जयप्रकाश त्रिपाठी
डमरू ने किताब लिख तो ली, छपवा भी ली, अब लोग उसे पढ़ेंगे कैसे, और उसके महान विचारों का पूरे दिग-दिगंत में हाहाकार कैसे मचेगा, इसी फेर में दुबला होते-होते सूख कर कांटा हुआ जा रहा है।
डमरू प्रसिद्ध होना चाहता है। प्रसिद्धि की भूख ने उसके रोजमर्रा की इतनी ऐसी तैसी कर रखी है कि चिंता से चश्मे का नंबर भी दुबरा गया। जेब में पैसा नहीं कि दूसरा नंबर ले ले।
पिछले कई वर्षों से वह फरवरी की सूखी सर्दियों में दिल्ली के पुस्तक मेले जरूर हो आता है। पिता रेलवे में अधिकारी थे। तुकबंदी करते थे। बचपन में उसे कविता का शोौक लगा गए।
धूमिल के मोचीराम को पढ़ने के बाद डमरू ने पहली कविता लिखी- सुई। दूसरी कविता का शीर्षक रखा- पत्ती (ब्लेड)। नश्तर लिख ही रहा था कि रात भर के जगे-अलसाये पिता की नजर पड़ गई उस पर। अच्छा, तो पढ़ाई-लिखाई छोड़कर कविताई हो रही है!
उसके कुछ माह बाद डमरू गांव-जवार के ठेठे मुहावरे जुटाने लगा। अच्छा-खासा संग्रह हो गया तैयार। आखिरी के पन्नों पर सुई-नश्तर वाली कविताएं भी। एक कवि-कुल-गुरू का शरणागत हुआ। आशीर्वाद के साथ आज्ञा मिली कि बस चटपट इसे छपा ही डालो।
अब छपाई के पैसे कहां से आएंगे! मम्मी का शरणागत हुआ। वात्सल्य प्रलाप के बाद वह भी जुगाड़ हो गया। टीटी पापा सप्ताह भर में एक सैकड़ा यात्रियों को मूस लाए। छप गई किताब।
इन दिनो डमरू को 'मुहावरेदार सुई-नश्तर' के पाठकों की बड़ी बेसब्री से तलाश है!
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