Sunday, 28 July 2013

मजनूँ का टीला / भैरव प्रसाद गुप्त



शरद-पूर्णिमा की रात भीग चुकी थी। चाँद जोबन पर था। चाँदनी की उज्ज्वल मुस्कान की आभा में नयी दिल्ली रुपहली हो स्वप्न-नगरी की तरह मोहक हो उठी थी। सुफेद-सुफेद इमारतें चाँदनी की सुफेदी में एक रूप हो गयी थीं। काली-काली, चमकीली सिमेण्ट की सडक़ें ऐसी लगती थीं, जैसे ज्योत्सना रानी ने अपनी रूपहली अलकों में काले-काले रेशमी फीते बाँध रखे हो।

चारों ओर छाये हुए रहस्यमय सन्नाटे को तीर की नोक की तरह चीरती एक किश्तीनुमा, सुफेद कार की धीमी भरभराहट की आवाज मिन्टो रोड पर बही जा रही थी। लगता था कि कार बिलकुल नयी है, और उसका चालक भरसक इस प्रयत्न में है कि कार चलने में और भी कम आवाज हो। काली मिन्टो रोड पर धीमी चाल से दौड़ती हुई सुफेद किश्तीनुमा कार ऐसी लगती थी, जैसे जमुना के श्यामल जल की मन्द-मन्द धार में चाँदी की एक नाव आप ही बही जा रही हो।

मोड़ पर कार दाहिनी ओर मुड़ी, और चालक ने आहिस्ते से ब्रेक लगाया। जरा-सी घर्र की आवाज हुई। कार एक घने वृक्ष के साये में खड़ी हो गयी। दो चमकती हुई आँखें, जिनमें किसी अपने प्यारे को देखने की उत्सुकता मचल रही थी, बायें दरवाजे पर झाँकने लगीं। कोई नजर न आया। पलकें और भी ऊपर उठीं। आँखें इधर-उधर हिली-डुलीं। फिर भी कोई नजर नहीं आया। तब दरवाजे के बाहर एक सुफेद हाथ निकला। कलाई पर रेडियम घड़ी भूत की आँख की तरह चमक उठी। उन आँखों ने देखा, छोटी सूई बारह पर थी और बड़ी सूई ग्यारह पर। 'अभी पाँच मिनट हैं,' साँस में ही मिली हुई एक आवाज आयी। आँखें अब भी घड़ी पर ही टिकी हुई थीं। छोटी सूई बारह पर थी और बड़ी ग्यारह पर। छोटी सूई और बड़ी सूई! 'ऊहूँ! गलत हैं। बड़ी सूई को बारह पर होना चाहिए और छोटी सूई को ग्यारह पर, क्योंकि बड़ी सूई संकेत स्थान पर पहुँच गयी है, पर छोटी सूई अभी पाँच मिनट बाद पहुँचेगी,' है मिसमिसाहट-भरी, अपने सें ही घुटी-सी आवाज आती गयी। फिर लगा, जैसे उन आँखों के सामने घड़ी की छोटी सूई ग्यारह पर आ गयी और बड़ी सूई बारह पर। आँखों के सामने हवा में एक धीमी कँपकँपाहट हुई। 'उफ, अगर ऐसा होता, तो मुझे पाँच मिनट के बदले पूरे एक घण्टे तक प्रतीक्षा करनी पड़ती! कम्बख्त घड़ी के आविष्कारक ने बड़ी सूई को घण्टे की और छोटी सूई को मिनट की सूई क्यों नहीं बनायी! उसे क्या पता नहीं था कि बड़ी सूई संकेत-स्थान पर सदा पहिले पहुँचती है, और छोटी सूई बाद में। शायद उसे पता न हो, शायद उसने अपनी जिन्दगी में कभी किसी लडक़ी को प्यार न किया हो।' फुसफुसाहट की आवाज अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि दरवाजे पर दाँतों की दो पंक्तियाँ चमक उठीं, जैसे किसी की बाँछें खिल गयी हों।

अब छोटी सूई बारह पर थी, और बड़ी सूई छोटी सूई पर। आँखें घड़ी से उडक़र सामने बिछ गयीं। सामने थोड़ी ही दूर पर चाँदनी-भरी हवा में एक सुफेद धब्बा हिलता-डुलता नजर आया। दरवाजे की चेन धीरे से दबी। एक हल्का-सा खटका हुआ, और दरवाजा खुल गया। कार से उतरकर एक सुफेद पोश युवक की आकृति पेड़ के साये में खड़ी हो गयी। हाथों ने उठकर गले की टाई की गाँठ ठीक की। पैण्ट की जेब से एक सुफेद हल्का-सा रूमाल निकला और चेहरे पर घूम फिरकर वापस जेब में चला गया। फिर नजरें सामने हुई। पुतलियों की धीमी कँपकँपाहट से ज्ञात होता था कि युवक के शरीर में एक हल्की सनसनाहट दौड़ रही है। अब सामने चाँदनी में एक सफेद पोश युवती के शरीर की वाह्य रेखाएँ उभरीं जैसे सुफेद आर्ट पेपर पर किसी युवती के कलापूर्णशरीर की वाह्र रेखाओं की छाप उठी हुई हो। उसका दाहिना हाथ हवा में उठा हुआ था, और उस हाथ की उँगलियों में एक काला रूमाल हिल रहा था। युवक ने मुँह से सीटी बजायी। लगा की शाख पर बुलबुल चहक उठी हो। युवती के शरीर की बाह्य रेखाओं में कम्पन हुआ। कानों ने आवाज की दिशा का संकेत किया। होठों पर 'मुस्कान थिरक उठी। सामने की चाँदनी जैसे और उज्ज्वल हो उठी। वह उस पेड़ की ओर बढ़ा। युवक की मुस्कराती आँखों के सामने युवती की तस्वीर सिनेमा की तस्वीर की तरह दूर से समीप आती गयी और स्पष्ट होती गयी। फिर साड़ी की हल्की सरसराहट और नरम कदमों की रबर के सैण्डिलों से निकलती हुई धीमी आवाज! युवक के हृदय की धडक़न कुछ तेज हो गयी। उसके पैर आप ही आगे को उठ गये। और दूसरे ही क्षण पेड़ की घनी छाया की पृष्ठ-भूमि पर श्वेत रेखाओं में नारी और पुरुष का घुला-मिला अजन्ता शैली का एक चित्र खिंच गया। फिर साँसों ही साँसों में उच्छ्वासों की भाषा में ही कुछ नन्हें-मुन्ने, प्यारे-प्यारे, अस्पष्ट शब्द!

युवक ने सहारा दे युवती को कार में बैठाया। फिर आप अन्दर हो, दरवाजा बन्दकर स्टार्ट की चाभी घुमायी। भर्र की एक आवाज हुई। कार एक हचकोला ले आगे सरकी। चाँदनी रात, मुस्कराती हुई फिजा, जिसमें जैसे मस्ती की बारिश हो रही हो, सुखमय निर्जनता और अकेली खुशनुमा कार धीमी हवा की रफ्तार से हमवार सडक़ पर चलती। प्रेमियों के जोड़े को लग रहा था, जैसे वे उडऩ खटोले में बैठे चाँद और तारों के देश की सैर कर रहे हैं।

कार चली जा रही थी। और भरभराहट में लिपटी हुई ये बारीक ध्वनियाँ धीमे पवन की लहरियों में अंकित होती जा रही थीं।

''तुम्हें बहुत देर तक इन्तजार तो नहीं करना पड़ा न?''

''नहीं। तुम बिल्कुल ठीक वक्त पर आ गयीं। मुझे डर तो था कि कहीं तुम्हें नींद न आ जाय।''

''नींद! इस खिलखिलाती चाँदनी में तो नींद का दिल भी मचल रहा होगा कि वह भी अपनी आँखें खोले इस मुस्कराते चाँद को एकटक रात भर देखा करे। पर बेचारी नींद!''

''क्यों, सपने की रानी नींद पर इतनी करूणा क्यों बिखेरी जा रही है?''

''नींद सपने की रानी है, यही तो उसके दुख का विषय है। जब तक बेचारी आँखें बन्द न करे, उसके सपने महाराज आने की कृपा ही नहीं करते।''

''तब तो , प्रीति हमी खुशकिस्मत हैं, जो हमें एक दूसरे से मिलने के लिए अपनी आँखें बन्द नहीं करनी पड़ती।''

''हाँ, बल्कि इसके विपरीत हमें एक दूसरे के पास आने के लिए उस समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी है, जब तक कि दूसरों की आँखें बन्द नहीं हो जातीं।''

'' एक हलकी हँसी की ध्वनि।''

''क्यों, इतनी रात गये तक भी तुम्हारे यहाँ कोई जग रहा था क्या?''

''मत पूछो, प्रेम! आज तो मैं बेहद परेशान हो गयी थी। न जाने कहाँ से मेरे पिताजी का एक मित्र शाम को ही आ धमका। चाय पी, फिर खाना खाया। मैंने सोचा, अब चला जायगा। पर वह मरदूद जो पिताजी से गप्प लड़ाने लगा, तो लगा, जैसे सुबह करके ही उठेगा। जब ग्यारह बज गया, तो मारे घबराहट के मेरा दम फूलने लगा। लगा, जैसे पूर्णिमा के चाँद पर एक ऐसा काला बादल आ छाया है, जो सुबह तक हटने का नहीं। दिल की उमंगे, तुमसे मिलने की सारी खुशियाँ जैसे हवा हो गयीं। रह-रहकर निराशा से उदास तुम्हारा चेहरा आँखों के सामने फिरने लगा। हृदय मारे व्यथा के कसक उठा। आँखों में आँसू भर आये। आखिर तकिये में मुँह गड़ाये, कलेजे को हाथों से दबाये कुछ देर तक यों ही पड़ी रही। फिर अपने को भुलाने की कोशिश की। मगर दिल था कि उसे किसी पहलू भी चैन ही नहीं मिलता था। क्या करती, सोचा क्यों न कोई उपन्यास ही पढ़ तबीयत बहलाऊँ। उठकर टेबुल-लैम्प का बटन दबाने ही वाली थी कि एक ख्याल दिल में आ चमका। चुटकी बजा मैं उठ खड़ी हुई। धीरे से कमरें की सिटकनी नीचे सरकायी। फिर चाकू ले कमरे के बाहर दीवार पर लगे स्विच-बोर्ड के सामने जा खड़ी हुई। एक बार इधर-उधर आँखें उठा भाँपा। माताजी के कमरें से खर्राटें की आवाज आ रही थी। अनीता के कमरे से नींद में डूबी हुई गहरी साँसें साफ सुनाई दे रही थीं। सिर्फ बाहर के कमरे से पिताजी और उनके मित्र की बातें सुनाई पड़ रही थीं। तार की ओर चाकू उठाते समय एक बार मेरा हाथ काँपा, पर इस चाँदनी रात में तुमसे मिलने की उत्कण्ठा इतनी तीव्र थी मैं दूसरे ही क्षण अपने काँपते हाथ पर काबू पा गयी। तार का कटना था कि पिताजी के कमरे में एक शोर बरपा हो गया। कुर्सियों के इधर-उधर हटने की खडख़ड़ाहट हुई कि मैं अपने कमरे में आ दरवाजों को उठँगाकर चारपायी पर ऐसे पड़ गयी, जैसे आठ ही बजे की सोयी हूँ। नौकरों के नाम बारी-बारी से ले थोड़ी देर तक पिताजी चीखते चिल्लाते रहे। पर उस समय वहाँ था ही कौन? सब के सब खा-पीकर अपने कार्टर में चले गये थे। एक नौकरानी जरूर थी, पर मैंने शाम को ही उसे साँट लिया था। आखिर उनके मित्र के दिमाग में अब जाकर अक्ल आयी। मैंने अपने कमरे से ही सुना, वह पिताजी से कह रहे थे-'ज्यादा जहमत न उठाएँ। काफी रात गुजर चुकी है। अब आप आराम करें।' पिताजी ने जैसे झुँझलाकर कहा-इन कम्बख्त नौकरों से तो तबीयत परेशान है। लाख चीखें चिल्लाएँ, मगर उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। थोड़ी देर बाद जब सब ओर सन्नाटा छा गया, तब जाकर मेंरी जान में जान आयी।

''तुम कितनी चतुर हो, प्रीति! तुम्हारी इस अनोखी सूझ की जितनी भी तारीफ की जाय, कम है।''

''प्रेम सब कुछ सिखा देता है। दिल में चाह होनी चाहिए, फिर तो राह आप ही निकल आती हैं। हाँ, कभी-कभी इन पाबन्दियों से तबीयत झुँझला जरूर जाती है।''

''लेकिन इस लुक-छिपकर चोरी-चोरी मिलने में जो मजा आता है, वह भला क्या ...''

''सो तो ठीक है। पर एक दिन यही पाबन्दियाँ अगर बेड़ियाँ बन पैरों को जगड़ दें, तो शुरू जवानी के आँख-मिचौली के इन खेलों का हश्र क्या होगा?''

''हमारे प्रेम का खेल हमारी जिन्दगी का खेल है, प्रीति! हम अपने को किसी हालत में भी पाबन्दियों के हवाले नहीं करेंगे? और ये पाबन्दियाँ भी तो तभी तक हैं, जब तक हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते।''

''और यदि वह समय आने के पहले ही ...''

''ओह, प्रीति, आज तुम यों बूढ़ियों-सी क्यों बातें कर रही हो? क्या आज कोई ऐसी बात हो गयी, जिससे तुम्हारे दिल में ऐसी शंकाएँ उठ रही हैं?''

''नहीं-नहीं, प्रेम? अभी तो कुछ ऐसा नहीं हुआ। पर आज जो मुझे एक कड़वा अनुभव हुआ है, उससे मेरा दिल घबरा उठा है। ग्यारह बजे तक जब पिताजी का मित्र न हटा, तो यह सोचकर कि आज मैं तुमसे न मिल सकूँगी, मुझे जो पीड़ा हुई, वह अपनी तरह का मेरा पहला अनुभव था। इसके पहले मुझे ऐसे अनुभव का अवसर ही कहाँ मिला था। इसीलिए बार-बार यह बात मेरे दिमाग में उठ रही है कि काश, कहीं ऐसा हो गया कि मैं तुमसे मिलने से मजबूर कर दी गयी, तो मेरी क्या हालत होगी?''

''बस, इतनी-सी बात से तुम घबरा गयी हो? नहीं, प्रीति तुम्हारे प्रेम के जीवित रहते ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। तुम्हारा प्रेम अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी तुम्हें अपना बनाएगा तुम अपने प्रेम पर विश्वास रखो! किसकी हिम्मत है, जो तुम्हें तुम्हारे प्रेम से अलग कर सके?''

''हाँ, प्रेम, तुम्हारे बिना अब मुझसे न रहा जायगा। मेरे रोम-रोम में तुम बस गये हो।''

''प्रीति!''

''प्रेम!''

कार की चाल एक मिनट के लिए और भी धीमी हो गयी। फिर मिली हुई प्रेम की सन्तोषभरी लम्बी साँसों की सिहरती हुई आवाज। कार फिर अपनी रफ्तार से चल पड़ी। फिर वही भरभराहट और उसमें लिपटी हुई बारीक ध्वनियाँ-

''तो आज कहाँ चलने का इरादा है''

''मैंने चिट में लिख तो दिया था।''

''ओह, मैं तो भूल ही रही थी। प्रेम, तुम्हारे पास जब मैं होती हूँ, तो न जाने मेरे दिल-दिमाग की क्या हालत हो जाती है। हाँ, वह मजनूँ का टीला है कहाँ?''

''थोड़ी दूर और है, बड़ा ही सुरम्य स्थान है। देखकर तुम खुश हो जाओगी। हाँ, उस चिट को तुमने फाड़ दिया था न?''

''फाड़ती क्यों? उसे कलेजे से लगा मैंने अपने चित्राधार में रख छोड़ा है।''

सडक़ से मुड़, थोड़ी दूर कच्ची सडक़ पर चल, कार रुक गयी। दोनों उतर हाथ में हाथ झुलाते चल पड़े।

''उई!'' प्रीति का बायाँ पैर गड्ढे में पड़ जाने से घुटने में लचक आ गयी। वह झुककर पैर थाम, चीखकर बैठने को हुई कि प्रेम उसे हाथों में सँभालते परेशान-सा हो बोल पड़ा-

''क्या हुआ?''

''कहाँ?'' और परेशानी जाहिर करता वह बोला।

''यहाँ !'' घुटने पर हाथ रखते उसने कहा।

''यहाँ?'' घुटने पर हाथ रख, प्रीति की ओर आँखें उठाये वह बोला।

''हाँ''

''रास्ता जरा खराब है। बहुत कम लोग यहाँ आते हैं।''- धीरे-धीरे उसके घुटने को सहलाता वह बोला।

''बस करो! अब ठीक हो गया।''- उसका हाथ अपने हाथ में ले वह बोली।

प्रेम के कन्धे पर हाथ रखे वह कुछ बायें पैर से भचकती हुई चली। फिर धीरे-धीरे ठीक से पैर रखने लगी।

''वह जो मीनार दिखाई देती है न, वही है मजनूँ का टीला।'' सामने हाथ से इशारा करते प्रेम बोला।

सामने चाँदनी के प्रकाश में जैसे अन्धकार का एक ऊँचा स्तम्भ धरतीपर खड़ा था। उसी की ओर आँखें उठाये प्रीति बोली-''बहुत पुरानी मालूम पड़ती है।''

''हाँ, बहुत पुरानी है। लोगों का कहना है कि मजनूँ अपनी लैला की खोज में जब पहाड़ों, वीरानों और जंगलों की खाक छान रहा था, तो यहाँ भी उसके पद-चिन्ह पड़े थे। किसी दीवाने ने उन्ही पद-चिन्हों की स्मृति-स्वरूप यह मीनार खड़ी की थी।''

''ओह! तब तो प्रेमियों के लिए यह एक तीर्थ-स्थान है!'' होंठों पर मुस्कान और आँखों में चमक लिये प्रीति बोली।

''आओ, जरा नजदीक से देखें!'' मीनार की ओर मुड़ती आँखों में असीम श्रद्धा लिये प्रीति बोली।

''देखो, काँटों में तुम्हारी साड़ी न उलझ जाय!'' सामने की जंगली बेर की झाड़ी की ओर से प्रीति का बाजू पकड़ अपनी ओर खींचते प्रेम बोला-''पहले चलो, जमुना का आनन्द लूट लें। फिर लौटते इधर से होकर चलेंगे।''

''यहाँ जमुना कहाँ?'' आँखों को ऊपर उठा पुतलियाँ नचाती प्रीति बोली।

''आओ भी तो! हाँ, जरा अपनी साड़ी को कब्जे में कर लो वरना, इन झाड़ियों के काँटों के प्रेम-प्रदर्शन से तुम तो परेशान होओगी ही, मेरी भी अँगुलियाँ उनसे तुम्हारे दामन को बार-बार छुड़ाने में खून-खून हो जाएँगी।'' परिहास भी एक मधुर हँसी हँसता प्रेम प्रीति के आँचल को उसकी कमर में लपेटता बोला।

आगे-आगे प्रेम झाड़ियों की टहनियों को हाँथों से हटाता और उसके पीछे-पीछे प्रीति काँटों से बदन चुराती बढ़ती गयी।

अब वे जमुना के ऊँचे कगार पर थे। सामने रेत के सपाट मैदान में चमकीली चाँदनी की चादर बिछी हुई थी। उसके आगे जमुना की सुनील जल की झलमलाती हुई धार ऐसी लग रही थी, जैसे चाँदी के मैदान से पिघले हुए नीलम की धार बही जा रही हो। कगार पर सटकर खड़े प्रेम और प्रीति खिलखिलाती हुई उत्फुल्ल आँखों से जैसे सामने बिखरे हुए असीम, उजले सौन्दर्य को पी जाना चाहते हों। एक टक सामने देखती ही प्रीति खोयी-सी बोली-''प्रेम, अगर दूर से हमें इसके तरह कोई देखे, तो क्या समझेगा?''

''समझेगा कि आकाश का चाँद पृथ्वी पर उतर चाँदनी के गले में बाहें डाले जमुना की शोभा निहार रहा है।''

कहकर आँखों में जैसे एक नशा-सा भर उसने प्रीति की ओर देखा। प्रीति ने अपनी सीप-सी लम्बी-लम्बी, बोझिल पलकें प्रेम की ओर उठायीं। प्रेम ने देखा, उन पलकों की आड़ में जैसे शराब का समन्दर लहरा रहा था। उसने आवेश में प्रीति का हाथ अपने हाथ में ले जोर से दबा दिया। हृदय का उमड़ता आनन्द साँस की राह निकल प्रीति के कपोल को सहराता निकल गया। ठगे-ठगे-से ही वे सँभलकर एक-दूसरे का सहारा बने नीचे उतरे।

खिली हुई चाँदनी हँसती हुई रूमानी फिज़ा, गुलाबी, शीतल हवा में बसी हुई रह-रहकर सिहरती हुई हवा और चारों ओर दृष्टि की सीमा तक छायी हुई खुशगवार, रहस्यमय खामोश, नीचे मिट्टी मिली हुई कोमल रेत, ऊपर अमृत की बारिश करता चाँद, पीछे लैला-मजनूँ की प्रेम-कहानी का मूर्त रूप मजनूँ का टीला, सामने गोपियों के रस-भर गीतों को गुनगुनाती बहती जा रही जमुना! इन सब के बीच प्रेम और प्रीति! लग रहा था उन्हें, जैसे वे ख्वाबों की दुनियाँ से हवा में पग रखते गुजर रहे हों सौन्दर्य और यौवन के सुगन्धित नशे में झूमते हुए।

तन्मयता में ही प्रेम का हाथ मचलकर प्रीति की ओर बढ़ा कि उसकी कमर में एक आकर्षक झुकाव हुआ, और दूसरे ही क्षण वह खिलखिलाती हुई स्प्रिंग की तरह उछल क्रीड़ातुर-सी भाग खड़ी हुई। शान्त वातावरण में उसकी मधुर खिलखिलाहट से जैसे सैकड़ों चाँदी की नन्हीं-नन्हीं घण्टियाँ टुनटुना उठीं। प्रेम के कान जैसे अमृत से भर उठे, हृदय के तारों में जैसे मधुर-मधुर गीतों की रागिनी बज उठी, आँखों से जैसे प्रेमासव छलक उठा। वह मुस्कराता लपका।

आगे-आगे हर दूसरे-तीसरे कदम पर मुड़-मुडक़र खिलखिलाती, कौतुक-भरी बड़ी-बड़ी आँखों से देखती भागती हुई प्रीति और पीछे-पीछे आँखों में लबालब प्यार भरे प्रेम जैसे उसका मन चाहता हो कि यों ही छिटकी रहे चाँदनी की मोहिनी मुस्कान, यों ही भीगती रहे प्रीति, यों ही गूँजती रहे उसकी खिलखिलाहट और यों ही पीछे-पीछे दौड़ता रहे वह क्षितिज के छोर तक।

क्षितिज के छोर तक तो नहीं, हाँ, जमुना के छोर तक इस शोख सुन्दरता और अल्हड़ यौवन की क्रीड़ामय भाग-दौड़ चलती रही। कछार के अधभीगे रेत पर थकी हुई प्रीति स्वतन्त्रता से दोनों पैर आगे को फैला, दोनों हाथों को पीछे की ओर रेत पर टेक, सिर पीछे को जरा लटका जोर से हाँफती हुई बैठ गयी। आँचल बाँयें कन्धे से बाजू तक फैल लहरा रहा था, और लम्बी बेणी दाँयी बाँह पर नागिन-सी कई बल खा लिपटी हुई-सी थी।

पास आ प्रेम उस सुन्दरता के अस्त-व्यस्त, पर मुक्त विलास को अतृप्त-सी आँखों से मन्त्र-मुग्ध सा देखता रह गया।

''बैठो भी! तुमने तो आज दौड़ाकर मुझे परेशान कर दिया!'' प्रीति ने आँखों को उसकी ओर मोड़ तनिक शिकायत के लहजे में कहा।

उसके दाहिने बैठ, उसकी बेणी को उँगली से छेड़ता, पलकें झुकाये प्रेम बोला-''शान्त सुन्दरता को देखते-देखते जब आँखें ऊब उठीं, तो उसे जरा छेड़ परेशान सुन्दरता का रूप देखने के लिए मन ललक उठा।''

''हूँ,'' आँखें मटका, बनती हुई प्रीति बोली-''तो अब कौन सा रूप देखने का इरादा है?''

''नारी का सब से मनमोहक रूप!'' प्रेम झट से बोल उठा, जैसे इस प्रश्न के उत्तर को पहले ही उसने सोच रखा था। और आँखों में एक मुस्कराता हुआ प्रश्न लिये वह प्रीति की आँखों में देखने लगा।

''वह कौन-सा है?'' आँखों में मचलती उत्सुकता को मुस्कराहट में छिपाती वह बोली।

''नारी का रूठना!'' प्रीति के कान के पास मुँह ले जाकर फुसफुसाया प्रेम।

''अच्छा! तो लो मैं रूठी!'' कहकर आँचल का घँूघट आँख तक खींच, बायें हाथ से प्रेम की छाती को एक हल्का धक्का दे, घूमकर, सिर जरा झुका, आँखों में हास्य-मिश्रित लज्जा लिये मुँह फेर लिया उसने।

उछलकर प्रेम उसके मुँह की ओर जा बैठा, और गर्दन नीचे कर, आँखें उठा उसे देखते बोला-

'सुन्दर नार रूठे तो कौन न मनाये! मान जाओ, मोरी रानी!' आँखों में जैसे कलेजा निकालकर प्रेम बोला।

''हटो भी! यों कोई देखले, तो?'' हाथ से उसका मुँह हटाते शर्माई-सी बनी प्रीति बोली।

''यों कोई देखेगा, तो सोचेगा कि मानसरोवर के तट पर एक हंसों का जोड़ा एक दूसरे की गर्दन में चोंच लिपटाये बैठा है।''

''अच्छा जी!'' और कुछ कहना ही चाहती थी कि हँसी रोके न रुकी और वह खिलखिला कर हँस पड़ी।

प्रेम को लगा, जैसे जमुना के तट पर एक श्वेत कमल खिल उठा हो। सिर उठा उल्लसित आँखों से उसने एक बार आकाश के चाँद को देखा, फिर प्रीति को देख, जमुना पर आँखें टिका मुग्ध-सा बोला-''प्रीति, यह आईना-सी बहती हुई जमुना की धार,ऊपर जा-बजा छिटके हुए तारों के बीच मुस्कराता हुआ चाँद, नीचे नन्हीं-नन्हीं लहरियों पर झूला-झूलता चाँद और तारों का मोहक देश। और इन दो चाँद और तारों की सुन्दर दुनिया के बीच बैठे हम और तुम। लगता है, जैसे आज सृष्टि का सारा सौन्दर्य, सारी सुषमा सिमटकर हमारे हृदयों में आ बसी है। प्रीति, आज के ये मधुर क्षण क्या जीवन में कभी भुलाये जा सकेंगे?'' कहते-कहते प्रेम का कण्ठ जैसे हृदय की आनन्दानुभूति की असीमता के आवेश में रुँध-सा गया। आत्म-विभोर-सी प्रीति ने उसकी छाती पर सिर टेक दिया। दोनों की आँखें आप ही धीरे-धीरे मुँद गयीं जैसे दोनों अपनी आत्मा के लहराते हुए आन्नद-सागर में डुबकी लगा गये। ...

उसी समय मजनूँ के टीले के पास, बेर की झाड़ियों में पत्तों की खडख़ड़ाहट हुई। फिर दो छायाएँ लम्बे-लम्बे कदम रखती कगार पर आ खड़ी हो, इधर-उधर चौकन्नी नजरों से देखने लगीं। दूर जमुना तट की ओर हाथ उठा एक ने फुसफुसाहट के स्वर में दूसरे से कहा-''वह देखो! वही होंगे। तुम जाओ। मैं उस मीनार में छिप जाता हूँ। होशियारी से काम लेना!''

कहने वाली छायामीनार की ओर बढ़ गयी और दूसरी छाया जमुना की ओर।

प्रेम और प्रीति के पीछे कुछ दूर पर खड़ी हो छाया ने उन्हें गौर से देखा। फिर होंठों में ही बुदबुदाया-''वही तो हैं!'' और हल्के कदम रखती वह ठीक उनके पीछे जा खड़ी हुई, और उन्हें फिर एक बार ध्यान से देख धीरे से बोली-''कौन, प्रेम और प्रीति?''

प्रेम और प्रीति की तन्मयता टूटी। अचकचाकर आँखें पीछे की ओर मुड़ीं, तो देखा, एक लम्बा व्यक्ति होंठों पर सुस्मित हास लिये उन्हीं की ओर निहार रहा था। उसके सिर के लम्बे-लम्बे सुफेद बाल गर्दन तक लटके हुए थे, सुफेद दाढ़ी छाती पर लहरा रही थी, सुफेद कुरता घुटनों के नीचे तक और उसके नीचे सुफेद ही तहमद पाँवों तक को ढँके हुए था। प्रेम और प्रीति की आँखों में भय काँप उठा। प्रीति चीखती हुई सी बोल पड़ी-''भूत!'' और उसे ऐसा लगा, जैसे वह बेहोश सी हो रही है। नन्हीं-सी जान!

प्रेम की काँपती आँखों के सामने बचपन की सुनी हुई भूतों की कितनी ही डरावनी कहानियों की घटनाएँ क्षण भर में घूम गयीं। उसका रोम-रोम काँप उठा।

''बेटा! यों घबराओ नहीं।'' छाया ने निहायत ही नरम स्वर में कहा-''मैं भूत नहीं हूँ। और तुम तो सच्चे प्रेमी हो। तुम्हें भूत और भविष्य का डर क्यों? प्रेमी का वत्र्तमान तो इतना सरस, इतना सुखद होता है कि उसे न तो कभी भूत का ख्याल आता है और न उसे भविष्य की चिन्ता ही सताती है!''

प्रेम की सहमी हुई नजर छाया के सौम्य चेहरे पर धीरे-धीरे उठी। गले के नीचे कई बार कुछ उतारकर उसनें किसी तरह टूटे स्वर में कहा-''तो ... तो ... तुम...तुम कौन हो? हम... हमारा नाम तुम्हें कैसे मालूम?''

सहमी हुई प्रीति को प्रेम के पीछे खिसकती देख छाया मुस्करायी। फिर बोली-''मैं मुहब्बत का फरिश्ता हूँ। दुनिया का कोई प्रेमी मुझसे अनजान नहीं। मैं दुनिया में घूम-घूम कर सच्चे प्रेमियों को आशीष देता हूँ। मैं तरसों रोमियों और जुलियट की कब्र पर गया था, परसों यूसूफ और जुलैखा के मदफन पर था, कल, शीरीं अैर फरहाद के मजार की जयारत की थी और आज मजनूँ के टीले की सैर को निकला हूँ। मुझे खुशी है कि यहाँ तुम-जैसे सुन्दर प्रेमियों का जोड़ा मुझे देखने को मिला। प्रेम और प्रीति! वाह क्या नाम हैं तुम्हारे! जैसे भगवान ने दुनिया में तुम्हें इसीलिए भेजा है कि तुम एक-दूसरे को प्यार करो,एक दूसरे के गले में बाहें डाले मुहब्बत की मीठी जिन्दगी गुजारो!''

डरे हुए प्रेम और प्रीति को लगा, जैसे किसी ने जादू के बल से उन्हें अभय प्रदान कर दिया हो। उन्होंने एक-दूसरे को मुहब्बत-भरी नजरों से देखा, और उठ खड़े हुए। और आँखों में अपार श्रद्धा और भक्ति भर, उन्होंने मुहब्बत से फरिश्ते की ओर देखा, जैसे कोई पुजारी अपने इष्ट देवता की मूर्ति की ओर देखता है।

''क्यों, बेटे, टीले की सैर कर चुके?'' एक रहस्य-भरी दृष्टि उन पर फेंकत हुए उसने कहा।

''अभी तो नहीं,'' आज्ञाकारिता के भार से सिर झुकाये आदरसूचक स्वर में प्रेम ने कहा।

''तो आओ, मैं भी उधर ही चल रहा हूँ,'' टीले की ओर मुड़ते हुए उसने कहा।

प्रेम और प्रीति ने एक-दूसरे की आँखों में देखा, जैसे वह पूछना चाहते हों, 'क्यों चला जाय?'

''सच्चे प्रेमी यों नहीं डरते, बेटे!'' उनको यों खड़े देख उसने मुडक़र कहा-'सच्चा प्रेमी यों फूँक-फूँककर पग नहीं उठाता, जरूरत पडऩे पर वह दार को भी अपनी प्रेयसी की बाहें समझ गले में लिपटा लेता है! आओ, आओ मेरे साथ!''

चलते-चलते उसने पूछा-''तो तुम एक-दूसरे को बहुत प्रेम करते हो न?''

''जी, हम एक दूसरे पर जान देते हैं,'' प्रेम ने कहा।

''तुम लोगों के माँ-बाप को मालूम है कि तुम एक-दूसरे को इतना प्रेम करते हो?''

''जी, नहीं, हम दो के सिवाय यह बात किसी को मालूम नहीं।''

''मान लो, तुम्हारे माँ-बाप को यह बात मालूम हो गयी, तो?''

''तब तो ग़जब हो जायगा! हम एक-दूसरे से मिल भी न सकेंगे?''

''फिर?''

''फिर न पूछिए, हम पर क्या गुजरेगी?''

''सुनूँ भी तो''

''उस वक्त हम एक बार साफ-साफ उनसे कह देंगे कि हम एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं। हमारी शादी कर दो, वरना ...''

''हाँ-हाँ, कहो, वरना?''

''वरना हमारी जिन्दगी तबाह हो जाएगी! हमारी आशाएँ कुँठित हो जाएगी! हम लुट जायँगे! हम पागल हो जायँगे! हम आत्म-हत्या कर लेंगे!''

''आत्म-हत्या कर लेंगे?''

''जी,'' प्रेम ने गले की टाई ढीली कर कहा। लग रहा था, जैसे कोई उसका गला घोंट रहा हो।

''और तुम, प्रीति?''

''मैं ... मैं भी आत्म-हत्या कर लूँगी,?'' गले से कुछ उतारकर प्रीति बोली, जैसे उसका दम घुट रहा हो।

''आत्म-हत्या?'' कहकर एक बार मुहब्बत का फरिश्ता जोर से हँसा। उसकी हँसी की गूँज से जैसे शान्त वातावरण चिहुँक-सा गया।

उसकी ओर मलकती आँखों में कुछ छिपाये-से देखते प्रेम बोला-''क्यों, आप इस तरह हँसे क्यों?''

''हँसा तुम लोगों की आत्म-हत्या की बात पर, बेटा-कितने भोले प्रेमी हो तुम लोग!'' ''तुम लोगों की शादी नहीं हुई, तो आत्म-हत्या कर लोगे। जैसे शादी ही तुम्हारे प्रेम की मंजिल है। क्यों?''

''जी! प्रेम में तड़पते हुए दो दिलों का हमेशा के लिए एक हो जाना ही तो प्रेम की मंजिल है। '' प्रेम ने बहुत सोचकर कहा।

''नहीं, वह प्रेम की मंजिल नहीं है। वह तो एक दूसरे पर अपना एकाधिपत्य प्राप्त करने की चाह कि मंजिल है। वहाँ दो-दो ही रहते हैं। एक कहाँ हो पाते हैं? जहाँ दो हैं जहाँ दुई है, वहाँ प्रेम नहीं हैं। प्रेम अपनी मंजिल स्वयं हैं। वह स्वयं ही हुई या अनेकता का अन्त है। उसके लिए कोई दूसरा नहीं। सब वह स्वयं ही है, स्वयं ही वह सब! मजनूँ का प्रेम प्रेम था। उस प्रेम ने सारी सृष्टि को, मय मजनूँ के, एक कर दिया था! वह एक लैला का रूप था! चाँद-सूरज, फूल-काँटे, ईट-पत्थर, यहाँ तक कि सृष्टि का जर्रा-जर्रा उसके लिए लैलामय हो गया था!''

''उँह!'' मुँह में जैसे कड़वाहट भर प्रेम बोला-''आप तो फरिश्तों की भाषा में बातें करने लगे। मेरी समझ में खाक नहीं आ रहा है। मैं तो जानूँ, मजनूँ लैला से प्रेम करता था। जब उसका प्रेम सफल न हुआ, तो उसने आत्महत्या कर ली। उसी तरह मैं और प्रीति एक-दूसरे को प्रेम करते है। जब हमारा प्रेम सफल न होगा, तो हम भी आत्महत्या कर लेंगे। क्यों, प्रीति?''

प्रीति ने यों ही सिर हिला दिया।

''नहीं, बेटा, मजनूँ ने आत्महत्या नही की। मजनूँ स्वयं की कोई हस्ती तो रह नहीं गयी थी, जिसका अन्त वह आत्महत्या से करता। उसके लिए सारी सृष्टि लैला थी, लैला सारी सृष्टि थी। उसके लिए उसकी लैला क्या मिट गयी, उसकी सारी सृष्टि मिट गयी, वह स्वयं मिट गया। प्रेम के रहस्य से अनभिज्ञ दुनिया ने समझा, मजनूँ ने आत्महत्या कर ली। ह: हा: !''

प्रेम हकबका-सा गया। उसके कण्ठ से कोई बोल न फूटा।

''क्यों, बेटा, चुप क्यों हो गये?''

''जी, मेरी समझ में कुछ आ नहीं रहा है। होगा कुछ।'' प्रेम ने ऐसे कहा, जैसे उसे उस बात से कोई दिलचस्पी न हो।

''खैर!'' प्रीति की ओर एक रहस्य-भरी दृष्टि डाल प्रेम से उसने कहा-''एक बात में तो तुम मजनूँ से अधिकर सौभाग्यशाली हो!''

''वह क्या?'' प्रेम उत्सुक हो बोला।

''वह यह है कि मजनूँ की लैला रात-सी काली थी, तुम्हारी प्रीति चाँद की तरह गोरी है!''

''जी!'' कुछ शरमाया-सा कह प्रेम ने प्रीति की ओर आँखें उठायीं, तो उनमें एक हर्षमिश्रित गर्व की चमक थी।

''अगर कहीं लैला-सी काली लडक़ी से तुम्हें प्रेम हो गया होता, तो?''

''उँह, मैं क्यों वैसी लडक़ी से प्रेम करता?'' कहकर उसने एक प्रश्न-सूचक दृष्टि से प्रीति को देखा।

''जैसे तुमने प्रीति से किया।''

''आप मुहब्बत के फरिश्ता होकर भी ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं? कहीं प्रेम भी किया जाता है? अरे, वह तो स्वयं ही हो जाता है। मेरा और प्रीति का संयोग था, सो हो गया।'' ''कहकर प्रेम ने मुहब्बत के फरिश्ते की ओर ऐसे देखा, जैसे गुरू की कोई गलती पकडऩे के बाद विद्यार्थी उसकी ओर देखता है।

''जब संयोग ही की बात है, तो मान लो कि तुम्हारा और लता का, या माधुरी का संयोग सम्भव हो जाय। तब?''

''एक दिल से एक ही को प्यार किया जा सकता है।''

''सो तो तुम ठीक ही कह रहे हो। अच्छा, मान लो, तुम्हारे जैसा किसी और का दिल तुम्हारी प्रीति को प्यार करने लगे। तब?''

''मेरे रहते किसका साहस है, जो प्रीति की ओर आँख भी उठा सके?'' आवेश में बोला प्रेम।

''शाबाश!'' आँखों में कुछ छिपाते हुए उसने कहा-

''अच्छा, आओ, मजनूँ के पद्-चिन्ह के तो दर्शन कर लो!''

सब मीनार की ओर बढ़े।

''तुम लोगों ने आगरे का ताज देखा है?''

''जी, हाँ! वह मुमताज और शाहजहाँ के शाही प्रेम का दुनिया के प्रेमियों के लिए एक नायाब तोहफा है। जैसे शाही उनका प्रेम था, वैसा ही शाही उसका अमर स्मृति-चिन्ह! जैसे चाँद के टुकड़ों से उसकी रचना हुई हो, जैसे संसार का सारा सौन्दर्य कला के सांचे में ढल यमुना के तटपर आ बैठा हो!''

''और यह मजनूँ के टीले की मीनार?''

''उँह! यह तो वही हुआ कि कहाँ राजा भोज और कहाँ भोजवा तेली! उस शाही ताज का इस घूरे के ढेर से मुकाबिला ही क्या? मालूम होता है, आपने अभी तक ताज को देखा नहीं है।''

''पास से तो नहीं, हाँ, दूर से देखा जरूर है। मुझे तो लगा कि वह एक कागज का खुशनुमा फूल है। और यह मजनूँ के टीले की मीनार इन बेर की जंगली झाड़ियों के बीच खिला हुआ एक जंगली गुलाब का फूल है। इस फूल में जो मुहब्बत की खुशबू है, उसमें कहाँ?''

प्रेम कुछ बोले कि ''लैला! लैला! ...'' की कराह-भरी पुकारें जैसे कहीं दूर से आयी।

अचकचाकर आवाज की ओर कान करते प्रेम बोला-

''यह आवाज कहाँ से आ रही है?''

''यह दीवाने मजनूँ की लैला-लैला की पुकार है बेटा! यहाँ के जर्रे-जर्रे में उसकी पुकार बसी हुई है। कयामत की आखिरी घड़ी तक उसकी पुकार की यह आवाज गूँजती रहेगी! क्या ताज के पास भी तुमने शाहजहाँ के प्रेम की कोई पुकार सुनी है, बेटा?''

प्रेम सहसा कुछ उत्तर न दे सका।

क्रमश: पास आती हुई फिर वही कराह-भरी लैला-लैला की पुकार!

''है! यह पुकार तो बढ़ती ही जा रही है। यह गूँज नहीं मालूम होती। यह तो जैसे सचमुच कोई लैला-लैला पुकारता हमारी ओर बढ़ा आ रहा है। यह मजनूँ का भूत तो नहीं?'' कहते-कहते प्रेम के रोंगटे खड़े हो गये। काँपते हुए हाथ से ही उसने प्रीति की बाँह पकड़ उसे अपनी ओर खींच लिया। प्रीति के दिल की धडक़न बढ़ गयी।

''हो सकता है, बेटा! कदाचित मजनूँ की रूह आज फिर अपनी लैला के फिराक में निकली हो। पर तुम इस कदर घबरा क्यों रहे हो! सच्चे प्रेमी यों नहीं घबराते, बेटा!''

''वह, वह देखो! कोई पागल लैला-लैला पुकारता हमारी ही ओर आ रहा है। प्रीति प्रीति, चलो, चलो। हमें कोई खतरा मालूम होता है!'' काँपती हुई आवाज में कहता प्रेम मुड़ा।

पास ही मीनार की बगल से एक डरावनी छाया हाथ में झल-झल करती कटार लिये, खून सी लाल-लाल आँखों से गुरेरती 'लैला-लैला' चीखती बढ़ी।

मुहब्बत के फरिश्ते ने जोर से एक अट्टहास किया।

थर-थर काँपते पैरों से प्रेम और प्रीति भागें-भागें कि उस डरावनी छाया ने जोर की एक थर्राती हुई चीख की,और लपककर प्रेम की छाती की ओर कटार बढ़ा प्रीति का हाथ पकड़ खुशी में चीख उठी-''मेरी लैला! मेरी लैला''

प्रेम के मुँह से एक चीख निकल गयी। वह हड़बड़ाकर प्रीति का बाजू छोड़ भाग खड़ा हुआ। हाथ छुड़ाने की कोशिश में छटपटाती प्रीति 'प्रेम-प्रेम' पुकारती बेहोश हो उस छाया की बाहों में आ रही।

मुहब्बत के फरिश्ता ने थोड़ी दूर तक प्रेम का पीछा करने का नाट्य कर जोर से हँसता हुआ पुन: मीनार के पास लौट आया।

सडक़ से जब कार की भरभराहट की आवाज आयी, तो छाया मुहब्बत के फरिश्ते से बोली-

''लो, सम्भालो प्रीति को! देख लिया न इनके प्रेम का नाटक!''

''हाँ! 'बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा, तो एक कतरए खून निकला।'' कहकर वह प्रीति को सम्भालने बढ़ गया।

न जाने कहाँ से बादल का एक सुफेद टुकड़ा उड़ता-उड़ात आ चाँद पर छा गया। उस धँुधली चाँदनी में प्रीति को उठाये वे दोनों सडक़ की ओर जा रहे थे।

दूसरे दिन सुबह चाय के समय प्रीति के पिता, उनके रात वाले वह मित्र, अनीता और उसकी माँ चाय पर प्रीति के इन्तजार में बैठे हुए थे।

देखते-देखते जब पन्द्रह मिनट बीत गये, तो पिता ने कहा-''अनिता, जरा देख तो, बेटी, प्रीति कहाँ रह गयी। चाय ठण्डी हो रही है।''

अनीता उठ प्रीति के कमरे में गयी तो देखा, प्रीति अस्त-व्यस्त सी तकिये में मुँह गड़ाये सिसक रही थी। उसके सिर के बाल बेढंगे तौर पर इधर-उधर बिखरे हुए थे। सिल्क की सुफेद साड़ी में कितनी ही शिकनें पड़ी हुई थीं।

''जीजी, जीजी!'' घबरायी हुई अनीता प्रीति के पलंग की ओर चिल्लाती हुई लपकी। प्रीति अचकचाकर, सिर उठा आँखों को पोंछ उठकर बैठ गयी।

अनीता उसके गले में बाहें डालकर उतावली-सी बोली-''क्यों, जीजी, तुम रो क्यों रही थीं।''

''नहीं तो,'' भीगे गले से कह प्रीति अपने बालों को अँगुलियों से ठीक करने लगी-खोई-खोई हँसी।

''वाह, अभी तो तुम सिसक रही थीं। मैं कहूँ ...''

''कुछ नहीं, अनीता, मैं ठीक हूँ।'' कहकर उसने आँचल सिरपर ठीक से रखा और उठकर खड़ी हो गयी।

''तो चलो चाय पर! पिताजी कब से इन्तजार कर रहे है!'' उसके गले में बाहें डाल फिर झूलती-सी अनीता बोली।

''तुम चलो मैं आ रही हूँ। जरा कपड़े बदल लूँ।''

अनीता चली गयी। प्रीति-तौलिया उठा नल की ओर बढ़ गयी।

प्रीति जब कपड़े बदल, सज-सँवर, अपने कमरे से निकली, तो उसने बहुत कोशिश की कि रोज की तरह उसके होंठों पर स्वाभाविक मुस्कान आ जाय। पर जैसे वह स्वयं को ही कुछ बदली-बदली-सी लग रही थी। मन में तो आया कि आज वह चाय पर न जाय। पर ऐसा करने से पता नहीं वह लोग क्या सोचने लगें। फिर अनीता ने उसे, रोते भी तो देख लिया है। कहीं वही न कुछ कह बैठे। निदान किसी तरह अपने को वश में कर वह चाय पर जा बैठी। उसके बैठते ही पिता बोल पड़े-''क्यों, बेटी, तबीयत तो ठीक है न? बड़ी देर कर दी!''

''जी, जरा कपड़े बदल रही थी'' आँखें नीचे किये ही कह दिया प्रीति ने और अपने को व्यस्त करने के लिए उसने चाय की प्याली उठा ली।

''क्यों? कुछ खाओगी नहीं?'' पिता ने फिर पूछा।

''नहीं, आज कुछ खाने को जी नहीं चाहता है,'' कहकर उसने प्याली होंठों से लगा ली।

''अच्छा, अच्छा! चाय ही पी लो!'' कहकर पिता ने अपने मित्र की ओर कनखियों से देखा। उनके मित्र ने होंठों में ही मुस्करा दिया।

चाय की कुछ चुस्कियाँ ले पिता फिर बोले-''प्रीति की माँ, रात मैंने एक अजीब सपना देखा।''

''क्या देखा?'' कुछ उत्सुक-सी प्रीति की माँ मुँह से प्याला हटाते बोलीं।

''देखा कि,'' प्रीति की ओर एक दबी नजर फेंक वह बोले ''रात के बारह बजे एक चोर मेरे घर में घुस आया है। सबको सोया देख वह प्रीति के कमरे में घुसा और उसे गोद में उठा कमरे से बाहर हुआ कि मैंने उठकर उसकी कलाई पकड़ ली।''

''सच, पिताजी? आपने उसकीं कलाई पकड़ ली?'' भोली अनीता मुस्कराती आँखों को नचाती बोल पड़ी।

''हाँ, बेटी! फिर तो वह प्रीति को छोड़ भाग खड़ा हुआ। मैं चोर-चोर चिल्ला पड़ा कि मेरी नींद खुल गयी।''

प्रीति का मन न जाने कैसा होने लगा। वह उठने को हुई, तो पिता फिर बोल पड़े-''क्यों, बेटी, चाय पी चुकी''

''जी, जरा आज मुझे कालेज का अधिक काम करना है,'' कह वह सिर झुकाये ही उठ खड़ी हुई।

''अरे, थोड़ी देर तो और बैठो, बेटी!''

प्रीति बैठ तो गयी, पर उसके दिल में जैसे हौल-सा हो रहा था।

''क्यों, प्रीति की माँ, तुम चुप कैसे हो गयी!'' पिता ने उनकी ओर देखते कहा।

''तुम्हारा सपना सुन मुझे तो चिन्ता हो गयी। कहीं मेरी बेटी पर कोई आफत आने वाली न हो।''

''अरे, तुम भी क्या बूढ़ियों-सी बातें करने लगीं! जानती हो, वह चोर कौन था?''

''कौन था वह?'' आँखें फैला सहमी-सी वह बोलीं।

''वह, वह'' प्रीति की ओर आँखें कर, मुस्करा कर बोले वह-''वह प्रेम था!''

''पिता जी!'' प्रीति सिर उठा चीख-सी उठी।

''बेटी, तुम यों घबरा क्यों रही हो? और सुनती हो, प्र्रीति की माँ, मैंने सोचा है कि प्रीति की शादी प्रेम से कर दी जाय। यह उसे बहुत चाहती है।''

''नहीं-नहीं, मैं उससे नफरत करती हूँ! मैं उसका मुँह तक देखना नहीं चाहती! वह ... वह ...'' अत्यधिक आवेश के कारण उसके होंठ काँप कर रह गये।

''ऐसा क्यों, बेटी!'' धीरे से पिता ने पूछा।

''वह ...वह ... रात मुझे भूतों के बीच छोडक़र भाग गया!'' अनजान में ही प्रीति के मुँह से ये शब्द निकल पड़े, जैसे वह ख्याल ही उसके दिमाग में चक्कर लगा रहा था, और उसे मतिभ्रम-सा हो गया था।

''भूतों के बीच छोड़ गया था! तो फिर यहाँ कैसे आयी?'' कृत्रिम आश्चर्य प्रकट करते वह बोले।

''हाँ, मैं यहाँ कैसे आ गयी?'' चकराई-सी प्रीति ने जैसे स्वयं से पूछा।

''यह तुम लोग क्या पागलों-सी बातें कर रहे हो?'' प्रीति की माँ जैसे कुछ न समझ प्रीति को पागल-सी आँखों से देखती हुई बोलीं।

मित्र ने अपनी उँगली से पिता की बगल में खोदकर आँखों से कुछ इशारा किया।

पिता जेब से एक चिट निकाल प्रीति की ओर बढ़ाते बोले-''इसें तुम पहचानती हो?''

''यह आपके हाथ कैसे लग गया? ओफ!'' प्रीति की आँखों के सामने की सारी चीजें जैसे चक्कर में आ गयीं।

''कल शाम को एक जगह भेजने के लिए तुम्हारे एक चित्र की जरूरत थी। तुम्हारा चित्राधार अनीता से मँगवाया, तो उसमें यह चिट पड़ा मिला। पढ़ा, तो चित्र भेजने की बात भूल गया। उसी वक्त अपने इस जिगरी दोस्त को बुला भेजा। इससे राय ली, तो तय हुआ कि तुम लोगों के प्रेम-नाटक में हम भी अपना एक दृश्य जोड़ देखें कि क्या होता है। जो हुआ, सो तुम्हें मालूम है। यह मेरे वही मित्र हैं, जिन्होंने मुहब्बत के फरिश्ते का अभिनय किया और पागल मजनूँ स्वयं मैं था।''

''पिताजी!'' चीख मार मेज पर सिर पटक प्रीति बिलख-बिलखकर रो पड़ी।

पिता उठकर, उसके पास जा, उसके बालों में हाथ फेरते स्नेह-सने स्वर में बोले-''बेटी, मुझे खुशी होती, अगर प्रेम मेरी कसौटी पर सच्चा उतरता! मगर वह तो झूठा था। वक्त पर उसकी कलई खुल गयी। नहीं तो, न जाने उसका वनावटी प्रेम तुम्हें क्या-क्या रंग दिखाता। बेटी, खुश होओ कि शुरू जवानी में ही तुम्हें एक ऐसा सबक मिल गया! इस सुन्दरता और शुरू की जवानी के दिलफरेब खेलों ने न जाने कितनी मासूम कलियों को खिलने के पहले ही मसलकर फेंक दिया है। मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी भी यों जवानी के हाथों एक खिलौना बन हमेशा के लिए टूट जाय।

''प्रीति की माँ, अब तुम इसे सँभालों! मैं अपने मित्र को विदा कर दूँ। उन्हें देर हो रही है।''

माँ और अनीता प्रीति की ओर मुस्कराती हुई बढ़ीं। पिता और उनके मित्र-मुस्कराते हुए बाहर निकल गये।


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