल्लाकर तो  कभी मेट्रो में सफर कर जनता को भरमाने की कोशिश करते हैं.....छछनी छछन्न करे, टाटी-बेड़ा बन्न करे!

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