Wednesday, 18 December 2013

कोई एक घर टूटने के बहाने......

जयप्रकाश त्रिपाठी

बशीर बद्र को सुन रहा था कि 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में'। बस, ये ही पांच-सात शब्द मन में अटक गए। आगे की 'घर जलाने' वाली पंक्ति भूल कर मन इसी पेंच में कस गया कि कोई कैसे घर बनाता है, घर क्या सिर्फ दो-चार चुनिंदा दीवारों का नाम होता है, जब हम शहर बदलते हैं, नये ठिकाने पर होते हैं, पुराना ठिकाना छोड़ चुके होते हैं, शहर के किस्सी भी हिस्से में घूम-फिर कर मन वहीं क्यों लौट-लौट जाता है, अपने घरौंदे के बाहर का सब कुछ अजनबी या पराया क्यों बना रह जाता है?

जैसेकि हम पहले से इतने टूटे हुए, बिखरे हुए, अपने में सिमटे-दुबके हुए रहने के आदती हो चुके होते हैं कि चौखट के बाहर का कुछ भी चौखट के भीतर जैसा नहीं लग पाता है। हमारे एहसास में तब खलल पड़ता है, जब चौखट के भीतर कुछ टूटता है, जरा-सा भी। बाहर जितना भी ज्यादा टूट-फूट रहा हो, अंदर के तर्क ओढ़ कर हमारा मन उस कोलाहल से आगे भाग लेता है.......

इसलिए मुझे बशीर बद्र की पंक्ति  'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में'...सिर्फ 'मकान' के सेंस में नहीं लगती, उसके ढेर सारे अर्थ खुलने लगते हैं मेरे अंदर। अतीत में कितना-कुछ टूटता-बिखरता गया, वे कौन-कौन थे जिन्होंने मुझे तोड़ा-बिखेरा, बार-बार मैं खुद भी क्यों टूट जाया किया, क्या जाने-अनजाने मुझसे भी कहीं कुछ किसी के हिस्से का टूट-फूट गया.....

और आज भी अक्सर टूट लेता हूं अपने मन की दीवारों के अंदर, क्यों? कैसे-कैसे बिखर लेता हूं अनायास....कि उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, वह मेरे बारे में वैसा क्यों सोचता है, मेरे मन की दीवारों के अंदर अब कहकहे क्यों नहीं गूंजते, टूट गईं क्या ये दीवारें, उन विचारों के बवंडर क्यों नहीं उमड़ते, जिनमें समाया हुआ कभी हवा के संग संग दूर-दूर तक उड़ता चला जाता था, किताबें होती थीं, अलग-अलग जिंदगियों की मेले होते थे, यात्राओं और शब्दों की जादूगरी में किसी के भी पीछे ये घर अपनी जड़ें पीछे छोड़ कर भागने लगता था !

 ये घर अब इतने सन्नाटे में क्यों है, चौखट के बाहर का सब कुछ फिर से इतना अजनबी क्यों हो लिया, किसने तोड़ दिया है इन दीवारों को, इन जैसे ढेर सारे सवालों के सिरे से जब भी मैं 'घर' को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करता हूं, बाहर का सब टूटा-फूटा नजर आता है, जो छतें सही-सलामत दिख-जान पड़ती है, घूर-खंगाल कर उससे में प्रायः उदास हो लेता हूं.... जब उधर से भी उन्मुक्त हंसी कीबरसातें नहीं हुआ करतीं, न गीतों में कोई निराला या आवारा मसीहा आश्वस्त कर रहा होता है....

शायद टूटने का अर्थ छूटना भी होता होगा.....

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