Monday, 15 July 2013

चोरीचोरा (चौरीचौरा) चोरोवाली ट्रेन.. ये शहर चमड़े के लिए मशहूर है..कानपुर




जयप्रकाश त्रिपाठी

सब ताजा सा है यहां आप सबके साथ.....15 जुलाई

ट्रेन के अंदर सीन 1.
दिल्ली रेलवे स्टेशन से शुरू हुआ एक ट्रेन का अपराह्न। मुसाफिरों में मैं भी। लंबे-लंबे कंपार्टमेंट चेयरकार वाले। मेरी सामने की सीट पर कालिख से ज्यादा काले बालों वाले एक
थुलथुल सज्जन जल्दी-जल्दी (अपराह्न बाद वाला) नाश्ता भकोस रहे हैं। उनके भकोसने के अंदाज पर टुकर-टुकर एक बच्ची निगाह टिकाए हुए। उसके पापा बार-बार उधर से बच्ची का चेहरा दूसरी तरफ फेर देने की कोशिश में। थुलथुलजी रह-रहकर मुंब बिचका लेते हैं बाप-बेटी के दृश्य पर। बच्ची का पिता अंदर-ही-अंदर खुन्नस सा खाता हुआ। थुलथुलजी उसे सफर की दुश्वारी सी लगने लगते हैं। वह घूरता है थुलथुलजी को। थुलथुलजी भी उसे कस-कस कर घूरने लगते हैं। ट्रेन धड़धड़ाती भागती जा रही है अलीगढ़ की ओर। दादरी से आगे। बच्ची के चेहरे पर अचानक पिता की तेज चपत। वह चीख उठती है। थुलथुलजी सज्जनता का परिचय देते हुए स्वामी भाव से बच्ची के पिता को सीख देते हैं- इतना बेरहम न बनो, लो बेटा बिस्कुट खाओ। पिता बिस्कुट झपट कर फेंक देता है। थुलथुलजी को बड़ी शर्मींदगी महसूस हुई। उठ खड़े हुए (किसी तरह)। बच्ची का पिता उनसे ज्यादा फुर्ती में......
कहता हूं बैठ जाओ, बैठ जाओ वरना
वरना क्या कर लोगे, ऐं?
क्या कर लूंगा?
हांह-हांह क्या कर लोगे?
हांह-हांह?....ये जो तून नकली रंगी-रंगाई लुटकी सिर पर टांग रखी है न, अभी नोच कर तेरे हाथ पर धर दूंगा, समझे...रंगे सियार
देख तो कर के, बत्तीसी बाहर आ जायेगी
बच्ची जोर-जोर से रो रही है
अगल-बगल भरपूर रोमांच, एक महिला बड़े वजन से मुस्कराती हुई, कुछ लोग अत्यंत गंभीर। टीटी आता है। रोज का माजरा समझ बिना किसी से टिकट मांगे आगे के कोच की ओर कूच कर जाता है।
स्यार-संवाद जारी है....
देखो मुझसे जुबान मत लड़ाओ कहे देता हूं
तुम भी बात मत बढ़ाओ, क्या समझ कर मेरी बेटी को बिस्कुट दे रहा था, ऐं? टिकट भी खरीद कर दे देते न मुझे
अगल-बगल के लोग बीच-बचाव कर देते हैं
नाश्ता आ गया है
दोनो बैठ जाते हैं अपनी-अपनी सीट पर,

सीन 2.
एक हाथ टूटा नौजवान मेरे पीछे वाली सीट पर लगातार कुछ-न-कुछ बके जा रहा है
''... यार दिल्ली के पुलिस वाले बड़े चोर हैं। मैं सात साल से हूं यहां। एक दिन क्या हुआ कि अपने साथी को पीछे बाइक पर बैठाए मिंटो ब्रिज रहा था। रास्ते में पुलिस वाले ने रोक लिया। बोला-कागज दिखाओ,
कैसा कागज?
गाड़ी का।
गाड़ी कहां, ये तो बाइक है।
अरे वही।
''....मैं बोला- वकील साहब के साथ पान खाने जा रहा हूं तो कागज लेकर थोड़े जाऊंगा, कोई जाता है क्या?
''....कोई नहीं, पैसे देने पड़ेंगे, दो।
''....कैसे पैसे
''.....कागज साथ में न होने के
''.....अच्छा! और पैसे न दूं तो
''.....तो गाड़ी छोड़ जाओ यहां
''.....वाह भाई वाह, ये तो खूब लूट मची है। गाड़ी छोड़ जाऊं।'' मैं भी बाइक स्टैंड कर लिया हम दोनो तन लिये। पुलिस वाला सकपकाया। बोला जो जेब में पड़े हों, वही दे दो। जाओ। मैं बोला- जेब में चिल्लर हैं, पान खाने के लि। वह बोला वही दे दो। दे दिया सारा चिल्लर...13 रुपये। फिर बोला- मुझे भी पान खिला दो। मैं बोला जा नहीं तो.....स्साला, गरियाते हुए फुर्र हो लिये हम दोनो। बड़ा बुला हाल है दिल्ली का। उफ्।

तो ये ऐसे-ऐसे रोमांच सफर के......

सीन 3.
मेरे आगे वाली तीन सीट छोड़ कर चाचाजी ऊंघ रहे हैं। चाची भी। बनी-ठनी। चाचा अब तक छप्पन के, चाची अट्ठावन की। चाचा के कंधे पर बार-बार चाची का सिर जानबूझ कर (नये जमाने के हिसाब से) झूल जा रहा है। चाचा बार-बार चौंक कर अगल बगल से घूर रही आंखों में झांक लेते हैं। झेंप जाते हैं। चाची बेशर्म। मन मसोसते हुए कि कुछ तो शर्म करो दादी अम्मा अट्ठावन की हो गई हो। चाची कनखियां भांप लेती हैं पूरा माजरा। चाचा खुन्नस में। सिर झटक देते हैं। जैसे बाहर की बरसात से घर में घुसते हुए छाता फेंक दिया जाता है या स्कूल से लौट कर बच्चे बस्ता फेंक देते हैं।

सीन 4.
एक बच्ची तेरह चौदह साल की। अपने बाबा के साथ। बाबा कुरुप-से। गमछे में मुंह छिपाकर दमदार खांसियों का दौरा। बच्ची मुंह बिचका लेती है। अपने कुरुप बाबा के साथ सफर अनइजी फील करती हुई। कंधे से उन्हें इंडीकेट करती रहती है, ज्यादा मत खांसो न, इस तरह क्यों मेरी बेइज्जती करा रहे बाबा..... ना बाबा ना ... जरा कम खांसो,
खांसना ही है तो जरा अदा से खांसो ना बाबा.....

और, लो आ गए....
ट्रेन कानपुर सेंट्रल के आउटर पर पहुंच चुकी है। एनाउंसर की आवाज गूंजती है...अब आप उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर पहुंचने वाले हैं। ये शहर चमड़े के लिए मशहूर है...अपनी अपनी प्लास्टिक बोतल साथ ले जाइगा.....धन्यवाद

एक दिन के कुछ घंटे और.... बाद में

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