जयप्रकाश त्रिपाठी
ये जो है न फेसबुक....जो रोज यहां आते हैं प्रायः, टिके रह जाते हैं घंटों। दिन-दिन भर। अपने आसपास से मुक्त। विचरते हुए-से। कई एक रचते हैं। खेलने वाले भी। अनेकशः सिर्फ अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए पल-दो-पल की। अथवा उनमें से कई-एक किसी-न-किसी व्यावसायिक मकसद से भी। कई एक उपस्थितियां छिपे एजेंडे वाली। कई छिछोरेबाजी के लिए। शोहदे भी।
लेकिन वे सबसे ज्यादा, जो अपने दर्द साझा करते हैं यहां। अपने आसपास, अपने रोजमर्रा के चित्र खींचते हुए। कविताएं, कहानियां, वक्तव्य, अनुभवों की सौगात उलीचते हुए। यहां आने का उद्देश्य उलझा हुआ नहीं होता है उनका। कुछ-एक पंक्तियों पर नजर पड़ते ही वे खींच लेते हैं हमे अपने निकट। बहुत पास तक।
जैसे सुबह कभी शहर की सड़कों से गुजरते हुए खाली ठेले लिए सब्जी मंडी की ओर तेज रफ्तार से जाते हुए लोग दिख जाते हैं। कई-एक दूध के लिए हाथ में खाली डिब्बे लटकाए। बच्चे को स्कूल ले जाने वाली बस का इंतजार करते। दुकान खोलते हुए। और बगल की सड़क पर झाड़ुओं से धूल के बवंडर बरसाते हुए भी।
और वे भी तो! सुन्नर-मुन्नर कुत्तों की चेन थामे आम आदमियों पर हिकारत से नजर डाल कर स्वयं की महानता से खामख्वाह अभिभूत-आह्लादित होते हुए। उनके जैसों के पास महानता की सीढ़ियां, कई-कई तरह के पायदान ऊपर तक जाने के लिए। उनके घरों से अक्सर हार्ट अटैक की खबरें आती हैं। मौत भी उन्हें ज्यादा परेशान नहीं करती है।
नाली-कचरे की गुड़-मुड़र में अधजगी कुतिया की तरह पसरी हुईं सुबह की सड़कों से कई एक जन अपनी बोल-भाषा में बतियाते हुए दिख जाते हैं। जैसे कि क्यों आ गये हों वे यहां। क्योकि इधर के कचरे के ढेरों में भी मामूली हाथ-पैर चलाकर ज्यादा-कुछ मिल जाता होगा। उनमें कई एक के पास अपनी लकड़ी की गड़ारियों वाली ठेल होती हैं। एक ठेल पर उसकी अपाहिज स्त्री भी उठंगी हुई, कचरे के ढेर पर पॉलीथिन की एक-एक थैली खंगालते सिर्फ अपने पति को बड़े गौर से देखती हुई। एकटक, टुकर-टुकर।
जिनके हाथ में झबरीले कुत्ते की चेन हो। लगता है, उनके मन में शायद इस तरह के प्रश्न भी सुबह-सुबह जरूर कौंधते होंगे कि ऐसे कचरे वाले लोग इस सुंदर दुनिया में क्यों रहना चाहते हैं। इनके नहीं होने पर दुनिया और खूबसूरत हो जाएगी।इन्हें नहीं होना चाहिए। हों-न-हों, क्या फर्क पड़ता है। जीयें या मरें। छीईईईई...
ऐसा सोचने वालों के बारे में शायद उनके ऊपरी पायदान पर बैठे लोग भी इसी तरह के प्रश्न टीपते-टकटोरते रहते होंगे। वे लोग, जिनके नौकर कुत्ते की चेन थामे दिख जाते हैं । वे खुद नहीं।
वे बेचारे से।
नहीं पता कि हर किसी की चेन किसी-न-किसी की अंगुलियों में भिंची हुई। किसी न किसी की अक्ल तक फंसी-घुसी हुई रहती है।
जिन्हें कि ' दो टूक कलेजे को करते, पछताते, पथ पर आते' लोग रत्ती भर नहीं सुहाते हैं।
सचमुच दुनिया को जानवरों के बाड़े में तब्दील कर देने के लिए उनकी भी बेहूदा मशक्कत उनसे ऊपर के लोगों के लिए कितने काम की रहती होगी!
नहीं?
ये जो है न फेसबुक....जो रोज यहां आते हैं प्रायः, टिके रह जाते हैं घंटों। दिन-दिन भर। अपने आसपास से मुक्त। विचरते हुए-से। कई एक रचते हैं। खेलने वाले भी। अनेकशः सिर्फ अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए पल-दो-पल की। अथवा उनमें से कई-एक किसी-न-किसी व्यावसायिक मकसद से भी। कई एक उपस्थितियां छिपे एजेंडे वाली। कई छिछोरेबाजी के लिए। शोहदे भी।
लेकिन वे सबसे ज्यादा, जो अपने दर्द साझा करते हैं यहां। अपने आसपास, अपने रोजमर्रा के चित्र खींचते हुए। कविताएं, कहानियां, वक्तव्य, अनुभवों की सौगात उलीचते हुए। यहां आने का उद्देश्य उलझा हुआ नहीं होता है उनका। कुछ-एक पंक्तियों पर नजर पड़ते ही वे खींच लेते हैं हमे अपने निकट। बहुत पास तक।
जैसे सुबह कभी शहर की सड़कों से गुजरते हुए खाली ठेले लिए सब्जी मंडी की ओर तेज रफ्तार से जाते हुए लोग दिख जाते हैं। कई-एक दूध के लिए हाथ में खाली डिब्बे लटकाए। बच्चे को स्कूल ले जाने वाली बस का इंतजार करते। दुकान खोलते हुए। और बगल की सड़क पर झाड़ुओं से धूल के बवंडर बरसाते हुए भी।
और वे भी तो! सुन्नर-मुन्नर कुत्तों की चेन थामे आम आदमियों पर हिकारत से नजर डाल कर स्वयं की महानता से खामख्वाह अभिभूत-आह्लादित होते हुए। उनके जैसों के पास महानता की सीढ़ियां, कई-कई तरह के पायदान ऊपर तक जाने के लिए। उनके घरों से अक्सर हार्ट अटैक की खबरें आती हैं। मौत भी उन्हें ज्यादा परेशान नहीं करती है।
नाली-कचरे की गुड़-मुड़र में अधजगी कुतिया की तरह पसरी हुईं सुबह की सड़कों से कई एक जन अपनी बोल-भाषा में बतियाते हुए दिख जाते हैं। जैसे कि क्यों आ गये हों वे यहां। क्योकि इधर के कचरे के ढेरों में भी मामूली हाथ-पैर चलाकर ज्यादा-कुछ मिल जाता होगा। उनमें कई एक के पास अपनी लकड़ी की गड़ारियों वाली ठेल होती हैं। एक ठेल पर उसकी अपाहिज स्त्री भी उठंगी हुई, कचरे के ढेर पर पॉलीथिन की एक-एक थैली खंगालते सिर्फ अपने पति को बड़े गौर से देखती हुई। एकटक, टुकर-टुकर।
जिनके हाथ में झबरीले कुत्ते की चेन हो। लगता है, उनके मन में शायद इस तरह के प्रश्न भी सुबह-सुबह जरूर कौंधते होंगे कि ऐसे कचरे वाले लोग इस सुंदर दुनिया में क्यों रहना चाहते हैं। इनके नहीं होने पर दुनिया और खूबसूरत हो जाएगी।इन्हें नहीं होना चाहिए। हों-न-हों, क्या फर्क पड़ता है। जीयें या मरें। छीईईईई...
ऐसा सोचने वालों के बारे में शायद उनके ऊपरी पायदान पर बैठे लोग भी इसी तरह के प्रश्न टीपते-टकटोरते रहते होंगे। वे लोग, जिनके नौकर कुत्ते की चेन थामे दिख जाते हैं । वे खुद नहीं।
वे बेचारे से।
नहीं पता कि हर किसी की चेन किसी-न-किसी की अंगुलियों में भिंची हुई। किसी न किसी की अक्ल तक फंसी-घुसी हुई रहती है।
जिन्हें कि ' दो टूक कलेजे को करते, पछताते, पथ पर आते' लोग रत्ती भर नहीं सुहाते हैं।
सचमुच दुनिया को जानवरों के बाड़े में तब्दील कर देने के लिए उनकी भी बेहूदा मशक्कत उनसे ऊपर के लोगों के लिए कितने काम की रहती होगी!
नहीं?
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