आज कल बाबाजी का टिल्लू खूब चल रहा है। चला रहे हैं कलर्स पर कपिल शर्मा और उनकी मंडली के हंसोड़िए।
मीडिया में तरुण तेजपाल का इससे आशय नहीं हो सकता है।
प्रेस परिषद खामोश है। छाती पीट-पीट कर खूब लिखा जा रहा है। ऐसे-ऐसे कलमकार कि उन पर सौ-सौ गंगापुत्र निछावर जाएं।
पूरे मीडिया का ब्रह्मचर्य 'एकोहम, द्वितीयो नास्ति' वाचन कर रहा है। जबकि मीडिया हाउसों के अंदरखाने की हकीकतें जिन्हें मालूम हैं, बखूबी बच-बचाकर बगले झांकते हुए वे भी सद्चरित्रता के श्लोक पढ़ने से नहीं चूक रहे हैं।
चरित्र की बहती गंगा (फिल्मी) में उनके मुखौटे उतरते हुए यहां भी साक्षात देखा जा सकता है कि वे क्या लिख-पढ़ रहे हैं, क्या-क्या देख-दिखा रहे हैं...
ऐसे कइयों के बारे में पता है, जो चप्पलों से पिटे हैं। ऐसे महान चरित्रवानों में जो नहीं पिटे हैं, उनकी भी जाने-अनजाने भद्द पिटने की कहानियां आम रही हैं।
मीडिया समारोहो में इस तरह के दृश्य आम रहते हैं। बस गौर से देखने की जरूरत है कि कौन किधर टकटकी लगाए है, कौन किससे सुअर-संवाद (स्त्रैणता) में चिपटा हुआ है।
बड़े-बड़े चेहरे हैं, जिनसे नकाब खींच दी जाए तो तरुण तेजपाल के अपयश को हजारो मील पीछे छोड़ जाएंगे। बस उनकी ढंकी-तुपी है। महान हैं।
काश, उन तरुणवानो की भी गाहे-बगाहे कलई उतरती जाए तभी उम्मीद की जा सकेगी कि मीडिया में स्त्रियों का आगत अतीत सकुशल रह सकेगा।
मीडिया-मुखौटों में ऐसे-ऐसे बाबाजी के टिल्लू भरे पड़े हैं कि अपने लिखे के ठीक विपरीत आचरण करने के बावजूद उनके सदाचार की शेखियां सुन सीता-सावित्री भी दांतों तले अंगुली दबा लें। वे आचरण को अपने ढंग से पारिभाषित करते हैं, जीते हैं और पत्रकारिता का आए दिन जनाजा निकालते फिरते हैं।
मीडिया हाउसों के अंदर की अगर कोई ढंग से स्टिंग हो जाए तो बज जाएगा बड़़े-बड़ो का बाजा, यशस्वी टिल्लुओं की शामत आ जाए।
उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसा दिन जरूर आए और मीडिया को रौरव नर्क बनाने वाले शेखीबाजों के चेहरे से भी नकाब खिंचे......
मीडिया में तरुण तेजपाल का इससे आशय नहीं हो सकता है।
प्रेस परिषद खामोश है। छाती पीट-पीट कर खूब लिखा जा रहा है। ऐसे-ऐसे कलमकार कि उन पर सौ-सौ गंगापुत्र निछावर जाएं।
पूरे मीडिया का ब्रह्मचर्य 'एकोहम, द्वितीयो नास्ति' वाचन कर रहा है। जबकि मीडिया हाउसों के अंदरखाने की हकीकतें जिन्हें मालूम हैं, बखूबी बच-बचाकर बगले झांकते हुए वे भी सद्चरित्रता के श्लोक पढ़ने से नहीं चूक रहे हैं।
चरित्र की बहती गंगा (फिल्मी) में उनके मुखौटे उतरते हुए यहां भी साक्षात देखा जा सकता है कि वे क्या लिख-पढ़ रहे हैं, क्या-क्या देख-दिखा रहे हैं...
ऐसे कइयों के बारे में पता है, जो चप्पलों से पिटे हैं। ऐसे महान चरित्रवानों में जो नहीं पिटे हैं, उनकी भी जाने-अनजाने भद्द पिटने की कहानियां आम रही हैं।
मीडिया समारोहो में इस तरह के दृश्य आम रहते हैं। बस गौर से देखने की जरूरत है कि कौन किधर टकटकी लगाए है, कौन किससे सुअर-संवाद (स्त्रैणता) में चिपटा हुआ है।
बड़े-बड़े चेहरे हैं, जिनसे नकाब खींच दी जाए तो तरुण तेजपाल के अपयश को हजारो मील पीछे छोड़ जाएंगे। बस उनकी ढंकी-तुपी है। महान हैं।
काश, उन तरुणवानो की भी गाहे-बगाहे कलई उतरती जाए तभी उम्मीद की जा सकेगी कि मीडिया में स्त्रियों का आगत अतीत सकुशल रह सकेगा।
मीडिया-मुखौटों में ऐसे-ऐसे बाबाजी के टिल्लू भरे पड़े हैं कि अपने लिखे के ठीक विपरीत आचरण करने के बावजूद उनके सदाचार की शेखियां सुन सीता-सावित्री भी दांतों तले अंगुली दबा लें। वे आचरण को अपने ढंग से पारिभाषित करते हैं, जीते हैं और पत्रकारिता का आए दिन जनाजा निकालते फिरते हैं।
मीडिया हाउसों के अंदर की अगर कोई ढंग से स्टिंग हो जाए तो बज जाएगा बड़़े-बड़ो का बाजा, यशस्वी टिल्लुओं की शामत आ जाए।
उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसा दिन जरूर आए और मीडिया को रौरव नर्क बनाने वाले शेखीबाजों के चेहरे से भी नकाब खिंचे......
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